स्वाधीनता का अमृत महोत्सव और महर्षि दयानंद

हम स्वतंत्रता के 75 वर्ष में स्वतंत्रता का महोत्सव मना रहे हैं।
ऐसे ही पावन वर्ष में महर्षि दयानंद की 200 वी जन्मजयंती भी राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी धूमधाम के साथ बहुत ही उल्लास एवं उत्साह से भरपूर होकर हम मना रहे हैं।
हां जी, हम उन महर्षि दयानंद की बात कर रहे हैं जिन्होंने भारतवर्ष में विलुप्त हुई वेद की विद्या को पुनर्स्थापित करके विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया था ।जो सत्य के एकमात्र उद्घोषक थे। जिनका वैदिक सिद्धांत, दिव्य दर्शनदृष्टि जब तक यह सृष्टि रहेगी तब तक प्रासंगिक रहेगा।
बाल विवाह प्रथा, पर्दा प्रथा, जाति प्रथा, छुआछूत जैसी अनेक सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष करके वैदिक विद्या को, वैदिक पद्धति को, वैदिक सिद्धांतों को भारतवर्ष में पुनर्स्थापित किया।
स्वतंत्रता के 75 वे महोत्सव में यदि महर्षि दयानंद का नाम न लिया जाए और उनका कार्य भारतीय जनमानस के समक्ष न रखा जाए तो यह उनके साथ बहुत बड़ा पाप एवं अन्याय होगा।
क्योंकि महर्षि दयानंद स्वराज्य के सच्चे आराधक, प्रथम उद्घोषक ,पोषक एवं संदेशवाहक थे। “अर्चन ननु स्वराज्यम” अर्थात हम स्वराज्य के आराधक बनें। यहीं से भारत के प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की भूमिका तैयार हुई थी। उसी मंत्र से अनेक बलिदानियों को राष्ट्र की बलिवेदी पर अपने अमर बलिदान प्राण उत्सर्ग करने की प्रेरणा प्राप्त हुई।
महर्षि दयानंद का स्पष्ट कहना था कि “माता भूमि पुत्रो अहं पृथ्वीयां” अर्थात यह भारत भूमि मेरी मां है और मैं उसका पुत्र हूं।
“राष्ट्रदा राष्ट्रं मे‌ देहि” अर्थात हे ईश्वर राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना से मुझे ओतप्रोत करो ।जब स्वामी जी ने अपने भाषण में युवा वर्ग के ह्रदय में उत्कृष्ट नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का बीजारोपण किया तब भला कौन नहीं चाहेगा अपनी मां की आंचल की रक्षा करना। यही था वह क्रांतिवीज। जहां से अनेकों क्रांतिकारी उत्पन्न हुए।
” वयं तुभ्यं बलिहत:स्याम” अर्थात हे मातृभूमि! हम तुझ पर सदा ही बलिदान होने के लिए तैयार रहें।
ऐसा सुनकर किसी युवक में क्रांति के बीज नहीं जागेगें?
स्वामी जी एक निर्भीक एवं निर्डर सन्यासी थे। उनका आत्मबल उच्च कोटि का था। उदाहरण देखिए , 1873 में अंग्रेज अधिकारी नॉर्थब्रुक ने स्वामी जी से कहा कि अंग्रेजी राज्य सदैव रहे इसके लिए भी प्रार्थना करिएगा। तो महर्षि ने तुरंत अंग्रेज को निराश करते हुए उत्तर दिया की स्वाधीनता मेरी आत्मा और भारतवर्ष की आवाज है ।यही मुझे प्रिय है। मैं विदेशी साम्राज्य के कुशल क्षेम की प्रार्थना कदापि नहीं कर सकता।

महर्षि दयानंद का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के काठियावाड़ जनपद के टंकारा ग्राम में एक संपन्न ब्राह्मण परिवार में पिता कर्षन जी तिवारी के माता- अमृता बाई के यहां पर हुआ था। माता-पिता ने बहुत ही खुशी से उनका बचपन का नाम मूलशंकर रखा था। मूल शंकर बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। बचपन में ही 14 वर्ष की अवस्था में महाशिवरात्रि की एक अद्भुत घटना से उनके मन में विरक्ति एवं कैवल्य के भाव उत्पन्न हुए और वह सच्चे शिव की खोज में 21 वर्ष की अवस्था में जब पिताजी और माताजी शादी की तैयारियां कर रहे थे, तो घर से एक सुनसान रात में चुपचाप निकल पड़े। भला जिनको कुछ करना होता है वह किसके रोके से रुकते हैं। उनका तो जन्म ही संसार में मानव कल्याण के लिए हुआ था। गुरु पूर्णानंद सरस्वती से सन्यास प्राप्त करने के पश्चात प्रज्ञाचक्षु महात्मा विरजानंद दंडी जी से मिलकर सच्चे गुरु की उनकी इच्छा पूर्ण हुई थी।
एक मुट्ठीभर लोन्ग गुरु दक्षिणा में स्वामी दंडी जी को देने आए तो स्वामी विरजानंद जी ने उन्हें समाज में व्याप्त कुरीतियों, अविद्या, पाखंड, अंधविश्वास, अनाचार,नारी अपमान, शुद्र को हेय दृष्टि से देखने एवं छुआछूत को दूर करने की आज्ञा दी।
यहीं से उन्होंने “कृण्वंतो विश्वमार्यम्” अर्थात पूरे विश्व को श्रेष्ठ बनाना है, तथा भारतीय समाज को वेदों की ओर लौटाना है, का प्रण लिया। तथा सद्विद्या, सदाचार, सन्मार्ग का पथ प्रदर्शन भी किया। जातीय व्यवस्था पर कुठाराघात किया ।उसका जमकर विरोध किया। गुण कर्म और स्वभाव के अनुसार विवाह पद्धति का समर्थन करने वाले महर्षि दयानंद एकमात्र सिद्ध पुरुष थे। जिन्होंने हमको संस्कार विधि दी। इसके अतिरिक्त सत्य का प्रकाश विश्व में फैलाने के लिए सत्यार्थप्रकाश अमर ग्रंथ की रचना की। वैदिक आर्ष पद्धति का पुनर्निर्माण किया। वेदों को जर्मनी से मंगा कर उनके मंत्रों एवं ‌ऋचाओं का साधारण हिंदी में अनुवाद करके भारतीय जनमानस के समक्ष प्रस्तुत किया।
सन 1855 में हरिद्वार से ही स्वामी दयानंद जी फर्रुखाबाद पहुंचे। वहां से कानपुर गए और लगभग 5 महीनों तक कानपुर और इलाहाबाद के बीच लोगों को जागृत करने का कार्य करते रहें। स्वतंत्रता के आंदोलन में लोगों की भूमिका निश्चित करते रहे। यहां से स्वामी जी मिर्जापुर गए ,और लगभग 1 माह तक आशील जी के मंदिर में रहे। वहां से काशी जाकर कुछ समय तक रहे स्वामी जी के काशी प्रवास के दौरान झांसी की रानी लक्ष्मीबाई उनसे मिलने गई । काशी में ही रानी झांसी का मायका था।
रानी ने महरिशी से कहा कि मैं एक निसंतान विधवा हूं ।अंग्रेजों ने घोषित कर दिया है कि वह मेरे राज्य पर कब्जा करने की तैयारी कर रही है इससे झांसी पर हमला करने वाले हैं ।
अतः आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं देश की रक्षा हेतु जब तक शरीर में प्राण हों फिरंगीओं से युद्ध करते हुए शहीद हो जाऊं।
महर्षि ने रानी से कहा यह भौतिक शरीर सदा रहने वाला नहीं है वह लोग धन्य हैं जो ऐसे पवित्र कार्य के लिए अपना शरीर न्योछावर कर देते हैं ऐसे लोग मरते नहीं बल्कि अमर हो जाते हैं । लोग उनको सदा आदर से स्मरण करते रहेंगे। तुम निर्भय होकर तलवार उठाओ विदेशियों का साथ से मुकाबला करो।
महर्षि दयानंद और 1857 क्रांति में उनका योगदान।

1857 की क्रांति न केवल भारत के राष्ट्रीय इतिहास के लिए अपितु आर्य समाज जैसी क्रांतिकारी संस्था के लिए भी एक महत्वपूर्ण वर्ष है । इस समय भारत के उस समय के चार सुप्रसिद्ध संन्यासी देश में नई क्रांति का सूत्रपात कर रहे थे। इनमें से स्वामी आत्मानंद जी की अवस्था उस समय 160 वर्ष थी। जबकि स्वामी आत्मानंद जी के शिष्य स्वामी पूर्णानंद जी की अवस्था 110 वर्ष थी । उनके शिष्य स्वामी विरजानंद जी उस समय 79 वर्ष के थे तो महर्षि दयानंद की अवस्था उस समय 33 वर्ष थी।
बहुत कम लोग जानते हैं कि इन्हीं चारों संन्यासियों ने 1857 की क्रांति के लिए कमल का फूल और चपाती बांटने की व्यवस्था की थी ।
कमल का फूल बांटने का अर्थ था कि जैसे कीचड़ में कमल का फूल अपने आपको कीचड़ से अलग रखने में सफल होता है , वैसे ही हमें संसार में रहना चाहिए अर्थात हम गुलामी के कीचड़ में रहकर भी स्वाधीनता की अनुभूति करें और अपने आपको इस पवित्र कार्य के लिए समर्पित कर दें । गुलामी की पीड़ा को अपनी आत्मा पर न पड़ने दें बल्कि उसे एक स्वतंत्र सत्ता स्वीकार कर स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए साधना में लगा दें।
इसी प्रकार चपाती बांटने का अर्थ था कि जैसे रोटी व्यवहार में और संकट में पहले दूसरे को ही खिलाई जाती है , वैसे ही अपने इस जीवन को हम दूसरों के लिए समर्पित कर दें । हमारा जीवन दूसरों के लिए समर्पित हो जाए , राष्ट्र के लिए समर्पित हो जाए ,लोगों की स्वाधीनता के लिए समर्पित हो जाए। ऐसा हमारा व्यवहार बन जाए और इस व्यवहार को अर्थात यज्ञीय कार्य को अपने जीवन का श्रंगार बना लें कि जो भी कुछ हमारे पास है वह राष्ट्र के लिए है , समाज के लिए है , जन कल्याण के लिए है।

स्वतंत्रता का प्रथम उद्घोष।

अपने भारतभ्रमण के दौरान देशवासियों की दुर्दशा देख कर महर्षि इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पराधीन अवस्था में धर्म और देश की रक्षा करना कठिन होगा , अंगेजों की हुकूमत होने पर भी महर्षि ने निडर होकर उस समय जो कहा था , वह आज भी सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध है , उन्होंने कहा था ,
“चाहे कोई कितना ही करे, किन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। किन्तु विदेशियों का राज्य कितना ही मतमतान्तर के आग्रह से शून्य, न्याययुक्त तथा माता-पिता के समान दया तथा कृपायुक्त ही क्यों न हो, कदापि श्रेयस्कर नहीं हो सकता”
(महर्षि दयानंद के विषय में अनेक महापुरुषों के वचन अलग से पढ़े जा सकते हैं)

1857 से लेकर 59 तक महर्षि दयानंद ने भूमिगत रहकर देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में विशेष योगदान दिया। इसके बाद 1860 में सार्वजनिक मंच पर दिखाई पड़े।
महर्षि दयानंद ने यह बात संवत 1913 यानी सन 1855 हरिद्वार में उस समय कही थी, जब वह नीलपर्वत के चंडी मंदिर के एक कमरे में रुके हुए थे , उनको सूचित किया गया कि कुछ लोग आपसे मिलने और मार्ग दर्शन हेतु आना चाहते हैं , वास्तव में लोग क्रांतिकारी थे , उनके नाम थे —
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1.धुंधूपंत – नाना साहब पेशवा ( बालाजी राव के दत्तक पुत्र )
.2. बाला साहब .
3.अजीमुल्लाह खान .
4.ताँतिया टोपे .
5.जगदीश पर के राजा कुंवर सिंह .
इन लोगों ने महर्षि के साथ देश को अंगरेजों से आजाद करने के बारे में मंत्रणा की और उनको मार्ग दर्शन करने का अनुरोध किया ,निर्देशन लेकर यह अपने अपने क्षेत्र में जाकर क्रांति की तैयारी में लग गए , इनके बारे में सभी जानते हैं।

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