भारत के 50 ऋषि वैज्ञानिक अध्याय – 31: आयुर्वेद के महान ऋषि पुनर्वसु

आयुर्वेद के महान ऋषि पुनर्वसु

मानव स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए अपने जीवन को ऊंची साधना में समर्पित करने वाले महान ऋषियों में ऋषि पुनर्वसु का नाम भी बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्हें आयुर्वेद का गहरा ज्ञान था। जिसके आधार पर उन्होंने आयुर्वेद की स्वास्थ्य परंपरा को आगे बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

आयुर्वेद का है ऋषि , पुनर्वसु है नाम।
व्यक्तित्व बड़ा महान है, किए बड़े सब काम।।

पुनर्वसु मात्रेय संहिता के रचयिता भी माने जाते हैं। इनके पिता अत्रि ऋषि थे। इसीलिये इन्हें पुनर्वसु आत्रेय कहा जाता है। अपने योग्य पिता की विरासत को आगे बढ़ाने का इन्होंने महत्वपूर्ण और शानदार कार्य किया। इसके साथ – साथ पिता जिस क्षेत्र में कार्यरत थे, उसी में अपनी प्रतिभा को प्रकट कर अपना विशेष स्थान बनाने में सफलता प्राप्त की। आयुर्वेद के माध्यम से मानवता की सेवा करते हुए इन्होंने इतिहास में अपना स्थान सुरक्षित किया।
इनके पिता अत्रि ऋषि स्वयं आयुर्वेदाचार्य थे। उन्होंने भी आयुर्वेद चिकित्सा तंत्र की परंपरा को समृद्ध करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उन्होंने आयुर्वेद चिकित्सा तंत्र पर महत्वपूर्ण शोध कार्य किया। अश्वघोष के अनुसार, आयुर्वेद-चिकित्सातंत्र का जो भाग अत्रि ऋषि पूरा नहीं कर सके थे उसे उनके पुत्र पुनर्वसु ने पूर्ण करके यह सिद्ध किया था कि वह पिता के अनुव्रती हैं और उनके संकल्पों के प्रति अपने आपको समर्पित करने में अपना सौभाग्य समझते हैं। 

पिता के अनुव्रती बनकर , नाम बढ़ाया भारत का।
यश की सुगन्धि फैल गई थी जिसका वह महारत था।।

पिता का अनुव्रती होना भारत की वैदिक परंपरा है। पिता का सबसे बड़ा पुत्र उसके अपने गुणों के सर्वाधिक निकट होता है। इसलिए भारत में जयेष्ठ पुत्र को पिता का उत्तराधिकारी घोषित करने की परंपरा रही है। वास्तव में उत्तराधिकारी घोषित करने की यह परंपरा इस बात का प्रतीक है कि पिता का अनुसरण ,अनुकरण और अनुव्रती होने की परंपरा यथावत जीवित बनी रहे।
‘चरकसंहिता’ के मूल ग्रंथ ‘अग्निवेशतंत्र’ के रचयिता अग्निवेश के गुरु ऋषि पुनर्वसु ही थे। ऋषि पुनर्वसु को भारद्वाज ऋषि का समकालीन माना जाता है। यदि ऐसा है तो फिर ऋषि पुनर्वसु का काल रामायण काल का है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ‘चरक संहिता’ से पहले ‘अग्निवेश तंत्र’ भारत और संपूर्ण विश्व का चिकित्सा क्षेत्र में दीर्घकाल तक नेतृत्व करता रहा था। इनके पिता अत्रि ऋषि अपने आप ही आयुर्वेद के महान मर्मज्ञ थे । उन्होंने स्वयं ने अपने पुत्र पुनर्वसु को आयुर्वेद का आचार्य बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था अर्थात आयुर्वेद की शिक्षा इन्हें अपने पिता से ही प्राप्त हुई थी। ऋषि भारद्वाज से भी इन्होंने आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की थी। इस प्रकार इनके व्यक्तित्व निर्माण में दो महान ऋषियों का पुरुषार्थ काम आया। यह दोनों ऋषि ही अपने समय के और अपने विषय के मूर्धन्य विद्वान थे। स्पष्ट है कि उनका दिव्य ज्ञान उनके लिए पथ प्रदर्शक सिद्ध हुआ।

ऋषियों का संसर्ग मिले, संबंध मिले, संपर्क मिले।
सौभाग्य तभी बढ़ पाता है जब ऋषियों का हर तर्क मिले।।

ऋषि पुनर्वसु के बारे में विद्वानों का यह भी मानना है कि उनका कोई निश्चित निवास स्थान नहीं था। वह अक्सर पर्यटन पर रहते थे । उन्होंने अपने आपको चलता फिरता औषधालय बना लिया था। लोक सेवा करना और लोक सेवा को ही लोक साधना मानना उनके जीवन का उच्चादर्श था। चिकित्सा क्षेत्र में काम करने वाले हमारे हर ऋषि, आचार्य या वैद्य का उद्देश्य धन कमाना न होकर धर्म कमाना होता था। आजकल चिकित्सा क्षेत्र में काम करने वाले चिकित्सकों के लिए हमारे प्राचीन ऋषियों की यह परंपरा अनुकरणीय हो सकती है। धरती को स्वर्ग बनाने के लिए हमारे ऋषियों की यह परंपरा बहुत ही उपयोगी है।

ऋषि पुनर्वसु जहां भी जाते थे, वहीं लोगों को आयुर्वेद का उपदेश करते थे। अपने उपदेशन के माध्यम से वह लोगों को आयुर्वेद के साथ जोड़कर स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करते थे। इस प्रकार पूरे जीवन को उन्होंने लोक कल्याण के लिए समर्पित किया। इसमें स्वार्थ की दूर दूर तक कहीं गंध नहीं आती थी। ऋषि पुनर्वसु ने परमार्थ और लोक कल्याण को जीवन का उद्देश्य बनाकर जीवन को सेवा साधना का प्रतीक बना दिया। उनके इस प्रकार के जीवन व्यवहार से तत्कालीन समाज के अनेक लोगों को लाभ मिला। मानवता को सही दिशा मिली और उनकी प्रेरणा शक्ति से प्रभावित होकर लोगों को भी सर्वहित में काम करने का उपदेश प्राप्त हुआ। इस प्रकार पुनर्वसु ने उच्चादर्शों की परंपरा को अपनाकर अपने जीवन को धन्य किया।
आत्रेय के नाम पर हमें लगभग तीस आयुर्वेदीय योग उपलब्ध होते हैं। इनमें बलतैल एवं अमृताद्य तैल का निर्देश चरकसंहिता में उपलब्ध है।

लोकहित है सीखना तो आओ भारत की शरण।
लोक हितकारी जनों के जहां पर पड़े हैं चरण।।
सभ्यता का झूलना है , हमारी दिव्य मां भारती,
 शांति और मोक्ष के,  मिलते जहां अंतःकरण।।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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