सेवा, साहस और शौर्य के प्रतीक सरदार श्री जागीर सिंह ‘बेन्स’ को मिला ‘भारत गौरव’

भारत से बहुत दूर सात समंदर पार भारत की संस्कृति के प्रति समर्पित भाव रखकर मानवता की सेवा करने वाले समाजसेवी सरदार जागीर सिंह बैंस हो अमेरिका की प्रमुख संस्था संस्कृति युवा संस्था के द्वारा भारत गौरव से सम्मानित किया गया है। संसार में दिखाया है कि प्रतिभा किसी के परिचय की मोहताज नहीं होती। जब उसे पंख लगते हैं तो वह आदमी को इतनी दूर उड़ाकर ले जाती है कि जिसकी आदमी खुद कल्पना नहीं कर सकता।श्री जागीर सिंह बैंस का जन्म 5 जनवरी 1932 ई. में पंजाब प्रांत स्थित होशियारपुर जिले के एक छोटे से गाँव ‘परमोदेवता’ में हुआ । इनकी माँ का नाम श्रीमती जवानी कौर तथा पिता का नाम सरदार गोपाल सिंह है।

  यहीं से उनके जीवन का शुभारंभ हुआ और होशियारपुर के ही होशियार पुत्र ने अपनी होशियारी के अनेक सोपानों को छूते हुए और अनेक कीर्तिमान स्थापित करते हुए भारत गौरव के सम्मान को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की। उनके जीवन पर यदि प्रकाश डाला जाए या विचार किया जाए तो निश्चित रूप से उनको भारत गौरव देकर स्वयं यह सम्मान ही सम्मानित हुआ है।

प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव से प्राप्त कर कक्षा पांच से दस तक की शिक्षा अपने गाँव के पास के खालसा उच्च विद्यालय से लेकर श्री सिंह बचपन में पैदल तीन कोस की दूरी को तय कर खालसा उच्च विद्यालय पहुंचते थे। निश्चित रूप से एक बालक के लिए इतनी दूर पैदल चलना एक बड़ी बात होती है, पर जिसे बड़ी चुनौती से लड़ना होता है उसके लिए दूरियां सिमट जाती हैं। मानो तीन कोस पैदल चलने वाले बालक ने उसी समय यह तय कर लिया था कि उसे दूर देश जाकर भी अपने साहस, शौर्य, वीरता और संस्कृति प्रेम का परचम लहराना है।
और यही हुआ वह बालक जबकि इस पवित्र धरती से उठकर आज अपने सभी बहन भाइयों और परिवार के साथ अमेरिका में सुव्यवस्थित और बहुत ही सम्मान पूर्ण जीवन जी रहे हैं। अपने बचपन के बारे में जानकारी देते हुए वह बताते हैं कि मेरे बड़े भाई जो मुझसे मात्र 15 महीने बड़े हैं, मेरे साथ-साथ पढ़ते थे तथा स्कूल भी साथ-साथ ही जाया करते थे। 1917 में उच्च विद्यालय की शिक्षा पूर्ण कर दोनों एक साथ जालंधर स्थित डी.ए. बी. कॉलेज (महाविद्यालय) में दाखिल हो गए। इसके उपरांत मै अपने ज्येष्ठ भ्राता के संग सूरानुस्सी गाँव में रहने लगा। जो उस डी. ए. बी. महाविद्यालय से तीन कोस की दूरी पर था तथा उनके गाँव ‘परतो देवता से बारह कोस की दूरी पर अवस्थित था। प्रथम वर्ष बीतने के बाद इनके पिताजी ने साईकिल लाकर दी ।
श्री बैंस ने बचपन में ही भारतीय सेना में जाने का निश्चय कर लिया था। सिंह साहब 1950 ई. के जनवरी माह में ई.एम.ई. विद्यालय हल्ली सिकंदराबाद (बेंगलुरु, कर्नाटक) में दाखिल हुए। यह रेल की इनकी पहली लम्बी यात्रा थी जो उन्होंने की थी दो रात एवं दो दिनों की यात्रा के उपरान्त ये सिकन्दराबाद पहुंचे। पाँच जनवरी को इनका दाखिला उक्त विद्यालय में हो गया।
अपने परिवार से दूर जब इन्हें सेना में सेवारत रहना पड़ा तो पर परिवार की यादें बहुत सताती और घरवालों को भी इनकी बेहद कमी महसूस होती थी । सिंह साहब के ज्येष्ठ भ्राता ने 1951 ई. में भारतीय वायु सेना में पदार्पण किया। पुनः दोनों भाईयों का मिलन बेंगलुरु में 1951 ई. में हुआ।1952 ई. में अपनी तकनीकी प्रशिक्षण पूर्ण करने के बाद इनकी नियुक्ति एम.ए.जी. डब्ल्यू कार्यशाला इंदौर मध्यप्रदेश में हुई। इंदौर की कार्यशाला में लगातार छह महीने तक कार्य करने के बाद इन्हें पराहूपर के रूप में पेराशूट प्रशिक्षण विद्यालय आगरा, उत्तर प्रदेश भेज दिया गया। पैरासूट प्रशिक्षण की पूर्ण करने के उपरान्त इन्हें उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में नियुक्त किया गया। इन्फैंटरी कार्यशाला आमदाबाद, गुजरात में इनकी नियुक्ति हुई।
19 अगस्त 1954 ई. में सिंहसा काय धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। निश्चित रूप से वह क्षण बहुत ही महत्वपूर्ण और गौरवशाली थे जब सिंह साहब को 1956 ई. के गणतंत्र दिवस परेड के अवसर पर दिल्ली में सिक्ख रेजिमेंट के 50 पेराब्रिगेड में प्रतिनिधि के रूप में प्रदर्शन करने का अवसर प्राप्त हुआ। अपने प्रदर्शन को उन्होंने बहुत बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया था। 1957 ई. में 118 इन्फैटरी कार्यशाला जलंधर में नियुक्त हुए जहाँ इन्हें दल के सदस्य के रूप में विविध प्रकार के संयंत्रों का अंतर्वेक्षण एवं सुधार की जिम्मेदारी मिली। इस कार्य के मध्य हिमाचल प्रदेश के आदमपुर, धर्मशाला आदि स्थानों पर जाकर निरीक्षण करते थे।
पुनः 1960 ई. में कुछ प्रशासनिक प्रशिक्षण के लिए इन्हें तेलंगाना राज्य के हैदराबाद शहर के सिकन्दराबाद भेजा गया। 1961 से लेकर 62 ई. तक इलेक्ट्रीकल एवं मैकेनिकल इन्जीनियरिंग महाविद्यालय सिकन्दराबाद में आर्ममेन्ट आफीसर मेडिकल पाठ्यक्रम में प्रशिक्षण लिया। पाठ्यक्रम के पूर्ण होने पर इन्हें असम राज्य के गुवाहाटी में सी. एच. एम. के पद पर प्रोन्नति मिली। इसके बाद इन्होंने अरुणाचल प्रदेश, कॉमेन्ग जिला के सेकेन्ड इन कमान्ड के रूप में कार्य किया। इस सेवा काल में ये अपने दस्ते को गुवाहाटी से बोमडिला तक देखते थे, यह चीन का सीमान्त क्षेत्र था। 1950 ई. में इनकी नियुक्ति राजस्थान के जोधपुर से 226 इन्फेंटरी कार्यशाला गुजरात के कच्छ भुज क्षेत्र में हुई। इसके उपरान्त जूनियर कमीशन्ड ऑफिसर के रूप में प्रोन्नत होकर ये पाकिस्तान की सीमावर्ती
क्षेत्र में आए। 1966 में जब भुज नगर में थे तो मोटरसाईकल से बहुत बड़ी दुर्घटना में इनकी पैर की हड्डी टूट गई। तब इन्हें पहले अहमदाबाद के अस्पताल तदुपरांत मुंबई के अस्पताल में दाखिल कराया गया।
इनकी पत्नी उस समय आर. के. पुरम के सरकारी आवास में रहती थीं। इन्हें पता चला कि इनके पाँच वर्ष का पुत्र दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती है साथ ही साथ पत्नी भी नवजात शिशु के साथ उसी अस्पताल में भर्ती थीं । इन्होंने छुट्टी लेने की कोशिश की क्योंकि इनकी पत्नी के लिए पति एवं पुत्र को अलग-अलग जगहों पर जाकर देखना संभव नहीं हो सकता था। इनके बड़े एवं छोटे भाई इन सब की देख-भाल में संलग्न थे, फिर भी सिंह साहब बहुत अधिक चिंतित थे। इनकी चिंता को देखकर इनके मित्र ने छुट्टी ली तथा इनके पुत्र का कुशल क्षेम जानने दिल्ली के एम्स अस्पताल पहुंच गए। सिंह साहब के पैर का ऑपरेशन कर स्टील को तो नी गई थी, लेकिन इस ऑपरेशन से इनके पाँचों में सिस्ट फॉर्म कर गया था और संक्रमण अपनी चरमसीमा पर पहुँच चुका था। इनके कमांडिंग ऑफिसर अस्पताल में मिलने आए तथा इन्हें यह सूचना दी कि इनके पुत्र की स्थिति अब ठीक हो गई है। इस समाचार को सुनकर इधर सिंह साहब की स्थिति में सुधार हो रहा था उधर एक दिवस पूर्व इनके पुत्र की मृत्यु हो गई। इन्होंने अपने पुत्र के दाह संस्कार में भाग लिया। 1967 ई. में इन्हें अस्पताल से छुट्टी मिली तथा जोधपुर की इकाई में ये वापस कार्य पर आए 1968 के अन्त में इनका स्थान परिवर्तन नई दिल्ली के इलेक्ट्रीकल एवं मेकेनिकल इन्जीनियरिंग निदेशालय में हुआ। इनकी प्रोन्नति हुई इन्हें सूबेदार का पद मिला।
सचमुच यह घटना बहुत दुखद थी। इस प्रकार के अनेक उतार-चढ़ाव इनके जीवन में आए परंतु उन्होंने कभी अपने मनोबल पर इन घटनाओं का विपरीत प्रभाव नहीं पड़ने दिया । यही कारण रहा कि सिंह साहब निरंतर प्रगति करते रहे और आगे बढ़ते रहें। उन्होंने आगे देखना सीखा, पीछे नहीं। अपनी इस अद्भुत विलक्षणता के कारण ही वह निरंतर प्रगति सोपानों को छूते रहें।

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