मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 6 ख चित्तौड़ अभियान पर इतिहासकारों के मत

चित्तौड़ अभियान पर इतिहासकारों के मत

अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ अभियान पर मुहम्मद हबीब का कहना है कि अलाउद्दीन खिलजी के नेतृत्व में शाही सेनाएं राजस्थान में प्रवेश कर गंभीरी और वेहद नदियों के बीच पहुंचकर शिविर लगाकर और चित्तौड़ दुर्ग का घेरा डालकर युद्घ के लिए सन्नद्घ हो गयीं। सुल्तान ने अपनी सेना को दो भागों में विभक्त कर किले पर दोनों ओर से आक्रमण का आदेश दिया। इन सेनाओं द्वारा दो माह तक अनवरत आक्रमण के पश्चात भी मुसलमानों को विजय प्राप्त करने में कोई सफलता प्राप्त न हो सकी।
अमीर खुसरो के वर्णन को देखते हुए कुछ इतिहासकारों ने यह अनुमान भी लगाया है कि या तो दुर्ग के कुछ लोगों ने दुर्ग का द्वार खोल दिया अथवा उसमें उपस्थित समस्त सैनिकों ने वहां की तत्कालीन स्थिति पर विचार करते हुए एक साथ दुर्ग से निकल पड़े और वे मुसलमानों से संघर्ष करते हुए मारे गये। अमीर खुसरो ने इस युद्घ में हुई जनहानि का वर्णन करते हुए लिखा है कि सुल्तान के क्रोध के कारण तीस हजार हिंदुओं की हत्या कर दी गयी। इस स्थिति में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरा चित्तौड़ वीरों से खाली कर दिया गया होगा। हमें अपने इन बलिदानियों के बलिदान पर विचार करते हुए यह भी सोचना होगा कि इन तीस हजार (जिनके लिए खुसरो का कथन है कि उनमें अधिकांश सैनिक थे) ने तातार सेना का भी बड़ी संख्या में संहार किया होगा। वे सरलता से बलि का बकरा नही बने होंगे।
मुहम्मद हबीब का कथन है कि अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ विजय के उपरांत उसका नाम अपने पुत्र खित्र खां के नाम खिज्राबाद कर दिया था और उसे अपने पुत्र खिज्रखां को सौंपकर ही दिल्ली लौटा था। अलाउद्दीन खिलजी ने अपने पुत्र को लालदत्त काली व हरी पताका भी प्रदान की थी। इस सारी प्रक्रिया को पूर्ण करके सुल्तान 4 सितंबर को दिल्ली लौट गया।”

धीमे-धीमे जल रही नीचे नीचे आग।
फूट रही थी वीरता सुलग रहा मेवाड़।।

देख समय के फेर को रह जावे जो मौन।
वही रचे इतिहास को , कह पाएगा कौन ?

राणा रतन सिंह के बलिदान के पश्चात मेवाड़ शांत था, पर यह कोई नहीं जानता था कि मेवाड़ के भीतर कैसी हलचल हो रही थी? झूठे लोगों ने छूटा इतिहास लिख कर मेवाड़ की तत्कालीन शांति को शमशान का सन्नाटा सिद्ध करने का प्रयास किया है। परंतु हम उस सन्नाटे में भी नीचे दबी हुई आग को देखते हैं। जो केवल समय की प्रतीक्षा कर रही थी और जिसे थोड़ी सी हवा के साथ फिर चिंगारी बनकर बड़ी-बड़ी लपटों के साथ दूर-दूर तक फैल जाना था। अंगारों से बने उस दावानल में अलाउद्दीन खिलजी और उसके अत्याचारी अधिकारियों को जल मरना था।
हमारी दृष्टि में इतिहासकार वही है जो मौन में भी क्रांति के लक्ष्मण खोजता हो। जो देश की जनता की नब्ज पर हाथ रखकर लिखे और उसके भावों को भी अभिव्यक्ति देने का साहस रख सके।

चित्तौड़ का मौन और इतिहासकार

इतिहास मरता नहीं है, इतिहास जीवंत होता है, शाश्वत और सनातन होता है । इतिहास का काम भी जीवंतता को खोजते रहना है। इतिहास अत्याचारियों के अत्याचारों को समाप्त करने के लिए समाज में छा रही अकुलाहट, बेचैनी और क्रांति की भावना का प्रतिनिधि होता है। अतः हमारा मानना है कि इसे हर काल में इस प्रकार की अकुलाहट, बेचैनी और क्रांति की भावना का प्रतिनिधित्व करते रहना चाहिए।
कुछ इतिहासकारों ने अपनी लेखनी के साथ अन्याय करते हुए राणा रतन सिंह के पश्चात की चित्तौड़ में छा गए मौन को चित्तौड़ का मरना मान लिया है और हमें इस प्रकार दिखाने का प्रयास किया है कि जैसे राणा रतन सिंह के पश्चात सब कुछ शांत हो गया था । उनका मानना है कि इसके पश्चात अलाउद्दीन खिलजी अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से वहां पर निष्कंटक होकर शासन करने लगा था। लेखनी के साथ अन्याय करने वाले ऐसे लोगों ने मेवाड़ के उन लोगों के साथ भी अन्याय किया है जो उस समय शांत थे पर एक उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें नहीं पता कि मेवाड़ पर अलाउद्दीन खिलजी के अवैध शासन को वहां की जनता ने अपनी कभी भी स्वीकृति प्रदान नहीं की थी।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्र केवल नेता के नेतृत्व से नहीं बनता है बल्कि राष्ट्र का निर्माण नेतृत्व को बनाने वाली प्रजा से होता है। किसी भी परिस्थिति के अधीन होकर कभी-कभी राष्ट्र का नेतृत्व बाध्य हो जाता है, पर राष्ट्र की चेतना शक्ति अर्थात प्रजा जन के लिए आवश्यक नहीं है कि वह भी अपने नेतृत्व के निर्णय से सहमत या संतुष्ट हो। कई बार ऐसा भी होता है कि नेतृत्व के निर्णय से जनता तात्कालिक आधार पर सहमत हो जाती है पर वह स्थाई रूप से उस बाध्यता को अपने लिए मानना अनिवार्य नहीं मानती है। यहां तो स्थिति ही दूसरी थी। मेवाड़ का राणा किसी प्रकार से बाध्य नहीं था अपितु वह अपनी वीरता और अपने बलिदान के माध्यम से अपने प्रजाजनों को यह संदेश दे गया था कि शांत मत बैठना। मैं जा रहा हूं पर मेरी वीरता और मेरी देशभक्ति का संचार यथावत बना रहना चाहिए। मेवाड़ की जनता अपने राणा के संदेश को भली प्रकार जानती थी।
हमारे इस कथन की पुष्टि फरिश्ता के कथन से भी होती है। उसने कहा है कि “आसपास के हिंदुओं ने चित्तौड़ पर कई बार अधिकार करने का प्रयास किया था।”
फरिश्ता ने यह केवल काल्पनिक आधार पर नहीं लिख दिया था। उसने मेवाड़ की जनता की देशभक्ति को निकटता से देखा था और उसने यह समझ लिया था कि भारत देश के लोग बिना नेता के भी लड़ाई लड़ना जानते हैं। यह अपने वीर वीरांगनाओं के बलिदानों के साथ तारतम्य स्थापित कर उन्हें प्रतिवर्ष श्रद्धांजलि देते समय अपने लिए गए संकल्पों को दोहराते हैं और यह सौगंध उठाते हैं कि जब तक हम जीवित हैं तब तक आपके शौर्य और प्रताप को साक्षी मानकर कार्य करते रहेंगे। भारत एक ऐसा देश है जहां लोगों की जयंती भी मनाई जाती हैं और बलिदानियों के बलिदान दिवस भी मनाए जाते हैं। उत्सर्ग दिवस पर भी उत्सव मनाना भारत की ही परंपरा हो सकती है। यह परंपरा ऐसे ही नहीं है बल्कि यह प्रतिवर्ष कुछ नए संकल्प दिलाने के लिए आती है।
जनता अपने शासक के साथ थी, अर्थात राणा भीमसिंह के साथ। इसलिए वह बलात थोपे गये किसी भी शासक को अपना शासक मानने को तत्पर नही थी। इसी संघर्ष की गाथा ने देशभक्त जनता को गरम किये रखा और उसकी गरमी ने स्वतंत्रता की अलख जलाये रखी। स्वतंत्रता का यह संघर्ष आगे चलकर शीघ्र ही फलीभूत हुआ, जब चित्तौड़ को राणा भीमसिंह के पौत्र हमीर ने दिल्ली की सल्तनत से छीन लिया था।

हमारा पराक्रमी इतिहास

 हिंदू ने अपने पराक्रम और संगठन शक्ति के बल पर अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल तक किसी भी विदेशी मुस्लिम शासक को भारतवर्ष पर स्थायी रूप से देर तक शासन नहीं करने दिया था। यद्यपि यह क्रम आगे भी निरंतर जारी रहा पर जिस समय की बात हम कर रहे हैं उस समय तक अलाउद्दीन खिलजी ही पहला शासक था जिसने अब तक के इस्लामिक सुल्तानों या बादशाहों से अधिक बड़ा साम्राज्य स्थापित करने में कुछ देर तक सफलता प्राप्त की थी।

हमारे पराक्रमी इतिहास का यह है एक बहुत ही गौरवपूर्ण तथ्य है कि अलाउद्दीन खिलजी के समय तक हिंदू शक्तियां एक दूसरे का सहयोग करने के लिए जानी जाती थीं। अलाउद्दीन खिलजी के बारे में यह भी सत्य है कि वह भारतवर्ष में अपना राज्य विस्तार करता जा रहा था। कोई भी शक्ति उससे लोहा लेने से पूर्व दस बार सोचती थी। उसकी क्रूरता और निर्दयता से लोग भयभीत हो जाते थे। इसके उपरांत भी हिंदू संगठन शक्ति कहीं मिल कर तो कहीं मौन रहकर और कहीं पराजय के घाव झेलकर भी इस क्रूर बादशाह का प्रतिरोध करती रही। यद्यपि उस समय इस निर्दयी बादशाह का सामना करना छोटी बात नहीं थी।
चित्तौड़ के राणा भीमसिंह जिस समय अलाउद्दीन खिलजी से युद्घरत थे और खिलजी के चित्तौड़ दुर्ग का डेरा डाले हुए कई माह व्यतीत हो गये थे, तब राणा की सहायता करने कोई भी हिंदू नरेश नही आया था। इससे यह पता चलता है कि उस समय कई छोटे हिंदू नरेश अलाउद्दीन के अत्याचारों से भयभीत थे। कुंभलगढ़ शिलालेख से हमें ज्ञात होता है कि चित्तौड़ के गुहिल राजवंश (राणा परिवार) की छोटी शाखा से संबंधित सीसोदा गांव (इसी से शिशौदिया गोत्र प्रचलित हुआ है) का स्वामी राणा लक्ष्मण सिंह अपने परिवार वालों के साथ मातृभूमि की रक्षार्थ आ पहुंचा था। राणा लक्ष्मण सिंह ने चित्तौड़ को ऐसे समय में सहयोग किया जब उसके सहयोग की चित्तौड़ को अत्यंत आवश्यकता थी। उसकी वीरता और साहस ने उस समय चित्तौड़ को बहुत बड़ा संबल प्रदान किया था। राणा के भीतर देशभक्ति का लावा धधक रहा था। अलाउद्दीन खिलजी उसकी आंखों में खटक रहा था। राणा ने युद्घ में पर्याप्त शौर्य एवं साहस का परिचय दिया था, और स्वतंत्रता के अपहर्ताओं को बड़ी संख्या में परलोक पहुंचा दिया था।

तत्कालीन हिंदू शक्ति और राणा भीम सिंह

     राजस्थान की वीरभूमि ने जब जब देश को आवश्यकता अनुभव हुई है तब तब अपनी कोख से अनेक हीरे जन्म कर देश को प्रदान किए हैं। इस वीरभूमि ने जिन बलिदानी वीर रत्नों को जन्म देकर देश का सम्मान बढ़ाया है या देश के सम्मान की रक्षा की है उनमें जालौर के चौहान वंशी शासक कान्हड़देव नाम भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस वीर शासक को अपने समकालीन हिंदू शासकों का उस समय अपेक्षित सहयोग नहीं मिला था। 

हम ऊपर ही बता चुके हैं कि उस समय कुछ हिंदू शासक अलाउद्दीन खिलजी के से भयभीत थे। यदि यह लोग अपने भय को निकाल कर एक हो जाते तो निश्चय ही अलाउद्दीन खिलजी जैसे क्रूर बादशाह का भी अंत किया जा सकता था। इस परिस्थिति पर विचार करते हुए डा. के.एस. लाल ने अपनी पुस्तक “खिलजी वंश का इतिहास” में लिखा है:-”पराधीनता से घृणा करने वाले राजपूतों के पास शौर्य था, किंतु एकता की भावना नही थी। कुछेक ने प्रबल प्रतिरोध किया, किंतु उनमें से कोई भी अकेला दिल्ली के सुल्तान के सम्मुख नगण्य था। यदि दो या तीन राजपूत राजा भी सुल्तान के विरूद्घ एक हो जाते तो वे उसे पराजित करने में सफल हो जाते।”
जब भी संकोच या किसी भी प्रकार की निराशा, हताशा का भाव व्यक्ति के मन मस्तिष्क पर हावी हो जाता है तो उत्साह ठंडा पड़ जाता है। मन उस समय संकल्पों के स्थान पर विकल्पों को खोजने लगता है। इस स्थिति को किसी भी देश व समाज के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता। अत्याचारी अलाउद्दीन खिलजी ने कुछ सीमा तक भारतीय नरेशों के भीतर ऐसी मानसिकता को जन्म देने में सफलता प्राप्त की थी। यह अलग बात है कि उसकी मृत्यु के उपरांत भारत का ‘पुनरुज्जीवी पराक्रम’ फिर अपना रंग दिखाने लगा था और हिंदू उत्साह के साथ मुस्लिम शासन को समाप्त करने में लग गए थे।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

(हमारी यह लेख माला आप आर्य संदेश यूट्यूब चैनल और “जियो” पर शाम 8:00 बजे और सुबह 9:00 बजे प्रति दिन रविवार को छोड़कर सुन सकते हैं।)

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