दूसरों से सहयोग लेने का विचार कम ही रखें : स्वामी विवेकानंद परिव्राजक


“किसी से कुछ मांगने पर अथवा सहयोग लेने पर व्यक्ति के स्वाभिमान पर चोट लगती है। इस चोट से बचने के लिए दूसरों से सहयोग लेने का विचार कम ही रखें, और अधिक से अधिक स्वात्मनिर्भर होकर स्वाभिमान से जिएं।”
जीवन जीने की पहली पद्धति — “कुछ लोग स्वाभिमानी होते हैं, जो स्वात्मनिर्भर होकर जीवन जीते हैं। वे दूसरों से कम से कम सहयोग लेते हैं।” केवल वहीं सहयोग लेते हैं, जहां उन्हें कोई काम करना नहीं आता हो, अथवा उस काम को करने का समय न हो, अथवा उस छोटे काम से अधिक महत्वपूर्ण दूसरे कार्य उनके पास अधिक हों। जैसे कार्यालयों में बड़े बड़े अधिकारी लोग। छोटे-छोटे कामों में यदि वे किसी का सहयोग लेते हैं, और अपना मूल्यवान् समय बचा कर बड़े बड़े कार्य करते हैं, तो यह उचित है। इसमें कोई दोष नहीं है। इससे उन के स्वाभिमान पर कोई चोट नहीं लगती। “क्योंकि व्यक्ति अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान है। वह सारे काम स्वयं नहीं कर सकता। अतः उसे कहीं न कहीं दूसरों का सहयोग लेना पड़ता है।”
जीवन जीने की दूसरी पद्धति — “परंतु जहां जहां व्यक्ति अपने कार्यों को स्वयं कर सकता है, उसके पास शक्ति सामर्थ्य साधन सुविधाएं और समय भी है, वह छोटा कर्मचारी है, फिर भी वह कामचोरी आलस्य प्रमाद आदि दोषों के कारण उन कार्यों को नहीं करता, और दूसरों के भरोसे बैठा रहता है। दूसरों से आशा लगाए रहता है, कि दूसरा कोई आएगा और मेरा काम करेगा। तो यह स्थिति अच्छी नहीं है। यह तो पराधीनता की स्थिति है।” इसमें व्यक्ति सुख से नहीं जी सकता, बल्कि दुखी होता है। “ऐसी स्थिति में जो लोग दूसरों से अधिक सहायता लेते हैं, या लेने की इच्छा रखते हैं, वे कमजोर भी माने जाते हैं।” दूसरे लोग उनसे खिन्न हो जाते हैं, कि “क्या छोटे-छोटे काम भी स्वयं नहीं कर सकते, और हमें हर रोज परेशान करते हैं.” इस प्रकार से उनको दूसरों से डांट भी खानी पड़ती है। उनके प्रति दूसरों का प्रेम भी कम हो जाता है। और वे कमजोर भी माने जाते हैं।
“ऐसे डांट खाकर कमजोरी दिखाकर जीना कोई अच्छा जीवन नहीं है। अतः बलवान बनें, स्वाभिमानी बनें, आत्मनिर्भर बनें। अपना अधिक से अधिक काम स्वयं करें। जहां बहुत मजबूरी हो, वहीं दूसरों की सहायता लेवें।”
“जो लोग स्वाभिमान से जीना चाहते हैं, वे पहली पद्धति का प्रयोग करते हैं, दूसरी का नहीं। सभी को स्वाभिमान पूर्वक जीना चाहिए, तभी उनका जीवन सुखी, आनंदित और सफल हो सकता है।”
—– स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, रोजड़, गुजरात।

 

प्रस्तुति : आर्य सागर खारी

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