कबीर साहब और सामाजिक समरसता***


भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता में ख्याति प्राप्त ऋषि, मुनि, साधु, संत, तत्व ज्ञानी, सत्य शोधक समाज सुधारक, धर्म प्रचारक, वीर योद्धा, कवि एवं साहित्यकार से प्रेरणा लेने तथा उनका स्मरण करने की महान परंपरा रही है। संत परंपरा एवं साहित्य जगत में सर्वोच्च स्थान एवं ख्याति प्राप्त कबीर साहब के जन्म मरण के 450 साल बाद भी संपूर्ण भारत वर्ष और विदेशों में उनके प्रकट उत्सव समारोह आयोजित करना और उनकी सबद- साखी से अविरल प्रेरणा प्राप्त करते रहना 21वीं सदी में एक महान सुखद घटना मानी जानी चाहिए।
हम नहीं कह सकते कि हिंदी साहित्य के भक्ति काल के सभी संत, कवि, नाटककार तथा उपन्यासकार तत्कालीन धार्मिक- सामाजिक विडंबनाओं, घटनाओं एवं प्रसंगों से प्रभावित हुए होंगे और अपनी रचना के माध्यम से देश- समाज- काल को ललकारा होगा ! लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि कबीर समरसता संदर्भ – प्रसंग से निकट का सरोकार रखते हैं। प्रचलित अमानवीय कूरीतियों से दो दो हाथ करते आहत हुए थे । कबीर साहब पहले और आखिरी निर्गुण धारा के शब्द शिल्पी हैं, जिन्होंने धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था को लोकहित में ललकारा !! निर्भीक होकर हुंकार भरी और यह कह कर रचना धर्म को उत्तुंग शिखर पर पहुंचा दिया:
” जाति न पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान।।”
लेखन प्रतिभा, वैचारिक संपदा तथा निष्कपट भाव अभिव्यक्ति ईश्वर प्रदत्त शब्द अमृत है। कबीर साहब की संवेदना सृष्टि आंखन देखी और हृदय की अनुभूति होने के कारण देश- काल – परिस्थिति का ऐसा चित्रण हुआ जो आज तक संत परंपरा, निर्गुण भक्ति मार्ग और सामाजिक समरसता के क्षेत्र में सत्यमेव धारा के रूप में बह रही है। जिसमें बहकर अनेकानेक जन मानव जीवन की सार्थकता समझते हुए समरसता भाव जगाने और प्रगाढ़ करने में लगे हैं ।
दुर्भाग्यवश विदेशी आक्रांताओं ने जाने अनजाने में भारतवर्ष में जाति- धर्म भेदभाव का घिनौना और अमानवीय खेल खेला । अज्ञानता के चलते जनमानस में भेद भाव, अंदरूनी अंधापन और अहंकार हावी होता चला गया । धर्म और वर्ण की आड़ में समाज को बांटा गया। अंग्रेजों ने भी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई और उसमें वह सफल हुए। दुर्भाग्य से ऊंच- नीच के भेद-भाव को खत्म करने का प्रयास भी आजाद भारत में नहीं हुआ ?
हिंदू धर्मावलंबियों ने अपने एक वर्ग को ‘शुद्र’ संज्ञा देकर अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य किया? धर्मभीरू जात-पात में बंटे भारतीय समाज के लिए कबीर वाणी ने एक पथ सृजन किया और वह कहलाया “कबीर पंथ”। कबीर साहब ने विनम्रता किंतु तेजस्विता के साथ धर्मभीरु और ऊंच-नीच के हामी व्यक्तियों के लोक व्यवहार को यह कह कर लताड़ा: “माला तो कर में फिरे, जीभि फिर्रे मुख मांही।
मनुवां तो दहूं देसि फिरै,यह तो सुमिरन नाहीं।”
भारतीय संतो, समाजसेवियों तथा विद्वानों के साथ-साथ विश्व के असंख्य मनीषियों ने भी कबीर वाणी को विश्व की महान समसामयिक समरसता स्थापित करने वाला काव्य माना है । मेरे विचार में भी शबद-दोहा-साखी के माध्यम से समाज उन्नयन क्षेत्र में कबीर साहब जैसा दूजा कोई नहीं है। कबीर साहब के शब्द, साखी और दोहे, झोपड़ी से लेकर महल, गांव से लेकर शहर, काशी से लेकर एशिया- अमेरिका–युरोप- आस्ट्रेलिया- अफ्रीका तक आदर व श्रद्धा के साथ दोहराए जाते हैं। आज जहां भी किसी साधु, संत, फकीर, कथावाचक, लेखक- चिंतक को जब भी समाज की कुरीति पर कुठाराघात करना होता है अथवा बुराई पर व्यंग्यबाण चलाना होता है तो कबीर वाणी को ही उद्धृत करते हैं । ” काल काम तत्काल है, बुरा न किजै कोय।भले भलाई पे लहै,बुरे बुराई होय।।”
कबीर वाणी समाज सुधार के लिए सक्षम व सार्वभौमिक है। पाखंड और पाखंडी को उजागर करने और भटके हुए राही को सही पथ दिखलाने का अचूक हृदय भेदी शब्दबाण है । मानव जीवन की प्रकृति तथा मनुष्य स्वभाव को समझने तथा समझाने का रहस्योद्घाटन है। विश्व में कबीर साहब एकमात्र ऐसे संत कवि हैं जिनकी वाणी में समाजिक समरसता की भावना समाई हुई है। यथा :
” जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
या आपा को डारी दे , दया करे सब कोय।।”
कबीरदास के जन्म से भारत भूमि धन्य हुई है । कबीर पहले भक्ति काल के कवि हैं जो सिद्धांतवादी और रहस्यवादी होने के साथ सामाजिक क्रांति के महानायक बने हैं । कबीर वाणी प्रत्यक्ष रुप से आम आदमी के जीवन का प्रतिबिंब है। वह एक बहुत ही साधारण तरीके से जीवन जीने में विश्वास करना सिखाती है । कबीर के दोहे परमेश्वर की एकता की अवधारणा में आस्था और विश्वास करने का पाठ पढ़ाते हैं। कबीर साहब ने पाखंड के अभ्यास के खिलाफ कड़े व कठोर शब्दों का प्रयोग कर यह सिद्ध कर दिया है कि वे निर्गुण, निराकार, कालजई फक्कड़ फकीर, सच्चे हिंदू और इमानदार मुसलमान थे। वह जीवन पर्यंत सत्य की खोज में लगे रहे । उनकी अनुभवी वाणी से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने कई बार सत्य का साक्षात्कार किया है। कबीर साहब सत्य परख के आधार पर आज के समाज को सलाह देते हैं:-
“कबीर घास ना निंदिए, जो पांऊ तले होई।
उड़ी पड़ै जब आंख में, खरी दुहेली होई।।”
कबीर साहब ने सामाजिक प्राणी को बुराई से आगाह करने के उद्देश्य से अपनी वाणी के माध्यम से इंद्रधनुष रूपी द्वार खोला। वह द्वार जो कभी किसी के लिए बंद नहीं हुआ। ज्ञान का ऐसा द्वार जहां से सत्य का ही मार्ग निकलता और सत्य से जाकर मिलता है। ऐसा द्वार जहां कपाट है भी और नहीं भी ! अंदर बाहर कहीं भटकाव नहीं! कर वीर अर्थात कबीर का व्यक्तित्व, कृतित्व एवं कवित्व आज के अंध भक्त समाज के लिए आकाश सा ऊंचा, सागर सा गहरा और वायु सा निर्मल है। कबीर साहब अपने लिए नहीं जीए। उनकी धड़कन तो धड़की थी सामाजिक धार्मिक बुराइयों से मुक्ति के लिए। ऐसे समाज निर्माण के लिए धड़की, जहां विचार को आंख मूंदकर मान लेने की बजाय अपने विवेक से जांचें-परखें। एक ऐसा समाज जिसकी बुनियाद समानता और सामाजिक न्याय पर टिकी हो। आजाद भारत का सपना तो कबीर साहब ने ‘नवजागरण काल’ में ही देख लिया था। कबीर साहब ने विषम और विपरीत परिस्थितियों में सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन खड़ा किया और उसे अपनी वाणी के माध्यम से कोसों आगे बढ़ाया। इसी नवजागरण काल की कौंख में भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का जन्म हुआ। कबीर साहब ने दमन – शोषण और उत्पीड़न के संघर्ष में जो दोहे कहे। जो सबद कहे । जो साखी कही।
वह स्वाधीनता भाव जागृति हेतु महत्वपूर्ण है। यथा :
“एक दिन ऐसा होएगा, सब सुं पड़े बिछोई ।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होई।।”
कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि कबीर साहब भारत भू पर जन्म नहीं लेते ? जात- पात, धर्म- ढकोसला, भाव- प्रेम, गुरु- शिष्य, अपना -पराया, निंदा- प्रशंसा, स्वर्ग- नर्क, सच्चा- झूठा आदि सामाजिक विषयों पर गूढ़ ज्ञान की परत नहीं खुलती ? राजा और राणा को सरेआम नहीं ललकारते तो आज के भारतीय समाज में क्या-क्या अनर्थ होता? मेरे विचार से वर्तमान समाज के रहन-सहन व चिंतन मनन में बहुत सारी कमियां और खामियां होती। मनुष्य जीवन में स्वतंत्रता भाव का अभाव होता। स्वतंत्रता भाव मानव स्वभाव का वह भाव होता है जो मानव के मन -मस्तिष्क में ‘दासता’, हीनता, दरिद्रता जेसी मनोग्रंथि को पनपने नहीं देता है।
आज भारत को आजाद हुए सात दशक बीत चुके हैं लेकिन कबीर साहब की पीड़ाओं का समाधान नहीं हुआ है !! संवैधानिक प्रयास से अनेक सामाजिक और धार्मिक अभिशाप नष्ट हुए हैं लेकिन अंतःकरण से इस तरह के परिवर्तनों को स्वीकारना अभी बाकी है ? भूतकाल में जो सामाजिक और धार्मिक गलतियां हुई है । उसे सुधारने के लिए अंतः करण से सभी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक संस्थाओं को आगे आना होगा । अंतःकरण में, नैतिकता में, भाव में, वर्ताव में परिवर्तन लाना अत्यंत आवश्यक है। कार्य थोड़ा सा कठीनाई भरा जरुर है लेकिन कबीर साहब द्वारा सुझाए गए मार्ग पर कर समरसता की ओर चार कदम आगे बढ़ा जा सकता है ।
” कबीर यह तन जात है,सको तो राखु बहोर।

खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर।।

डॉ बालाराम परमार ‘हंसमुख’

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