नए त्रिभाषा सूत्र की जरुरत
संस्कृत और जर्मन को आपस में लड़ाने की कोई जरुरत मुझे दिखाई नहीं पड़ती। क्यों तो हमारा प्रधानमंत्री जर्मन चांसलर को झूठा दिलासा दे और क्यों हमारी मानव संसाधन मंत्री (शिक्षा मंत्री का भौंडा नामकरण) सफाई देती फिरे? जर्मन सरकार को चिंता है कि यदि भारत का शिक्षा मंत्रालय संस्कृत पढ़ाने पर अड़ गया तो जर्मन की पढ़ाई बेकार हो जाएगी। जर्मन भाषा पढ़ाने और बढ़ाने के लिए जर्मनी की सरकार करोड़ों रु. खर्च कर रही है और उसने केंद्रीय विद्यालय संगठन से इस संबंध में एक समझौता कर रखा है। इस समझौते को त्रिभाषा सूत्र के प्रतिकूल बताते हुए अब जर्मन भाषा की पढ़ाई पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिया गया है।
हमारे बच्चों को जर्मन ही क्यों, संस्कृत, फ्रेंच, चीनी, रुसी, हिस्पानी, जापानी, अरबी, फारसी, यूनानी, लातीनी आदि भाषाएं भी क्यों नहीं पढ़ाई जाएं? पड़ौसी देशों की भाषाएं सीखने का भी विकल्प खुला रखा जाए। उन पर सिर्फ अंग्रेजी को लादा न जाए। उन पर एम.ए. तक याने 16 साल तक अंग्रेजी लादने की बजाय यदि सिर्फ दो साल तक कोई भी विदेशी भाषा पढ़ाई जाए तो वे आसानी से उसे सीख जाएंगे। यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूं।
यह बात हमारे पुराने बड़े नेताओं के दिमाग में तब आई ही नहीं, जब वे त्रिभाषा सूत्र बना रहे थे। उनमें से ज्यादातर अंग्रेजी के अलावा कोई भी विदेशी भाषा नहीं जानते थे। उन दिनों ब्रिटेन ही उनका संसार था। अब हमारे बच्चों की दुनिया बहुत बड़ी हो गई है। इसीलिए अब त्रिभाषा-सूत्र को बदलने की सख्त जरुरत है। यह सूत्र इस तरह होना चाहिए।
मातृभाषा, राष्ट्रभाषा और प्राचीन एवं विदेशी भाषाएं! पहले पांच साल मातृभाषा, दूसरे पांच साल मातृभाषा और राष्ट्रभाषा और तीसरे पांच-छह साल एक या कई विदेशी भाषाएं और प्राचीन भारतीय भाषाएं पढ़ने का विकल्प होना चाहिए। कोई भी विदेशी भाषा अनिवार्य नहीं होना चाहिए। सारी पढ़ाई का एम.ए. तक का माध्यम मातृभाषा या राष्ट्रभाषा होना चाहिए। अंग्रेजी माध्यम से कोई भी विषय पढ़ाने पर प्रतिबंध होना चाहिए। अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई भी स्वभाषा के माध्यम से होनी चाहिए। इस नए त्रिभाषा सूत्र पर और भी कई सुझाव आएं और इसे सर्वसम्मति से लागू किया जाए तो देश की शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकता है।