बिखरे मोती : प्रभु मिलन की चाह है तो……

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दुर्गुण – दुरित का शमन,
किया करो हर रोज।
जग की सेवा प्रति हरी से,
करो स्वयं की खोज॥1686॥

भावार्थ:- जिस प्रकार दो कुंओं का स्वच्छ जल आपस में मिलकर एकाकार हो जाता है, ठीक इसी प्रकार जब भक्तों की आत्मा में परमात्मा के ईश्वरीय गुण आत्मसाता होते हैं तो उसकी आत्मा तदाकार हो जाती है। इसके लिए आवश्यक है कि भक्ति से पहले जीवन में धर्म उतरना चाहिए क्योंकि धर्म ही परमात्मा का स्वरुप है। अतः साधक को चाहिए कि वह सूक्ष्मता से अपने आचरण में पवित्रता लाए, अपने अन्तःकरण को पवित्र बनाए, ब्रह्म – भाव में जीवन जीए तथा दुर्गुण (चोरी करना, झूठ बोलना, असंगत प्रालप करना, चुगली करना, छल-कपट और बेईमानी करना,अन्याय करना,हिंसा और व्यभिचार करना, किसी के हक को छीनना इत्यादि) दुरित से अभिप्राय है – काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, राग और द्वेष, मत्सर, अहंकार इत्यादि। उपरोक्त दुर्गुण और दुरितों का शोधन इस प्रकार करें जैसे – भुना हुआ चना अथवा उबला हुआ अनाज का दाना अपनी अंकुरण शक्ति खो देता है, ठीक इसी प्रकार दुर्गुण और दुरित अन्तः करण से समूल नष्ट होने चाहिए। ऐसे अन्तः करण मे ही प्रभु का वास होता है। उपरोक्त साधना के साथ-साथ साधक को संसार की भलाई की भलाई में और भगवान की भक्ति में जीवन व्यतीत करना चाहिए तथा स्वयं की खोज करनी चाहिए यानी कि मैं देह नहीं अपितु आत्मा हूं। मैं ब्रह्मलोक से पृथ्वी पर कर्म-कीड़ा करने आया हूं। इसलिए मुझे ऐसे कर्म करने चाहिए जिनसे मैं पुनः ब्रह्मलोक का वासी बनू क्योंकि मेरा गन्तव्य वही ब्रह्मलोक है जहां से मैं पृथ्वी पर आया हूं। ऐसा ब्रह्मभाव ही साधक को परमपिता परमात्मा से मिलाता है, मोक्ष – धाम पहुंचाता है।
क्रमशः

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