पूर्णतया प्रकृति के अनुकूल है बसंत पंचमी का त्यौहार
उगता भारत ब्यूरो
बसंत पंचमी हर वर्ष हिन्दू पंचांग के अनुसार माघ महीने में शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को बड़े उल्लास से मनाया जाता है. इसे माघ पंचमी भी कहते हैं. बसंत ऋतु में पेड़ों में नई-नई कोंपलें निकलनी शुरू हो जाती हैं. नाना प्रकार के मनमोहक फूलों से धरती प्राकृतिक रूप से सज जाती है. खेतों में सरसों के पीले फूल की चादर की बिछी होती है और कोयल की कूक से दसों दिशाएं गुंजायमान रहती है. बसंत पंचमी का त्योहार 9 फरवरी 2019 को पूरी श्रद्धा के साथ मनाया जा रहा है.
सम्पूर्ण भारत में इस तिथि को विद्या और बुद्धि की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है. पुराणों में वर्णित एक कथा के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने देवी सरस्वती से खुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि बसंत पंचमी के दिन तुम्हारी आराधना की जाएगी. पारंपरिक रूप से यह त्योहार बच्चे की शिक्षा के लिए काफी शुभ माना गया है. इसलिए देश के अनेक भागों में इस दिन बच्चों की पढाई-लिखाई का श्रीगणेश किया जाता है. बच्चे को प्रथमाक्षर यानी पहला शब्द लिखना और पढ़ना सिखाया जाता है. आन्ध्र प्रदेश में इसे विद्यारम्भ पर्व कहते हैं. यहां के बासर सरस्वती मंदिर में विशेष अनुष्ठान किये जाते हैं.
बसंत पंचमी के दिन नवयौवनाएं और स्त्रियां पीले रंग के परिधान पहनती हैं. गांवों-कस्बों में पुरुष पीला पाग (पगड़ी) पहनते है. हिन्दू परंपरा में पीले रंग को बहुत शुभ माना जाता है. यह समृद्धि, ऊर्जा और सौम्य उष्मा का प्रतीक भी है. इस रंग को बसंती रंग भी कहा जाता है. भारत में विवाह, मुंडन आदि के निमंत्रण पत्रों और पूजा के कपड़े को पीले रंग से रंगा जाता है.
हिंदू धर्म में मां सरस्वती को विद्या और बुद्धि की देवी माना गया है। वे छात्र जो पढ़ाई लिखाई में कमजोर हैं अगर बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा करें तो उन पर विशेष कृपा होती है। छात्र इस दिन अपनी किताब-कॉपी और कलम की भी पूजा करते हैं।
इस दिन कई लोग अपने शिशुओं को पहला अक्षार लिखना सिखाते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इस दिन को लिखने पढ़ने का सबसे उत्तम दिन माना जाता है। बसंत पंचमी के दिन शुभ मुहूर्त में पूजा करना अनिवार्य है। इस दौरान सरस्वती स्तोत्रम का पाठ किया जाता है।
बसंत पंचमी का शुभ मुहूर्त
बसंत पंचमी पूजा मुहूर्त: सुबह 6.40 बजे से दोपहर 12.12 बजे तक
पंचमी तिथि प्रारंभ: मघ शुक्ल पंचमी शनिवार 9 फरवरी की दोपहर 12.25 बजे से शुरू
पंचमी तिथि समाप्त: रविवार 10 फरवरी को दोपहर 2.08 बजे तक
बसंत पंचमी के दिन पीले रंग का खास महत्व है। दरअसल, वसंत ऋतु में सरसों की फसल की वजह से धरती पीली नजर आती है। इसे ध्यान में रखकर इस दिन लोग पीले रंग के कपड़े पहनकर बसंत पंचमी का स्वागत करते हैं। इस दिन सूर्य उत्तरायण होता है, जो यह संदेश देता है कि हमें सूर्य की तरह गंभीर और प्रखर बनना चाहिए। बसंत पंचमी के दिन सिर्फ कपड़े ही नहीं बल्कि खाने में भी पीले रंग की चीजें बनायी जाती हैं।
होली, जो भारत का एक सबसे बड़ा पर्व है, इसकी औपचारिक शुरुआत बसंत पंचमी के दिन से ही हो जाती है. इस दिन लोग एक-दूसरे को गुलाल-अबीर लगाते हैं. होली के होलिका दहन के लिए इस दिन से ही लोग लकड़ी को सार्वजनिक स्थान पर रखना शुरू कर देते हैं, जो होली के एक दिन पहले एक मुहूर्त देख कर जलाई जाती है.भारत में अनेक स्थानों पर इस दिन पतंगबाज़ी भी की जाती है, हालांकि का वसंत से कोई सीधा संबंध नहीं है. चूंकि मौसम साफ़ होता है, मंद-मंद हवा चल रही होती है और लोग खुश होते हैं, तो इसका इजहार शायद पतंगबाजी से करते हैं.
खान-पान बिना कोई भी भारतीय त्यौहार अधूरा है. बसंत पंचमी के दिन कुछ खास मिठाइयां और पकवान बनाये जाते हैं. इस दिन बंगाल में बूंदी के लड्डू और मीठा भात चढ़ाया जाता है. बिहार में मालपुआ, खीर और बूंदिया (बूंदी) और पंजाब में मक्के की रोटी के साथ सरसों साग और मीठा चावल चढाया जाता है.
वसंत पर महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की अमर रचना
(गीत)
आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी–
छवि-विभावरी;
सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी-
छबि-विभावरी;
बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग,
तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग,
पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग,
शीतल-मुख मेरे तट की निस्तल निझरी–
छबि-विभावरी;
निर्जन ज्योत्स्नाचुम्बित वन सघन,
सहज समीरण, कली निरावरण
आलिंगन दे उभार दे मन,
तिरे नृत्य करती मेरी छोटी सी तरी–
छबि-विभावरी;
आई है फिर मेरी ’बेला’ की वह बेला
’जुही की कली’ की प्रियतम से परिणय-हेला,
तुमसे मेरी निर्जन बातें–सुमिलन मेला,
कितने भावों से हर जब हो मन पर विहरी–
छबि-विभावरी;
उर्दू शायरों ने भी वसंत पर खूब कलम चलाई है- मुनीर शिकोहाबादी की ये ग़ज़ल वसंत की मस्ती को एक अलग ही अंदाज़ में पेश करती है
करता है बाग़-ए-दहर में नैरंगियाँ बसंत
आया है लाख रंग से ऐ बाग़बाँ बसंत
हम-रंग की है दून निकल अशरफ़ी के साथ
पाता है आ के रंग-ए-तलाई यहाँ बसंत
जोबन पर इन दिनों है बहार-ए-नशात-ए-बाग़
लेता है फूल भर के यहाँ झोलियाँ बसंत
मूबाफ़ ज़र्द रंग है सुम्बुल की चोट में
खोता है बू-ए-गुल की परेशानियाँ बसंत
नव्वाब-ए-नाम-दार ‘ज़फ़र-जंग’ के हुज़ूर
गाती है आ के ज़ोहरा-ए-गर्दूं-मकाँ बसंत
जाम-ए-अक़ीक़ ज़र्द है नर्गिस के हाथ में
तक़्सीम कर रहा है मय-ए-अर्ग़वाँ बसंत
होते हैं ताइरान-ए-चमन नर्गिसी कबाब
कह दो कि इस क़दर न करे गर्मियाँ बसंत
चेहरे तमाम ज़र्द हैं दौलत के रंग से
कोठी में हो गया है सरापा अयाँ बसंत
नीला हुआ है मुँह गुल-ए-सौसन का बाग़ में
लेता है इख़्तिलात में क्या चुटकियाँ बसंत
कड़वे धरे हुए हैं जो नव्वाब के हुज़ूर
बाहर है अपने जामे से ऐ बाग़बाँ बसंत
पुखराज के गिलासों में है लाला-गूँ शराब
सोने का पानी पी के है रतब-उल-लिसाँ बसंत
सरसों जो फूली दीदा-ए-जाम-ए-शराब में
बिंत-उल-अनब से करने लगा शोख़ियाँ बसंत
ज़ेर-ए-क़दम है फ़र्श-ए-बसंती हुज़ूर के
मसरूफ़ पा-ए-बोस में है हर ज़माँ बसंत
मैं गर्द-पोश हो के बना शाख़-ए-ज़ाफ़राँ
लिपटा हुआ है मेरे बदन से यहाँ बसंत
करता हूँ अब तमाम दुआ पर ये चंद शेर
आया पसंद मजमा-ए-अहल-ए-ज़माँ बसंत
जब तक कि महव-ए-क़हक़हा हूँ गुल हज़ार में
रंगीन तार है सिफ़त-ए-ज़ाफ़राँ बसंत
यारब हज़ार साल सलामत रहें हुज़ूर
हो रोज़ जश्न-ए-ईद यहाँ जावेदाँ बसंत
अहबाब सुर्ख़-रू रहें दुश्मन हों ज़र्द-रू
जब तक मनाएँ मर्दुम-ए-हिन्दोस्ताँ बसंत
ज़र्दी की तरह बैज़ा-ए-बुलबुल में छुप रहे
इस बाग़ से न जाए मियान-ए-ख़िज़ाँ बसंत
तक़दीर में थी फ़ुर्क़त-ए-यारान-ए-लखनऊ
इस शहर में ‘मुनीर’ कहाँ था कहाँ बसंत
नसीर काज़मी की ये रचना वसंत की मस्ती के आलम को कुछ यूँ बयाँ करती है
कुंज कुंज नग़्मा-ज़न बसंत आ गई
अब सजेगी अंजुमन बसंत आ गई
उड़ रहे हैं शहर में पतंग रंग रंग
जगमगा उठा गगन बसंत आ गई
मोहने लुभाने वाले प्यारे प्यारे लोग
देखना चमन चमन बसंत आ गई
सब्ज़ खेतियों पे फिर निखार आ गया
ले के ज़र्द पैरहन बसंत आ गई
पिछले साल के मलाल दिल से मिट गए
ले के फिर नई चुभन बसंत आ गई
वसंत पर बहुत कम फिल्मी गीत रचे गए है लेकिन जो भी लिखे गए हैं वो आज भी वसंत का रोमांच पैदा करते हैं
फिल्म – बसंत बहार (1956) गायक गीतकार संगीतकार – पं. भीमसेन जोशी/ मन्ना डे, शैलेंद्र, शंकर जयकिशन
केतकी गुलाब जूही चंपक वन फूले -2
ऋतु बसन्त अपनो कन्त, गोदी गरवा लगाय
झुलना में बैठ आज पी के संग झूले
केतकी गुलाब जूही चंपक वन फूले
गल-गल कूंज-कूंज, गुन-गुन भंवरों की गूंज
राग-रंग अंग-अंग छेड़त रसिया अनंग
कूयल की पंचम सुन दुनिया दुख भूले, भूले, भूले
केतकी गुलाब जूही चंपक वन फूले – 2
केतकी गुलाब जूही चंपक वन फूले —
रितु बसन्त अपनो कन्त, गोदी गरवा लगाय
झुलना में बैठ आज पी के संग झूले
पी के संग झूले
केतकी गुलाब जूही चंपक वन फूले
मधुर-मधुर थोरी-थोरी, मीठी बतियों से गोरी
मधुर-मधुर थोरी-थोरी
मधुर-मधुर थोरी-थोरी, मीठी बतियों से गोरी
चित चुराए हंसत जाय -2
चोरी कर सिर झुकाए
शिश झुकाये चंचल लट
गालन को छू ले – 2
केतकी गुलाब जूही चंपक वन फूले – 2
केतकी गुलाब जूही …केतकी गुलाब जूही…केतकी गुलाब जूही
केतकी…केतकी
ओ बसंती पवन पागल- फिल्म – जिस देश में गंगा बहती है (1960)
गायक गीतकार संगीतकार – लता मंगेशकर, शैलेंद्र, शंकर जयकिशन
ओ बसंती पवन पागल, ना जा रे ना जा, रोको कोई
ओ बसंती…
बन के पत्थर हम पड़े थे, सूनी सूनी राह में
जी उठे हम जब से तेरी, बांह आई बांह में
बह उठे नैनों के काजल, ना जा रे ना जा, रोको कोई
ओ बसंती…
याद कर तूने कहा था, प्यार से संसार है
हम जो हारे दिल की बाजी, ये तेरी ही हार है
सुन ये क्या कहती है पायल, ना जा रे ना जा, रोको कोई
ओ बसंती…
(साभार)