मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 32 उत्तरवर्ती राणा शासक
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उत्तरवर्ती राणा शासक
महाराणा राज सिंह के पश्चात उनके पुत्र महाराणा जय सिंह ने 1680 से 1698 ई0 तक शासन किया। इस महाराणा का समकालीन मुगल शासक औरंगजेब था। कुछ देर तक महाराणा ने इस मुगल शासक से युद्ध किया पर अपने विलासी स्वभाव के कारण अधिक देर तक युद्ध जारी नहीं रख सका और औरंगजेब से संधि कर ली। इस महाराणा के शासनकाल में जयसमंद झील का निर्माण करवाया गया। 1698 ई0 में महाराणा जय सिंह की मृत्यु हो गई। इसकी मृत्यु के पश्चात महाराणा अमर सिंह द्वितीय ने 1710 ई0 तक शासन किया। उन्होंने अपने शासनकाल में मेवाड़ की कृषि व्यवस्था पर विशेष रूप से ध्यान दिया। उन्होंने कई ऐसे सुधार किए जिससे मेवाड़ के किसानों की आर्थिक व्यवस्था में सुधार आया। इस प्रकार के कार्यों से इस राणा को लोगों ने भी विशेष रूप से सम्मान दिया। इसके पश्चात महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय ने 1711 ई0 से 1734 ई0 तक शासन किया।
महाराणा संग्राम सिंह प्रथम का नाम महाराणा वंश में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। जिसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं। जिस प्रकार महाराणा संग्राम सिंह प्रथम न्याय प्रिय, निष्पक्ष ,सिद्धांत प्रिय ,अनुशासित और आदर्शवादी व्यक्तित्व के स्वामी थे। कुछ वैसे ही गुण महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के भीतर भी थे। उन्होंने भी अपने समकालीन कई राजाओं से युद्ध किए थे और मेवाड़ राज्य की प्रतिष्ठा और सीमाओं को बढ़ाने में सहायता की थी।
महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय का राज्याभिषेक 26 अप्रैल ,1711 ई. को संपन्न हुआ था। उनका राज्याभिषेक समारोह बड़े गौरवशाली ढंग से संपन्न हुआ था । जिसमें जयपुर के राजा जयसिंह द्वितीय भी उपस्थित रहे थे। इनके द्वारा उदयपुर में सहेलियों की बाड़ी ,सीमारमा गाँव में वैधनाथ का विशाल मंदिर ,नाहर मगरी के महल ,उदयपुर के भवनों में चीनी की चित्रशाला आदि बनवाये गये एवं वैद्यनाथ मंदिर की प्रशस्ति लिखवाई गई। महाराणा का 24 जनवरी, 1734 को देहान्त हो गया।
संग्राम सिंह अपने शासनकाल में मुगल बादशाह फर्रूखसियर पर जजिया कर को हटवाने के लिए दबाव बनाने में सफल हुए थे। फर्रूखसियर के द्वारा लिए गए इस निर्णय से उस समय के हिंदू समाज को बहुत बड़ी राहत अनुभव हुई थी। यह अलग बात है कि अपने मुस्लिम दरबारी मंत्रियों और अधिकारियों के दबाव के चलते कुछ समय पश्चात ही मुगल बादशाह की ओर से फिर से जजिया कर लगा दिया गया। इस बार महाराणा चुप रहे। कहा जाता है कि इसके बाद बादशाह बने रफीउद्दरजात ने जजिया कर को हटाने का शाही फरमान जारी किया था।
महाराणा संग्रामसिंह के बारे में कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि “बप्पा रावल की गद्दी का गौरव बनाये रखने वाला यह अंतिम राजा हुआ।”
इन्होंने उदयपुर में ‘सहेलियों की बाड़ी’ का निर्माण करवाया तथा मराठों के विरुद्ध भीलवाड़ा ‘हुरडा सम्मेलन’ की योजना बनाई। इन्होंने 18 बार युद्ध किए।
महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय की मृत्यु के बाद जगतसिंह द्वितीय ने 1734 ई. में राज्यभार संभाला । इस महाराणा के शासनकाल में मराठों ने पहली बार प्रवेश करने में सफलता प्राप्त की और कर देने के लिए महाराणा को बाध्य किया। मराठों की इस प्रकार की आक्रामक नीति के कारण अन्य शासकों के साथ मिलकर मोर्चा बनाया। दिल्ली पर जब मुगलों की सत्ता कमजोर पड़ी तो हमारे हिंदू शासक परस्पर लड़ने में एक बार फिर अपनी शक्ति, ऊर्जा और धन का अपव्यय करने लगे। जगतसिंह द्वितीय ने पिछोला झील में जगतनिवास महल बनवाया।
महाराणा जगत सिंह द्वितीय के दरबारी कवि नेकराम ने ‘जगतविलास’ ग्रंथ लिखा। मराठों के विरुद्ध राजस्थान के राजाओं को संगठित करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने 17 जुलाई, 1734 ई. को हुरड़ा (भीलवाड़ा) नामक स्थान पर राजपूताना राजाओं का सम्मेलन आयोजित कर एक शक्तिशाली मराठा विरोधी मंच बनाया। इसके शासन काल में पेशवा बाजीराव प्रथम मेवाड़ आया और चौथ वसूलने का समझौता किया। इसके उपरांत भी महाराणा जगत सिंह द्वितीय को एक वीर और प्रतापी शासक नहीं माना जा सकता । वह एक विलासी और कामी शासक था। जिस पर मुगलिया संस्कृति अपना रंग दिखा रही थी। 1751 ईस्वी में इस महाराणा की मृत्यु हो गई थी।
महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय ( 1751 – 1754 ई० )
महाराणा जगत सिंह द्वितीय की मृत्यु के पश्चात उनका पुत्र महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय राज सिंहासन पर बैठा। जिस प्रकार महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय महाराणा संग्राम सिंह प्रथम के सामने कहीं नहीं टिकता था वैसे ही महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय भी महाराणा प्रतापसिंह प्रथम के सामने कहीं नहीं टिकता था। महाराणा जगतसिंह द्वितीय के सबसे बड़े पुत्र के रूप में महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय मेवाड़ के राज्य सिंहासन पर विराजमान हुए थे। मेवाड़ का राज्यभार संभालने के समय इस महाराणा की अवस्था 27 वर्ष थी। इस महाराणा का नाम चाहे प्रताप था परंतु सच यह था कि यह प्रताप विहीन और कांति विहीन शासक था। उस समय की परिस्थितियों में जिस प्रकार कई चुनौतियां छिपी हुई थीं उन चुनौतियों से मुंह छुपा कर बैठना मेवाड़ के किसी भी शासक के लिए उचित नहीं था, पर दुर्भाग्य की बात है कि यह महाराणा उस समय की चुनौतियों से मुंह फेर कर ही बैठ गया था।
महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय ने मराठों की शक्ति का विरोध नहीं किया और उनसे डर कर उन्हें कर देता रहा। इस महाराणा का शासन अत्यंत संक्षिप्त रहा। 3 वर्ष के इसके शासनकाल में कई आक्रमणों को झेलने के लिए मेवाड़ को अभिशप्त होना पड़ा। अंबेर के राजा जयसिंह की बेटी से इस महाराणा का विवाह हुआ था। जिनसे इन्हें एक बेटा उत्पन्न हुआ । जिसका नाम राज सिंह द्वितीय था। 1754 ईस्वी में जब महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय का देहांत हुआ तो उसके 11 वर्ष के अल्पव्यस्क पुत्र राजसिंह द्वितीय ने मेवाड़ का सत्ता भार संभाला।
महाराणा राजसिंह द्वितीय ( 1754 – 1761 ई० )
महाराणा राज सिंह द्वितीय से भी मेवाड़ की वे अपेक्षाएं पूर्ण नहीं हो पाई जिनके लिए वह अभी तक लालायित था। अनेक प्रकार की चुनौतियां मेवाड़ के सामने खड़ी थीं। पर कोई भी महाराणा उसे ऐसा नहीं मिल रहा था जो उन चुनौतियों को स्वीकार करे। महाराणा राज सिंह द्वितीय भी एक ऐसा ही अयोग्य शासक सिद्ध हुआ। जिस प्रकार मराठा निरंतर मेवाड़ पर आक्रमण कर रहे थे उससे यह महाराणा अत्यधिक हो गया। मराठों का स्वयं सामना न करके इसने देश व धर्म के साथ गद्दारी करते हुए उन लोगों का साथ दिया जो उस समय अहमद शाह दुर्रानी को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित कर रहे थे। महाराणा राज सिंह के इस प्रकार के आचरण से कुल का गौरव नष्ट हुआ। निरंतर मराठों को कर देते रहने से इस महाराणा के शासनकाल में मेवाड़ का खजाना भी खाली हो गया था। ऐसा भी कहा जाता है कि इसे अपने विवाह के लिए भी उस समय कर्जा लेना पड़ा था।
इस कमजोर महाराणा को इसी के चाचा अरि सिंह ने मरवा दिया था। इसका कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी ना होने के कारण अरिसिंह को मेवाड़ का शासक बनाना मेवाड़ के सरदारों व सामंतों के लिए बाध्यता हो गई थी। जब अहमद शाह दुर्रानी ने भारत पर 1761 में आक्रमण किया तो उसी समय राजसिंह द्वितीय का निधन हो गया था।
महाराणा अरिसिंह द्वितीय ( 1761 – 1773 ई० )
महाराणा अरि सिंह द्वितीय ने सत्ता प्राप्त करने में तो सफलता प्राप्त कर ली परंतु उसके पश्चात वह भी उन परिस्थितियों में मेवाड़ का दुर्भाग्य ही स्थित हुआ। उसके दरबारी सरदार व सामंत उसे किसी भी दृष्टिकोण से सम्मान देना उचित नहीं मानते थे, परंतु उसके साथ समन्वय स्थापित रखना उनकी विवशता थी, क्योंकि उस समय कोई भी उत्तराधिकारी मेवाड़ के पास नहीं था। वह एक भावुक और क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति था। जिसने भावुकता और क्रोध के आवेश के वशीभूत होकर अपने भतीजे को ही समाप्त करवा दिया था। उसके चरित्र और आचरण दोनों में गंभीर दोष थे। जिनके कारण उसे राजकीय सम्मान प्राप्त नहीं हुआ।
इस महाराणा के सत्ता भार संभालने के पश्चात महाराणा राज सिंह द्वितीय की एक गर्भवती रानी से एक पुत्र उत्पन्न हुआ । फलस्वरूप राज दरबारियों ने उस बच्चे का पालन पोषण मेवाड़ के एक भावी शासक के रूप में करना आरंभ किया। अब सभी राज दरबारियों का एक उद्देश्य हो गया था कि किसी भी प्रकार से इस कामी व क्रोधी शासक अरि सिंह से मेवाड़ को मुक्त किया जाए। उस राजकुमार का नाम रतन सिंह था। कुछ काल पश्चात राजदरबारियों के सहयोग से इस बालक रतन सिंह ने कुंभलगढ़ के किले पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया और वहीं पर अपना दरबार लगाना आरंभ कर दिया। कुल मिलाकर इस स्थिति को भी मेवाड़ के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता था। क्योंकि इससे सत्ता के दो केंद्र बन गए और शक्ति का विखंडन हुआ।
महाराणा अरि सिंह के पश्चात महाराणा हम्मीर सिंह द्वितीय ने 1773 से शतक 1778 ईस्वी तक शासन किया। उस के शासनकाल में सिंधिया और होलकर ने मेवाड़ राज्य को लूट पीटकर बहुत अधिक हानि पहुंचाई। इसके पश्चात 1778 से 1828 ईस्वी तक महाराणा भीमसिंह ने मेवाड़ पर शासन किया। इस महाराणा के शासनकाल में भी मेवाड़ का यह गौरवशाली वंश अपनी पारिवारिक कलह की भावना से दुर्बल होता चला गया। 13 जनवरी 1818 ईस्वी को ईस्ट इंडिया कंपनी और मेवाड़ राज्य में समझौता हो गया। जिससे मेवाड़ ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के अधीन हो गया। यह समय का फेर ही था कि कमजोर शासकों के कारण मेवाड़ जैसे राजवंश को भी पराधीनता के ऐसे दुर्दिन देखने पड़े । इसके बाद महाराणा जवान सिंह ने मेवाड़ पर 1828 से 1838 तक शासन किया । यह निसंतान थे। सरदार सिंह को इन्होंने गोद लिया था। वास्तव में यह सभी शासक नाम मात्र के ही महाराणा थे । इनमें महाराणा का कोई भी गुण नहीं था। महाराणा जैसी पदवी को इनके रहते लज्जित होना पड़ रहा था।
महाराणा सरदार सिंह ने 1838 से 1842 तक अर्थात कुल 4 वर्ष तक शासन किया। उनके पश्चात महाराणा स्वरूप सिंह ने 1842 से 18 61 तक शासन किया। तत्पश्चात महाराणा शंभू सिंह 1861 से 1874 तक मेवाड़ के शासक रहे। राणा शंभू सिंह के पश्चात महाराणा सज्जन सिंह 1874 से 1884 तक मेवाड़ के शासक। इस महाराणा के शासनकाल में आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज विशेष रुप से मेवाड़ के राज दरबार में आते जाते रहे थे। उन्होंने महाराणा को दुर्व्यसनों से बचाने का हर संभव प्रयास किया था । महाराणा पर ऋषि के उपदेशों का अच्छा प्रभाव भी पड़ा था। कहा यह भी जाता है कि महाराणा सज्जन सिंह के भाट केसरी सिंह पर भी स्वामी दयानंद जी महाराज का अच्छा प्रभाव था। स्वामी दयानंद जी महाराज की सद – प्रेरणा के चलते ही इस वंश ने अपने स्वाभिमान को पुनर्जीवित करने का गंभीर प्रयास किया था। इस राजवंश के जिस भाट पर स्वामी दयानंद जी का गहरा प्रभाव था उनके बेटे ने 1912 ई0 के दिल्ली दरबार के समय तत्कालीन महाराणा फतेह सिंह को गंभीर संदेश दिया था कि आपको अपने परिवार के सम्मान की कुल परंपरा का ध्यान रखते हुए इस दरबार में उपस्थित नहीं होना चाहिए, जहां भारतवर्ष के सभी राजे रजवाड़े ब्रिटेन के राजा के सामने सर झुका कर बैठेंगे या उसके सम्मान के लिए खड़े होकर अपनी पगड़ी को झुकाएंगे। उस भाट ने महाराणा को संकेत से ही यह स्पष्ट किया था कि जिस पगड़ी को कभी अकबर के सामने नहीं झुकाया गया वह यदि आज ब्रिटेन के राजा के सामने झुकेगी तो इससे आपकी कुल परंपरा कलंकित होगी।
अपने भाट की इस प्रकार की बातों को सुनकर दिल्ली दरबार में आता हुआ मेवाड़ का महाराणा वापस चला गया था। यह घटना महाराणा फतेह सिंह के शासनकाल की है, जिन्होंने 1883 से 1930 ईस्वी तक मेवाड़ पर शासन किया था। उनके पश्चात महाराणा भोपाल सिंह मेवाड़ की राज गद्दी पर बैठे। इन्हीं के शासनकाल में भारत स्वाधीन हुआ था। उन्होंने भारत के प्रति निष्ठा रखते हुए सरदार पटेल जी के आग्रह पर तुरंत भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे। उनका देहांत 1955 में हुआ। उनके देहांत के पश्चात महाराणा भगवत सिंह महाराणा के पद पर विराजमान हुए, जिनका देहांत 1984 में हुआ। वर्तमान में इस शानदार वंश की शानदार परंपरा का निर्वाह महाराणा महेंद्र सिंह कर रहे हैं। जिनका भारतवर्ष में एक विशेष और सम्मान पूर्ण स्थान है। आजकल लोकतंत्र का युग है। राजशाही अब बीते दिनों की बात हो चुकी है। इसके उपरांत भी भारत के जिन गिने-चुने राजवंशों के लोगों को विशेष सम्मान प्राप्त है उन सब में सर्वोपरि महाराणा वंश है।
(समाप्त)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत