कुर्सियों में ही धँसे न रहें

थोड़ा हिलना-डुलना भी करें

– डॉ. दीपक आचार्य

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आजकल इंसानों की दो तरह की प्रजातियां हमारे सामने हैं। एक वे हैं जो दिन-रात परिश्रम करते हैं, अपने शरीर से काम लेते हैं और मौज-मस्ती के साथ जीते हैं। दूसरी किस्म में वे लोग आते हैं जो दिमाग ज्यादा चलाते हैं मगर शरीर को नहीं। ऎसे लोग कुर्सियों, सोफों और व्हील चेयर्स में धँसे रहते हैं और एक ही स्थान पर कुण्डली मारकर घण्टों बैठे हुए औरों को चलाते और नचाते रहते हैं।

इन लोगों के लिए अपना पूरा शरीर उस पर्स या बैग की तरह होता है जिसे कोई सफर करने वाला यात्री  अपने साथ लाना- ले जाना करता है। हममें से अधिकांश लोगों को अपनी बुद्धि, पद-कद और मद, दिमाग और चतुराई का अहंकार है और ऎसे में हमारी स्थिति असंतुलित हो गई है।

दिमाग और शरीर के संचालन का समानुपात पूरी तरह गड़बड़ा कर विषम हालातों में आ गया है।  यही कारण है कि हमारा दिमाग जहाँ ले जाना है वहाँ अपने शरीर को हम बोरी की तरह ले जाते हैं और घण्टों जम जाते हैं। जो लोग खुद चलते-फिरते हैं उन्हें न वॉक की जरूरत होती है, न डाइटिंग की, न जिम जाने की, और न ही  मोटापा या चर्बी  घटाने के लाख-लाख जतन करने की।

शरीर को चलाने और मेहनत करने वाले लोगों का योग-व्यायाम इनके हर काम में  अनायास अपने आप हो ही जाता है और यह उन लोगों के योग या योगा से कई गुना बेहतर है जो लोग अपने आपको योगा फ्रैण्डली कहकर इतराते फिरते हैं अथवा टै्रक सूट पहन कर अपने आपको हिट एण्ड फिट समझते हुए भोर में किसी न किसी  राजमार्ग  या पॉर्क में  टहलते या दौड़ लगाते हुए दिख जाते हैं।

हमारी पूरी जिन्दगी में थोड़ा सा अनुशासन लाते हुए हम यदि यह तय कर लें कि वाहनों का प्रयोग  थोड़ा कम करें और दो-चार किलोमीटर आने-जाने के लिए वाहनों की बजाय पैदल सफर को अपना लेें, थोड़ा बहुत घर का काम-काज भी कर लिया करें तो हमें अपनी प्रौढ़ावस्था में सायास  समय निकाल कर शरीर को फिट रखने के लिए  कुछ ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।

आजकल अभिजात्य वर्ग के उन लोगों को मोटापा और दूसरी बीमारियां घेरती जा रही हैं जो लोग एक ही स्थान पर घण्टों बैठे रहते हैं। इनमें कुर्सीनशीन भी हैं, सोफानशीन भी,  ग द्दीनशीन भी  और  दूसरी तमाम किस्मों के लोग भी हैं जो जहाँ जाते हैं वहाँ कुण्डली मारकर जम ही जाते हैं।

इनमें बड़े और लोकप्रिय, पॉवरफुल, पूर्व पॉवरफुल, धनाढ्य और दलालों से लेकर वे सभी तरह के लोग हैं जो सिर्फ दिमाग का अधिकाधिक इस्तेमाल करने के आदी हैं  अथवा बिना पुरुषार्थ के ही सब कुछ मिलता रहा है या पाते रहे हैं।  चर्बी अपने आप में स्थूलता और विजातीय  द्रव्य का प्रतीक है और ऎसे में शरीर के अंग-प्रत्यंग को  रोजाना संचालन की जरूरत पड़ती है।

लेकिन जो लोग सिर्फ अपने दिमाग को ही सर्वोच्च मानकर भरोसा करते हैं उनके लिए अपना पूरा शरीर ड्र ग हाउस बन ही जाता है। ऎसे लोग जिन्दगी भर जाने कितनी सारी बीमारियों,  अवसाद और चिंताओं के साथ जीने को विवश हो जाते हैं  और जीवन में सायास अपनायी गई स्थिरता एक समय बाद इनकी विवशता हो  जाया करती है।

जो लोग नियमित रूप से नहीं चला करते हैं उन्हें बुजुर्ग होने पर चलने को विवश होना पड़ता है  और इस विवशता में अपनी सेहत को  बनाए रखने के लिए पैदल भी चल पाने की स्थिति में नहीं होते क्योंकि टांगों और  घुटनों की ताकत जवाब दे जाती है, शरीर शिथिल हो जाता है,इच्छाशक्ति अधमरी या मरी हो जाती है।

हममें से काफी सारे लोगों की आदत घण्टों तक कुर्सियों में धँसे रहने की हुआ करती है और ऎसे में ये कुर्सियाँ हमारे लिए चाहे कितनी ही समृद्धि, भोग-विलास और वैभव, लोकप्रियता, प्रतिष्ठा आदि देकर हममें महान होने का भ्रम पैदा जरूर कर सकती  हैं लेकिन असली आरोग्य और जीवन के शाश्वत आनंद से दूर कर   ही  द ेती हैं।

बंद कमरे और कुर्सियाँ जड़ता जरूर दे सकती हैं,  सेहत और सुकून कभी नहीं।  इसलिए जो लोग जीवन में स्वस्थ और मस्त रहना चाहें उन्हें चाहिए कि कुर्सियों और सोफों में धंसे न रहें बल्कि शरीर को हिलाएं-डुलाएं भी।  अन्यथा दिमाग आसमान में उड़ता रहेगा किन्तु शरीर स्थूलता पाकर डिग भी नहीं सकेगा।

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