संस्कार जिसमें प्रबल,वही कला-निष्णात


बिखरे मोती

संस्कार की प्रबलता के संदर्भ में:-

संस्कार जिसमें प्रबल,वही कला-निष्णात

संस्कार जिसमें प्रबल,
वही कला -निष्णात।
साधन साथी सद्गुरु,
मिले हरि का हाथ॥1583॥

व्याख्या:- पाठकों की जानकारी के लिए बृहदारण्यक – उपनिषद के अनुसार “मरणासन्न मनुष्य की आत्मा चक्षु से, मुर्धा से या शरीर के किसी अन्य प्रदेश से निष्क्रमण कर देती है। उसके निकलने के साथ-साथ प्राण पीछे-पीछे निकलते हैं। प्राण के निकलने के साथ-साथ इंद्रियां पीछे-पीछे निकलती हैं।
जीव मरते समय सविज्ञान हो जाता है अर्थात् जीवन का सारा खेल उसके सामने आ जाता है। यह विज्ञान उसके साथ-साथ जाता है। विद्या (ज्ञान), कर्म और पूर्व प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि,वासना, स्मृति, संस्कार पे तीनों भी इसके साथ-साथ जाते हैं।” प्रष्ठ – 895
उपरोक्त उद्धरण से यह बात स्पष्ट हो गई कि पूर्व जन्मों के ज्ञान,कर्म और संस्कारों की प्रबलता व्यक्ति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। व्यक्ति को पूर्व जन्म के संस्कारों के अनुसार साधन, संगी-साथी और सद्गुरु मिलते चले जाते हैं। यहां तक कि प्रभु-कृपा का वरद्- हस्त उसके सिर पर होता है। वह व्यक्ति अमुक कला अथवा जीवन के अमुक क्षेत्र में दीप्तिमान, ऊर्जावान ‘सितारे’ की तरह चमकता है। इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस के किष्किन्धा काण्ड में कितना सुंदर कहते हैं:-
अति हरि-कृपा जाहि पै हीई।
पाऊं देहि एहि मारगसोई॥ पृष्ठ- 561
कल्पना कीजिए दो डॉक्टर हैं एक ही कक्षा में साथ-साथ पढ़े हैं किन्तु जब वे अपने कार्य क्षेत्र में उतरते हैं, तो एक डॉक्टर मक्खी मारता रहता है और दूसरा डॉक्टर चिकित्सा के क्षेत्र में बड़ा नाम कमाता है,उसके यहां मरीजों की भीड़ लगी रहती है जबकि उसकी फीस अपेक्षाकृत अधिक है। वह चिकित्सा ही नहीं करता अपितु भिन्न-भिन्न रोगों की औषधि पर नयी- नयी शोध भी करता है। ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिए है क्योंकि दूसरे डॉक्टर के पूर्व जन्म के ज्ञान,कर्म और संस्कार पहले वाले डॉक्टर से अधिक प्रबल हैं। अतः मानव के जीवन में पूर्व-प्रज्ञा और संस्कार उसे ऊँचा उठाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए मनुष्य को जीवन पर्यंत सम्यक ज्ञान और सम्यक संस्कारों का अर्जन करना चाहिए।
क्रमशः

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