सिंह का बयान व मर्यादा का सवाल

विदेश राज्यमंत्री जनरल विजयकुमार सिंह ने पत्रकारों को´ ‘प्रेस्टीट्यूट’ कह दिया। इस शब्द पर पत्रकारों का तिलमिला जाना स्वाभाविक है। यूं तो ‘प्रेस्टीट्यूट’ का शाब्दिक अर्थ जरा भी आपत्तिजनक नहीं है,क्योंकि उसका अर्थ यही होगा- प्रेस नामक संस्था! लेकिन कई पत्रकार संगठनों ने जनरल सिंह की कड़ी भर्त्सना की है। क्यों की है? क्योंकि यह शब्द ‘प्रेस्टीट्यूट’ अंग्रेजी के ‘प्रॉस्टीट्यूट’ शब्द का रूपान्तर है।‘प्रॉस्टीट्यूट’ का अर्थ होता है –वेश्या यानी पत्रकारिता वेश्यावृत्ति है। इन दोनों शब्दों के ध्वनिसाम्य से अर्थसाम्य अपने आप बन जाता है।

इस शब्द को गढ़ने का श्रेय जनरल सिंह को नहीं दिया जा सकता। इसका प्रयोग अमेरिका और ब्रिटेन में पहले से हो रहा है। सिंह के मत्थे यह दोष जरूर मढ़ा जा सकता है कि वे इस शब्द का प्रयोग बार-बार करते हैं और भारत में उनके कारण ही इस शब्द से करोड़ों लोगों का परिचय हुआ है। यह घटना जनवरी 2012 की है। एक अंग्रेजी अखबार ने अपने मुखपृष्ठ इस खबर से रंग दिए थे कि भारत के सेनापति जनरल वीके सिंह सरकार का तख्तापलट कर देना चाहते थे। उन्होंने सरकार से नाराज होकर दिल्ली के आस-पास की छावनियों को दिल्ली कूच करने के आदेश दे दिए थे। जाहिर है कि यह खबर बिल्कुल निराधार थी, लेकिन किसी भी सेनापति के लिए ऐसी खबर प्राणलेवा हो सकती है। यह खबर उस मौके पर उड़ाई गई थी, जब सेनापति सिंह और सरकार के बीच उनकी जन्मतिथि को लेकर कटु विवाद चल रहा था और वह मामला उस दिन सर्वोच्च न्यायालय के सामने आने वाला था। उस मौके पर जारी इस खबर ने पूरे देश में काफी सुगबुगाहट फैला दी थी। 2013 में जब यह खबर दुबारा उछली तो मर्मान्तक पीड़ा से घायल वीके सिंह ने ऐसे पत्रकारों को ‘प्रेस्टीट्यूट’ कह दिया।

उनका यह शब्द-बाण किसी भी पत्रकार के सीने को चीरने के लिए काफी था, लेकिन देश के जिम्मेदार पत्रकारों ने यह भी सोचा कि यह कौन-सी पत्रकारिता है कि आप भारतीय सेना के अनुशासन की महान परम्परा पर एक ही झटके में स्याही उड़ेल दें? तब यह शक भी हुआ था कि सिर्फ सेनापति सिंह को बदनाम करने के लिए सरकार के इशारे पर यह नौटंकी रची गई थी? पता नहीं, उस खतरनाक और गैर-जिम्मेदाराना हरकत के पीछे मकसद क्या था, लेकिन इसमें शक नहीं कि वह वेश्यावृत्ति से भी अधिक घृणित कार्य था। हो सकता है कि उसके पीछे कुछ गलतफहमी हो। वह वास्तविक भूल भी हो सकती थी। वह जो भी रही हो, वीके सिंह की प्रतिक्रिया तीखी जरूर थी, लेकिन जब मर्ज़ संगीन हो तो दवा भी संगीन ही होती है। जो खबर आपने छापी, वह सिंह को देशद्रोही की संज्ञा देती है, लेकिन जो उन्होंने सीधे नहीं कहा और यदि वे उसे सीधा भी कह देते तो क्या गलत होता? आप ही तय कीजिए कि किसी को वेश्या कहना ज्यादा अपमानजनक है या देशद्रोही कहना? किसका अपराध अधिक संगीन होता? यों भी सिंह ने सभी पत्रकारों और पत्रकारिता के लिए इस ‘अपमानजनक’ शब्द का प्रयोग नहीं किया था।

अभी जनरल सिंह के घाव सूखे भी नहीं थे कि कुछ टीवी एंकरों और अखबारों ने उन पर फिर हमला बोल दिया। उन्होंने सोचा होगा कि सिंह राज्यमंत्री बन गए हैं। अब उनका कचूमर बनाना हमारे बाएं हाथ का खेल होगा। उन्होंने पाकिस्तानी राष्ट्रीय दिवस के दिन किए गए सिंह के ट्वीट को उछालने की भरपूर कोशिश की। उस दिन नई दिल्ली के पाकिस्तानी दूतावास में सिंह मुख्य अतिथि थे, जैसे कि किसी भी मंत्री को होना ही होता है। उन्होंने लिख दिया कि वे वहां जाकर ऊब रहे थे। जो भारत का सेनापति रहा हो, वह वहां जाकर ऊब महसूस करे, इसमें अचरज क्या है? वे इस ऊब को सार्वजनिक नहीं करते तो अच्छा रहता, लेकिन उन्होंने कर दिया तो कौन-सा आसमान टूट पड़ा? जिन पत्रकारों ने उस टिप्पणी के तिल को ताड़ बनाया, क्या उन्होंने भारत के राष्ट्रहित का संपादन किया ?

इसी प्रकार अब सिंह के बयान पर दुबारा हंगामा मच गया है। उन्होंने गृहयुद्ध में फंसे यमन में जाकर सैकड़ों भारतीयों की घर वापसी की है। उनके इस बहादुराना काम के संदर्भ में उन्होंने कह दिया कि पत्रकारों को मेरा यह काम खबर के लायक नहीं लगता, लेकिन मेरा पाकिस्तानी दूतावास जाना ज्यादा खबरीला लगा था। यह उन्होंने व्यंग्य किया था और यह व्यंग्य करते समय उन्होंने एकाध अखबार और पत्रकार का नाम भी लिया था, लेकिन फिर उन्होंने उसी ‘प्रेस्टीट्यूट’ शब्द का प्रयोग कर दिया।

उन्होंने सभी पत्रकारों और संपूर्ण पत्रकारिता के लिए ‘प्रेस्टीट्यूट’ नहीं कहा। जिस एक बड़बोले और आत्ममुग्ध एंकर और एक अंग्रेजी अखबार के लिए उन्होंने इस शब्द का प्रयोग किया है, वे सिंह पर मानहानि का मुकदमा चलाने के लिए bk singh 2स्वतंत्र हैं, लेकिन सिंह को यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि भारतीय पत्रकारिता में ऐसे-ऐसे लोग रहे हैं, जिनकी योग्यता राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से भी ज्यादा है और जिनका चरित्र व आचरण साधुओं और महात्माओं से भी अधिक पवित्र रहा है। किसी श्रेष्ठ पत्रकार का परिश्रम और त्याग किसी नेता या सेनापति से कम नहीं होता।

यदि कुछ पत्रकार, जिन्हें वे सेक्सवर्कर की तरह पत्रकारितावर्कर कहते हैं, यदि वे वाकई भ्रष्ट हैं, तो कृपया हमें बताएं कि क्या फौज़, न्यायपालिका, सरकार और संसद के सभी सदस्य दूध के धुले हुए हैं? पत्रकार उसी समाज के हिस्से हैं, जिसके आप हैं। जनरल सिंह का गुस्सा और खिसियाहट स्वाभाविक है, लेकिन वह मर्यादित रूप में प्रकट हो तो उसका ज्यादा असर होगा। सिंह नेताओं की तरह दब्बू नहीं हैं कि वे अहंकारी और बड़बोले एंकरों से दब जाएं, लेकिन वे अब मंत्री हैं और मंत्री के नाते अब वे वैसी ‘डंडागीरी’न करें, जैसी मार्कंडेय काटजू करते हैं। काटजू ने सिंह का समर्थन करते हुए ट्वीट कर दिया है कि ज्यादातर पत्रकार वैसे ही हैं, जैसा कि सिंह कहते हैं। यदि कोई पत्रकार जजों के बारे में यही कह दे तो काटजू को कैसा लगेगा?

पत्रकारिता में आजकल जो अतिरेक हो रहा है, उसे वेश्यावृत्ति कहना तर्कसंगत नहीं है। वेश्यावृत्ति का एक मात्र आधार पैसा है। पत्रकारिता के पतन में पैसे की भूमिका हो सकती है, लेकिन अतिरेक के जो किस्से आजकल सामने आ रहे हैं, उनमे अहंकार और मूर्खता की भूमिका कहीं ज्यादा है। अमेरिका में टीवी को‘मूरख बक्सा’(इडियट बॉक्स) यों ही नहीं कहा जाता है। पत्रकारिता के नाम पर चल रहे इस अहंकार और मूर्खता के नग्न नाच पर अंकुश लगाना बहुत जरूरी है। यदि इसे आप वेश्यावृत्ति कहेंगे तो इसे सत्पथ पर लाना असंभव हो जाएगा। इस एक अतिरेक का मुकाबला लोग दूसरे अतिरेक से करने लगेंगे। इसीलिए मर्यादा का पालन नेता और पत्रकार, दोनों को करना होगा।

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