वेद, महर्षि दयानंद और भारतीय संविधान-44

कानून की कठोरता बनाम निर्ममता 

सामान्यत: कानून की कठोरता और निर्ममता को एक ही माना जाता है। लेकिन यह भी आजकल के कथित बुद्घिजीवियों की कोरी कल्पना ही है। कठोरता और निर्ममता में भारी अंतर है। कानून कठोर तो होना चाहिए, परंतु निर्मम नही। हमारे देश में ही नही अपितु विश्व में भी कुछ बातों के जिस प्रकार अर्थ बदले हैं, या उनकी नई नई परिभाषाएं अथवा व्याखएं की गयीं हैं, उससे उन बातों ने विश्व का अहित ही अधिक किया है।
कानून जब तक कठोर है, तब तक वह विधि की श्रेणी में आता है। विधि, अर्थात विधाता का बनाया गया श्रेष्ठ विधान। जिसमें दोषी व्यक्ति को दण्ड मिलता है और पीडि़त व्यक्ति को न्याय मिलता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि प्रत्येक प्रकार के शुभाशुभ कर्म का फल मनुष्य को अवश्य ही भोगना पड़ता है। श्रीकृष्ण भगवान का यह कहना विधि का एक विधान है। जिसे हम संसार में नित्य ही घटता हुआ देखते हैं। कानून का उद्देश्य भी यही होता है कि प्रत्येक अपराधी को या अभियुक्त को या दोषी को उसके किये का फल मिलना चाहिए। यदि आप किन्हीं दोषी लोगों का या भ्रष्ट लोगों का बचाव केवल इस आधार पर करने लगें कि इससे व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, और यह भी कि कानून को कठोर नही होना चाहिए तो यह प्रवृत्ति समाज में अपराध की प्रवृत्ति को और भी बढ़ाने वाली होती है। कानून इस सीमा तक कठोर होना ही चाहिए कि वह दोषी को फांसी के फंदे तक पहुंचा दे। यदि कानून में इतनी शक्ति नही है कि वह दोषी को फांसी तक पहुंचा सके, तो ऐसा कानून उपहास का कारण बन जाता है। जिससे अराजकता का जन्म होता है।
कानून एक सुरक्षा कवच है-दलित, शोषित और उपेक्षित समाज का असहायों का, निर्बलों का और निर्धनों का। संसार से उत्पीडऩ, दमन शोषण और पीड़ा को समाप्त करना कानून का उद्देश्य है। यदि कानून किसी भी प्रकार से उत्पीड़क, शोषक और दमनकारी लोगों का पक्ष पोषण करने लगे तो वह कानून, कठोर न होकर निर्मम हो जाता है। कानून की कठोरता सदा ही दुष्टो के लिए होती है। इसलिए वह कठोरता न्याय की स्थापना करने वाली होकर कठोरता सी नही लगती अपितु उसे कानून की उदारता ही कहना चाहिए। कानून निर्मम तब हो जाता है जबकि वह दुष्टो का पक्ष पोषण करने लगता है।
दुष्टो का पक्षपोषणं भ्रष्ट अधिकारियों, जजों और भ्रष्ट व्यवस्था द्वारा दोषी लोगों को दण्ड मुक्त करने से भी हो सकता है। जैसा कि हम वर्तमान में भारत वर्ष में होता हुआ भी देख रहे हैं। इसमें कुछ मानवाधिकार वादी लोगों ने भी अपनी ओर अनुचित प्रयास किये हैं। उन्होंने कानून की कठोरता को सभ्य समाज के लिए अभिशाप बताया है और उनके इस कथन का हमारे कुछ जजों ने और कानून के व्याख्याकारों ने गलत अर्थ निकाला है। उन्होंने कानून की कठोरता को यदि न्याय की स्थापना के लिए कानून की उदारता कहकर महिमा मण्डित किया होता तो उनकी इस व्याख्या से सभ्य समाज का वास्तव में भला हो सकता था। आलीशान भवनों में रहकर आलीशान जिंदगी गुजारने वाले सभ्य समाज ने इस प्रकार की कानून की व्याख्या से असभ्य संसार का सृजन करना आरंभ कर दिया है। जी हां, यह कथित सभ्य समाज वही है जहां पत्नी को मारकर पति उसका मांस फ्रीज में उबालकर रख देता है और सप्ताहों तक उसे खाता रहता है। जहां सामूहिक हत्याएं होती हैं और व्यक्ति हताशा व निराशा का जीवन व्यतीत करता है। जितने भी दुष्टïता के कृत्य इस सभ्य समाज में हो रहे हैं, उतने उस ग्रामीण अंचल में नही हैं, जिसे हम लोग, असभ्य समाज कहते हैं।
कारण केवल ये है कि आलीशान भवनों ने लोक मर्यादा को अपनी चार दीवारी के बाहर खड़ा कर दिया है, जबकि गांव की झोंपड़ी लोक मर्यादा को अपने बाहर भीतर सर्वत्र बिखरे देखती है।
कानून को विधि का पर्यायवाची इसलिए माना जाता है कि वह इस लोक मर्यादा का रक्ष होना चाहिए। लोक मर्यादा को तोडऩे वालों का कानून अपना शत्रु माने। आज के कानून के व्याख्याकार लोक मर्यादा के तोडऩे वालों को कानून का शत्रु न मानकर उसे व्यक्ति या समाज का शत्रु मान रहे हैं। यही कारण है कि आज व्यक्ति समाज और कानून तीनों अलग अलग धुरियों पर खड़े हैं। जबकि वास्तव में ये तीनों एक दूसरे के लिए हैं। विधि इनका अन्योन्याश्रित संबंध स्थापित करती है। व्यक्ति की रक्षा कानून और समाज करते हैं, और कानून की रक्षा समाज और व्यक्ति करते हैं इसी प्रकार समाज (लोक मर्यादा को संरक्षित करके) की रक्षा व्यक्ति और कानून करते हैं।
वेद ने मनुष्य से कहा-पशुन पाहि। तू पशुओं की रक्षा कर। वेद का यह आदेश है। यही उसकी एक विधि है। क्योंकि इस विधि में लोक कल्याण छिपा है। पशुओं की रक्षा करोगे, तो पर्यावरण संतुलन बना रहेगा और हमारा जीवन व्यवहार और जीवन व्यापार सभी भली प्रकार चलते रहेंगे। वेद की यह विधि उस व्यक्ति के लिए कठोर हो सकती है जो मांसाहारी हो और मांसाहार को अपना भोजन मानता हो। समाज इस विधि का तब रक्षक होता है, जब वह किसी व्यक्ति को मांसाहार नही करने देता है। व्यवस्था ऐसे समाज की सामान्य भावना या इच्छा का सम्मान करती है और वह मांसाहारियों को हतोत्साहित तथा शाकाहारियों को प्रोत्साहित करती है। इससे एक वास्तविक सभ्य समाज का निर्माण होता है।
परंतु आज हम देख रहे हैं कि देश में गो-हत्या निषेघ कानून होकर भी कानून के व्याख्याकारों ने गो-हत्या का कार्य धड़ल्ले से चला रखा है। इसमें समाज में सर्वत्र अशांति और कोलाहल का साम्राज्य है। कानून की ऐसी व्याख्या की जा रही है कि जिससे कुछ लोगों का या जीवों का जीना तक दूभर हो जाए। यह कानून की निर्मम व्याख्या है। कानून की कठोरता का उपहास करने वाले सभ्य समाज की नाक तले यही कानून कितना निर्मम हो चुका है, इस बात की अनुभूति संभवत: उन्हें भी नही है। यह कितना हास्यास्पद है कि मानवाधिकारवादी संगठन कानून की कठोरता की स्थिति को यथावत बनाये रखना चाहते हैं। इससे भारत का संविधान ऐसे निर्मम कानून की व्यवस्था का हामी नही है। भारत का संविधान एक उत्कृष्टï मानवीय समाज की स्थापना करना चाहता है। जिसमें न्याय हो, सदभावना हो, सम्मैत्री हो, करू णा हो और सबके लिए प्रेम हो। इस उत्कृष्टï मानवीय समाज की स्थापना के लिए कानून को कठोर तो होना पड़ेगा, परंतु निर्मम नही। उसे उन हाथों को रोकना पड़ेगा जो किसी को अपमानित करने के लिए उठते हों, या किसी कली को मसलने के लिए सदा मचलते रहे हों। उसे हृदय की पवित्रता को स्थपित करने वाला बनना पड़ेगा। हृदय की पवित्रता के लिए अपेक्षित कठोरता का प्रदर्शन आवश्यक है। यदि इस अपेक्षित कठोरता से मुंह मोडऩे का प्रयास किया गया तो कानून निर्मम हो जाएगा और हमारे हृदयों में सर्वत्र अपवित्रता का वास हो जाएगा।
महर्षि दयानंद इसी प्रकार के उत्कृष्ट मानवीय समाज के समर्थक थे। आज के कथित सभ्य समाज को कानून की कठोरता और निमर्मत के मध्य के अंतर को सही प्रकार समझना होगा, तभी हम अपने संविधान निर्माताओं के सपनों का भारत बनाने में सफल होंगे।

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