स्वामी दयानन्द जी ने ईसाईमत की समीक्षा क्यों की?

उन्नीसवीं शताब्दी का प्रचलित हिन्दू धर्म, धर्म न रहकर उसका विद्रूप मात्र रह गया था। वेदों, उपनिषदों तथा वैदिक दर्शनों में प्रतिपादित अध्यात्म, दर्शन तथा नैतिकता के सूत्र विलुप्त प्रायः हो गये थे। वेदों तथा अन्य ऋषि कृत ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन समाप्त हो गया था। पठित हिन्दू अधिक से अधिक भगवद्गीता, तुलसीदास की रामचरित मानस तथा सत्यनारायण की कथा के वाचक तक स्वयं को सीमित किये हुए थे। उपनिषद प्रतिपादित उपासना तथा योगशास्त्र में विवेचित अष्टांग योग की साधना के स्थान पर मन्दिरों में स्थापित प्रतिमाओं की स्थूल उपकरणों से पूजा, राम, कृष्ण आदि आदर्श महापुरुषों के चरित्र एवं व्यक्तित्व से शिक्षा ग्रहण करने की अपेक्षा राम, कृष्ण, शिव आदि का नाम जप ही मुक्ति का कारण मान लिया गया। अध्यात्म चिन्तन तथा नैतिक उच्च मूल्यों को विस्मृत कर भारत का सामान्य हिन्दू बाह्याचारों तथा बाह्याडम्बरों में आकण्ठ लिप्त हो गया।
मध्यकालीन निर्गुणवादी सन्तों ने मूर्तिपूजा आदि के स्थूल कर्मकाण्डों से लोगों को हटाकर उन्हें निर्गुणोपासना का मार्ग तो दिखलाया, किन्तु कुछ समय बाद इन निर्गुण सम्प्रदायों में भी गुरु की गद्दी की पूजा तथा अपने मत प्रवर्तक की निजी वस्तुओं (खड़ाऊँ, वस्त्र, पलंग) की आरती उतारने आदि के रूप में जड़ोपासना प्रचलित हो गई। कबीर, नानक, दादू, रैदास आदि के सीधेसादे निराडम्बर उपदेशों को उनके अनुयायियों ने ही भुला दिया। इस स्थिति में पादरी वर्ग के लिए हिन्दू धर्म पर चारों ओर से आक्रमण करना सहज हो गया। धर्म के नाम पर फैले पाखण्डों, स्थूल बाह्याचारों तथा सन्तों-महन्तों के कतिपय अनैतिक आचरणों की आड़ में पादरियों ने हिन्दू धर्म पर चहुँमुखी आक्रमण कर दिया।
यही वह समय था जब बंगाल में धार्मिक नवजागरण का शंखनाद करनेवाले राज राममोहन राय ने ईसाई मान्यताओं के खोखलेपन को उजागर किया, किन्तु ईसा के नैतिक उपदेशों को हिन्दू नैतिकता से उत्कृष्ट बताकर पादरी वर्ग के प्रति अपने आक्रमण को खुद ही भोथरा बना दिया। ब्रह्मसमाज के द्वितीय नेता देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने निश्चय ही ईसाईयत से उचित दूरी रखी, किन्तु तृतीय नेता केशवचन्द्र सेन ने परोक्ष रूप में ईसाईयत को सिद्धान्त और व्यवहार में अंगीकार कर स्वयं तथा अपने अनुयायियों को भारत के बृहत्तर हिन्दू धर्म और समाज से विलग कर लिया। उस समय केशव के ईसाई बन जाने की चर्चा आम थी।
दयानन्द सरस्वती का ईसाईयत के प्रति दृष्टिकोण अपने समकालीन सुधारकों से भिन्न था। प्रथमतः वे यह मानते थे कि जहाँ तक धर्म, अध्यात्म, दर्शन, नीतिशास्त्र, सामाजिक विधि-विधान आदि का सम्बन्ध है, भारत के निवासियों की इन विषयों की आस्थाएँ तथा धारणाएँ सैमेटिक मजहबों [यहूदीमत, ईसाईयत और इस्लाम] के अनुयायियों के मत-विश्वास-आचरण से सर्वथा भिन्न तो है ही, श्रेष्ठ भी है। अतः हमारे देशवासियों को ईसाई प्रचारकों से कुछ सीखना नहीं है। भारत के पुरातन वैदिक धर्म में अध्यात्म, दर्शन तथा नीतिशास्त्र जिस उच्चता की पराकाष्टा तक पहुँच चुका था, उसकी तुलना में सैमेटिक मजहबों के पास सिवाय पैगम्बरों की कथा-कहानियों और मध्ययुगीन देशसापेक्ष आचार-विचार के अतिरिक्त किसी विशिष्ट दर्शनिक चिन्तन या अध्यात्म तत्व का अभाव ही था। इसी अभाव की पूर्ति के लिए इस्लाम के अंतर्गत सूफी तत्वों का जन्म हुआ। ग्रीस में जो दार्शनिक उत्पन्न हुए और अरस्तू, प्लेटो, सुकरात आदि ने मानव जीवन के सम्मुख प्रस्तुत प्रश्नों के जो उत्तर सुझाये वे तो सैमेटिक मतों के प्रादुर्भाव के पहले की घटनाएँ हैं।
भारत में आये पादरी वर्ग के लिए यहाँ का हिन्दू धर्म एक सॉफ्ट टार्गेट सिद्ध हो रहा था। वे यहाँ प्रचलित धार्मिक रूढिवाद, समाजिक विसमता, नारी शोषण, दलित वर्ग के प्रति क्रूर अत्याचार आदि बुराइयों के बहाने हिन्दू धर्म और समाज पर चहुँमुखी आक्रमण जारी रखे हुए थे। ऐसी परिस्थिति में स्वामी दयानन्द ने विदेशी पादरी वर्ग को चुनौती भरे स्वर में कहा – जो खुद कांच के महलों में निवास करते है उन्हें दूसरों के मकान पर प्रहार करने का क्या अधिकार है? भारत को धर्म और नैतिकता का उपदेश देनेवाले पादरी अपने गिरेबान में खुद झाँककर देखें कि उनकी धार्मिक मान्यताएँ कितनी हास्यास्पद है, उनका सामाजिक और पारिवारिक ढाँचा कितना खोखला, विषम तथा जर्जर है।
पादरी वर्ग की इस खतरनाक आक्रामक प्रवृत्ति को भाँपकर स्वामी दयानन्द ने उनका प्रबल प्रतिकार करने की ठानी। वे भारतीय आर्य धर्म, दर्शन और सामाजिक विधान की उत्कृष्टता को न केवल जानते थे, उसका प्रबल रूप से प्रतिपादन करने की क्षमता भी रखते थे। एतदर्थ उन्होंने व्याख्यान, प्रवचन, शास्त्रार्थ, ग्रन्थ लेखन, परस्पर संवाद आदि साधनों को अपना रखा था। अब जब उन्हें स्थानीय लोगों का धर्मान्तरण करने के लिए उधार खाये पादरियों से रूबरू होना पड़ा तो उनके लिए आवश्यक था कि वे ईसाईयत के मान्य ग्रन्थ बाइबल का अध्ययन करते तथा उस पर सवाल खड़े करने की पात्रता अर्जित करते। उस समय तक भारत की विभिन्न भाषाओं में बाईबल के अनेक अनुवाद हो चुके थे। स्वामी दयानन्द ने बाइबल के हिन्दी तथा संस्कृत भाषान्तरों को मनोयोग पूर्वक पढ़ा। इसी अध्ययन के आधार पर उन्होंने बाइबल की समीक्षा में ‘सत्यार्थप्रकाश’ का त्रयोदश समुल्लास लिखा।
(स्रोत: ‘स्वामी दयानन्द और भारत में ईसाईयत’, पृ.१५-१७, लेखक: डॉ. भवानीलाल भारतीय, प्रस्तुति: राजेश आर्य)

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