विद्या” – ‘धर्म का आठवाँ लक्षण।’


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दयानन्द ने विद्या प्राप्त करने की प्रेरणा अनेक स्थलों पर दी है।
– अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
– विद्या का जो पढ़ना-पढ़ाना है यही सबसे उत्तम है।
– स्वाध्याय (पढ़ना) और प्रवचन (पढ़ाना) का त्याग कभी नहीं करना चाहिए।
– विद्यादि शुभ गुणों को प्राप्त करने के प्रयत्न में अत्यंत पुरुषार्थ की इच्छा ही मन का संकल्प है।
– संतानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म और स्वभाव-रूप आभूषणों का धारण कराना माता, पिता, आचार्य और संबंधियों का मुख्य कर्म है। सोने, चांदी, माणिक, मोती, मूंगा आदि रत्नों से युक्त आभूषणों के धारण कराने से मनुष्य का आत्मा सुभूषित कभी भी नहीं हो सकता, क्योंकि आभूषणों के धारण करने से केवल देहाभिमान, विषयासक्ति और चोर आदि का भय तथा मृत्यु भी संभव है।
– अन्य सब कोष व्यय करने से घट जाते हैं, और दायभागी भी निजभाग लेते हैं। विद्या-कोष का चोर वा दायभागी कोई नहीं हो सकता।
– जब मनुष्य लोग सत्य विद्या को पढ़ेंगे, तभी सदा सुख में रहेंगे। क्योंकि, सभी गुणों में विद्या ही उत्तम गुण है।
– धर्म का रक्षक विद्या ही है, क्योंकि विद्या से ही धर्म और अधर्म का बोध होता है। उनसे सब मनुष्यों को हिताहित का बोध होता है।
दयानन्द लिखते हैं कि स्वाध्याय और प्रवचन का उपदेश इसलिए किया जाता है कि इनसे ही पूर्वोक्त धर्म के लक्षणों की प्राप्ति होती है। विद्या के बिना किसी भी वस्तु का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता; विद्या से ही उसके स्वरूप को स्पष्ट करके उसे हम ग्रहण अथवा न ग्रहण करने का निश्चय करते हैं।
दयानन्द ने विद्या के ही प्रसंग में इस बात को भी बारंबार कहा है कि कोरा ज्ञान ही विद्या नहीं है। वस्तुओं के स्वरूप को ठीक-ठीक जान लेना ही विद्या नहीं है, वरन् विद्या का जीवन में उपयोग भी हो। वे कहते हैं कि विद्या का यही फल है कि जो मनुष्य को धार्मिक होना आवश्यक है। जिसने विद्या के प्रकाश से अच्छा जानकर न किया और बुरा मान कर न छोड़ा तो क्या वह चोर के समान नहीं है ?
यहां इस बात का उल्लेख करना अनिवार्य है कि यद्यपि ‘विद्या’ धर्म का एक लक्षण है, किंतु फिर भी जो मनुष्य विद्या पढ़ने की सामर्थ्य नहीं रखते, वे यदि धर्माचरण करना चाहें तो विद्वानों के संग और अपनी आत्मा की पवित्रता एवं अविरुद्धता से धर्मात्मा अवश्य हो सकते हैं। यह सत्य है कि सब मनुष्यों का विद्वान होना संभव नहीं है, किंतु धार्मिक होना सभी के लिए संभव है। जो मनुष्य विद्या कम भी जानता हो, परंतु दुष्ट व्यवहारों को छोड़कर, धार्मिक होके खाने, पीने, बोलने, सुनने, बैठने, लेने, देने आदि व्यवहार सत्य से युक्त यथायोग्य करता है, वह कहीं भी कभी दुख को प्राप्त नहीं होगा। जो संपूर्ण विद्या पढ़के उत्तम व्यवहारों को छोड़के दुष्ट कर्मों को करता है, वह कभी सुख को प्राप्त नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में विद्या को धर्म के लक्षणों में स्थान देने का कारण है सभी को विद्या प्राप्त करने की प्रेरणा देना।
वस्तुतः दयानन्द उस व्यक्ति को विद्वान मानते ही नहीं हैं, जो कि अधर्मयुक्त आचरण करे। विद्या शेष सभी धर्म के लक्षणों को जीवन में धारणकर सुखी रहना सिखाती है। यदि कोई व्यक्ति पढ़कर भी सुखी नहीं रह पाता, आधुनिक शब्दावली में वह तनावमुक्त नहीं हो पाता तो वह विद्वान कहलाने का अधिकारी नहीं है। केवल दो तरह के लोग सुखी और तनावमुक्त होते हैं – बिल्कुल ही मूर्ख, और जो अपने से ऊपर उठ जाते हैं – वह अपने मस्तिष्क का अतिक्रमण कर ज्ञानावस्था (विद्या) को प्राप्त कर लेते हैं। अन्य लोग अनेक प्रकार के तनावों और दुःखों में ही जीते हैं।
मूर्ख की तनाव-मुक्ति और विद्वान की तनाव-मुक्ति में महान अंतर है। मूर्ख की तनाव मुक्ति जड़तावश है जबकि विद्वान की तनाव-मुक्ति उसके चैतन्य को प्रकट करती है। अतः व्यक्ति को विद्या प्राप्त कर तनाव-मुक्त रहने का प्रयत्न करना चाहिए।
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स्रोत – धर्म का स्वरूप।
लेखक – प्रशान्त वेदालंकार।
प्रस्तुति – आर्य रमेश चन्द्र बावा।

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