बदलाव की राह पर बांग्लादेश

bangladeshआरफ़ा ख़ानम शेरवानी

हाल में हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बांग्लादेश दौरे को कई मायनों में ऐतिहासिक बताया गया। जिस तरह भारत और बांग्लादेश ने मिल कर राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई वह अनूठी शासनकला का नमूना है। हालांकि इस सीमा समझौते की रूपरेखा यूपीए सरकार के समय तैयार की गई थी, पर 2011 में ममता बनर्जी के विरोध के चलते यह समझौता होते-होते रह गया था। राजग सरकार ने यूपीए के समय तैयार मसविदे को हूबहू अपनाया। पर ममता बनर्जी को उन्हीं शर्तों पर इस समझौते के लिए राजी कर लेना और खासकर भाजपा की असम इकाई के विरोधों को दरकिनार करना आसान काम नहीं था।

प्रधानमंत्री के इस दौरे के समय नई बस सेवाओं की शुरुआत से ढाका के रास्ते भारत के तीन पूर्वोत्तर राज्यों को पश्चिम बंगाल से जोडऩा कम ऐतिहासिक नहीं कहा जा सकता। कोलकाता-ढाका-अगरतला और ढाका-शिलांग-गुवाहाटी बस सेवाओं से असम, मेघालय और त्रिपुरा राज्यों को पश्चिम बंगाल से फिर से जोड़ा जा सकेगा, जो बंटवारे के समय बांग्लादेश के मध्य में आने से कट गए थे। इन सभी राज्यों की सीमाएं भारत के इस पूर्वी पड़ोसी से मिली हुई हैं। इस बस सेवा के फायदे का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि कोलकाता-ढाका-अगरतला सेवा इस्तेमाल करने पर पश्चिम बंगाल और तीन ओर से बांग्लादेश की सीमा से घिरे त्रिपुरा के बीच 560 किलोमीटर का रास्ता घट जाएगा। शुरुआत लोगों के आवागमन से होगी और जल्द ही इस राह से कारोबार भी शुरू होगा। प्रधानमंत्री मोदी के इन कदमों से एक समय में भारतीय भू-भाग का हिस्सा रहे बांग्लादेश और सांस्कृतिक रूप से भारत के सबसे नजदीक बांग्लादेशियों के दिल में भारत के लिए भरोसे की जमीन बनेगी। भाषाई संघर्ष को परचम बना कर अपनी पहचान बनाने वाले इस देश में धीरे-धीरे एक खामोश क्रांति का सूरज निकल रहा है। आज बांग्लादेश साफतौर पर दो हिस्सों में बंटा दिख रहा है- एक तरफ वे बांग्लादेशी हैं, जिनके लिए बंगाली अस्मिता का दर्जा सबसे ऊपर है और दूसरी तरफ वे लोग, जो दुनिया को एक धार्मिक सूत्र में बांधना चाहते हैं। वे विचार जिनमें सिर्फ धर्म के नाम पर लामबंदी हो और राष्ट्रीय सीमाएं धुंधली हो जाएं। आजादी के चार दशक से ज्यादा गुजर जाने के बाद, आज फिर उसी संघर्ष का प्रतिबिंब दिख रहा है कि आखिर बांग्लादेश नाम का विचार क्या है। आज का बांग्लादेश कैसा है, अब तक क्या बन पाया है और क्या बनना चाहता है, यह जानने के लिए जरूरी है कि देखा जाए कि कैसी राजनीतिक प्रक्रियाएं, सामाजिक तस्वीरें और विचारों के नक्शे बन रहे हैं।

1947 में धर्म के आधार पर भारत के बंटवारे के समय पूर्वी बंगाल के लोगों ने पाकिस्तान के विचार और स्थापना का समर्थन किया था। मगर उसके बाद के सालों में बंगाली नागरिकों और पश्चिमी पाकिस्तान में मतभेद शुरू हो गए। मतभेद की सबसे बड़ी वजह थी उर्दू भाषा को तरजीह और बंगाली भाषा को उसका सही स्थान न मिलना। 1948 में उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिलने के बाद बांग्लाभाषी लोगों में इसे लेकर गुस्सा बढ़ गया था। ढाका में छात्रों के एक बड़े समूह ने बांग्ला को बराबरी का दर्जा दिए जाने की मांग करते हुए विरोध-प्रदर्शन किया। पुलिस ने निहत्थे छात्रों पर गोलियां चलाईं और न जाने कितने युवाओं को मौत की नींद सुला दिया। बांग्ला भाषा का यह आंदोलन अब हिंसक हो चुका था। यह पहला मौका था जब भाषाई पहचान को लेकर अलग देश की मांग के बीज बो दिए गए थे। भाषाई आंदोलन ने बंगाली राष्ट्रीय अस्मिता को जन्म दिया और फिर शुरू हुई अलग राष्ट्र बनाने की मांग। आंदोलन में आखिरी चिनगारी का काम किया 1970 के चुनाव ने। नतीजे विपरीत आने पर जुल्फिकार अली भुट्टो ने चुनाव परिणाम को ही मानने से इनकार कर दिया। 7 मार्च, 1971 को ढाका में एक विशाल रैली का आयोजन किया गया और स्वतंत्रता संघर्ष का बिगुल बजा दिया गया। उन्होंने एलान किया कि पूर्वी पाकिस्तान अब बांग्लादेश के नाम से स्वतंत्र देश होगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एलान किया कि बांग्लादेश की लड़ाई अब भारत की लड़ाई है। 16 दिसंबर, 1971 को एक नए देश ने जन्म लिया- बांग्लादेश। बांग्लादेशी मुक्ति के बाद के सालों में सबसे बड़ी मुश्किल रही कि लोकतांत्रिक देश का ढांचा कैसे तैयार किया जाए। अपनी पहचान और अधिकारों का परचम बुलंद कर तैयार हुआ एक देश कैसे सुनिश्चित करे कि यह धरातल सबके लिए एक जैसा हो। चुनी हुई सरकार हो, सबको बराबर अधिकार हों। शायद वह संघर्ष अब भी बरकरार है। कहने को बांग्लादेश एक लोकतंत्र है, हर पांच साल पर चुनाव होते हैं। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वहां की चुनाव प्रक्रिया पूरी तरह से स्वच्छ और स्वस्थ है। खासकर पिछले साल के चुनाव में मुख्य विपक्षी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के भाग न लेने से मौजूदा शेख हसीना सरकार की साख और विश्वसनीयता दोनों पर सवाल हैं। इस इकतरफा चुनाव नतीजों को मान्यता तो मिली, लेकिन कहना मुश्किल है कि वह पूरे देश की जनता का प्रतिनिधित्व कर पा रही है।

सवाल यह भी है कि पिछले चौवालीस सालों में कुछ छोटे राजनीतिक दलों को छोड़ दें तो, पूरा राजनीतिक नेतृत्व उन दो परिवारों तक क्यों सिमट गया है, जो मुक्ति आंदोलन के बड़े नेता रहे। क्या बांग्लादेश 1971 से आगे नहीं बढ़ पाया है? एक अच्छे लोकतंत्र का अर्थ तय अंतराल पर चुनाव करा लेना भर नहीं है। बल्कि अहम यह भी है कि लोकतंत्र को मजबूत करने वाले खंभे बनाए जाएं। मजबूत लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण हो और राजनीतिक असहमति को भी जगह मिले। पिछले कुछ सालों में ऐसा लगता है कि कट्टरपंथी ताकतों ने बांग्लादेश के सोशल स्पेस के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तो ये ताकतें हावी हैं ही, इनके समर्थकों में विचारकों की भी एक जमात तैयार हो गई है। कुछ समय पहले बांग्लादेशी मूल के अमेरिकी लेखक और ब्लॉगर अभिजीत राय की हत्या ने पूरी दुनिया का ध्यान बांग्लादेश में पल रही असहनशीलता की तरफ दिलाया। अभिजीत पर इस्लाम के खिलाफ जुर्म का आरोप लगाया गया, जिसमें ढाका यूनिवर्सिटी परिसर के बाहर सरेआम उनकी हत्या कर दी गई। अभिजीत के साथ दो और ब्लॉगरों को मौत के घाट उतार दिया गया।

ब्लॉगरों और पत्रकारों के बीच दहशत का आलम यह है कि वे अपनी नौकरियां छोड़ रहे हैं और घरों में कैद होने पर मजबूर हैं। पहली नजर में लगता है कि यह मामला धार्मिक उन्माद का है और हिंदू अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है। लेकिन मारे जाने वाले लोगों में ‘अति-उदार’ माने जाने वाले मुसलमान भी शामिल हैं। यानी मामला धार्मिक से ज्यादा वैचारिक अंतर का है। धर्म से कहीं बढ़ कर यह संघर्ष विचारों का है। गौर से देखें तो पिछले एक दशक के दौरान वहाबी इस्लाम ने बांग्लादेश में अपनी पैठ बनाई है। यह संक्रमण न सिर्फ पड़ोसी देश पाकिस्तान से हुआ लगता है, बल्कि सीधे सऊदी अरब से आयातित है। यह समझना भी भूल होगी कि यह काम कुछ ‘भटके हुए’ युवाओं का है। धर्मांधता का कारोबार करने वाले ये लोग दरअसल, मुख्य व्यापारों पर कब्जे से लेकर राजनीति तक में सक्रिय हैं।

दरअसल, इस्लाम के नाम पर लोगों को मौत के घाट उतार रहे ये लोग बांग्लादेश नाम के विचार के खिलाफ काम कर रहे हैं। एक ऐसा देश, जिसने धर्म के नाम पर तैयार की गई राष्ट्रीयता को ही खारिज किया, उसने भाषा को अपना सूत्र बनाया। इसके बावजूद पहचान की जटिलता से लबरेज ‘पहले बंगाली या पहले मुसलमान’ में से एक को चुनने का सवाल बांग्लादेश के अस्तित्व से लेकर अब तक बना हुआ है। लेकिन सवाल यह भी है कि खालिदा जिया के मुकाबले काफी उदार और मध्यमार्गी कही जाने वाली शेख हसीना सरकार आखिर इस अतिवाद का मुकाबला किस तरह कर रही है। कुछ लोगों का आरोप है कि वोट बैंक की राजनीति और चुनावी समीकरण कुछ ऐसे हैं कि कहीं न कहीं सरकार इन पर सीधे तौर पर कार्रवाई करने से संकोच करती है। निराशाजनक राजनीतिक माहौल और धार्मिक अतिवाद कहीं न कहीं बांग्लादेश के युवा वर्ग को आंदोलन का रास्ता भी दिखा रहा है।

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