संस्थागत भ्रष्टाचार और गाय
आज हम लोकतांत्रिक पूंजीवाद की शोषणात्मक व्यवस्था में रह रहे हैं। स्वतंत्रता के पश्चात इस व्यवस्था में एक ऐसा शोषक वर्ग बड़ी तेजी से उभरा है जिसने पूरी अर्थव्यवस्था पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है। पहले भारी उद्योग स्थापित करके लोगों को बेरोजगार किया गया और अब मशीनी युग में और भी अधिक तेजी से बेरोजगारी बढ़ायी जा रही है। जबकि भारत में प्राचीन काल से ही गौ आधारित अर्थ व्यवस्था रही है, जिससे लोगों को अपने कुटीर उद्योगों के माध्यम से अपनी आजीविका चलाने का अवसर मिलता था।
भारत की प्राचीन अर्थव्यवस्था का आधार प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना था। प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का अनुभव तभी कर सकता है, जबकि उसकी आजीविका या जीविकोपार्जन का अपना स्वतंत्र साधन हो। इसीलिए भारत में प्राचीन काल में कुटीर उद्योगों का प्रचलन प्रमुखता से था। भारत की वर्ण-व्यवस्था का पूरा का पूरा आधार कुटीर उद्योग ही थे। जिसमें लुहार, बढ़ई, जुलाहा आदि-आदि अपने-अपने व्यवसाय में पारंगत होते थे और उन्हें अपनी जीविकोपार्जन के लिए पराधीन नही रहना पड़ता था। इस व्यवस्था में समाज में कहीं दमन, दलन, शोषण या किसी का उत्पीडऩ होने की संभावना नही थी। रोजगार के अवसर किसी व्यक्ति विशेष, संस्था या औद्योगिक संस्थान या व्यक्तियों के समूह आदि के हाथ में नही थे, अपितु प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीविकापार्जन करने का साधन चुनने के लिए स्वतंत्र था। इसलिए कहीं पर भी भ्रष्टाचार नही था। घूस, रिश्वत या भ्रष्टाचार वहीं पनपता है जब आप रोजगार के साधनों पर किसी व्यक्ति विशेष, संस्था या औद्योगिक संस्थान या व्यक्तियों के किसी समूह आदि का एकाधिकार स्थापित करा देते हैं। एक उद्योगपति अथवा कोई सरकारी संस्थान जब हमें रोजगार देते हुए दीखते हैं तो ऐसा लगता है कि वो हमें रोजगार देकर हम पर कोई बहुत बड़ा उपकार कर रहा है, जबकि वो पहले हमारे रोजगार हमसे छीनते हैं फिर उन्हें हममें से कुछ के लिए बांटते हैं। जैसे एक कपड़ा मिल वाला उद्योगपति पहले हजारों जुलाहों को बेरोजगार कर देता है और फिर उन्हें रोजगार देता है तो लगता है कि वह हम पर भारी उपकार कर रहा है, परंतु यह उसका उपकार नही है। पहले यह देखना चाहिए कि उसने हममें से कितने लोगों को बेरोजगार किया है?
भारत के कुटीर उद्योगों को नष्ट कर भारत की जीवनप्रद परंपरागत वर्ण-व्यवस्था का बेड़ा गर्क अंग्रेजों ने किया। क्योंकि वो लोग भारत के निवासियों को हर प्रकार से अपना गुलाम बनाकर रखना चाहते थे। इसलिए यहां के रोजगारों पर अपना नियंत्रण स्थापित उन्होंने किया। रोजगारों के मठाधीश बना बनाकर कुछ लोग बैठाए गये, श्रमिकों के लिए अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति निष्ठा और तकनीकी शिक्षा की अनिवार्यता लागू की गयी। ये सारी चीजें भारत की परंपरागत वर्ण व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए की गयीं। वस्तुत: भारत को उजाडऩे की प्रक्रिया थी यह। इसका परिणाम ये हुआ कि व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंग्रेजी व्यवस्था ने अपना शिकंजा कस लिया। व्यक्ति रोजगार के लिए कुछ विशिष्ट लोगों या संस्थानों का दास बनकर रह गया। रोजगार के लिए रिश्वत का प्रचलन बढ़ा और आज सारा देश संस्थागत भ्रष्टाचार में जकड़ा पड़ा है।
भारत को इस संस्थागत भ्रष्टाचार से मुक्त कराने में गाय की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। पहले हम ये सुनिश्चित करें कि व्यक्ति की मौलिक स्वतंत्रता है-अपने जीविकोपार्जन के लिए स्वतंत्र और निजी व्यवसाय चुनना। निजी व्यवसाय का अर्थ बिजनैस कभी नही है। व्यक्ति की इस स्वतंत्रता पर किन्हीं विशिष्ट लोगों या संस्थानों का नियंत्रण नही होना चाहिए। व्यक्ति स्वयं उठे, उन्नति करे और आगे बढ़े, वास्तविक लोकतांत्रिक व्यवस्था ये है। व्यक्ति के उत्थान, उन्नति और आगे बढऩे पर पहरा बैठाना उसकी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप है। समाज और राज्य का दायित्व मात्र इतना है कि ये सुनिश्चित करें कि कहीं किसी व्यक्ति के उत्थान, उन्नति या आगे बढऩे पर किसी प्रकार से किसी का अनुचित हस्तक्षेप तो नही बढ़ रहा है? ऐसा नही होना चाहिए कि समाज या राज्य स्वयं ही व्यक्ति के उत्थान, उन्नति और आगे बढऩे में हस्तक्षेप करने लगें। जबकि आज की संपूर्ण वैश्विक अर्थ व्यवस्था में ऐसा ही हो रहा है कि व्यक्ति के उत्थान, उन्नति और आगे बढऩे पर कुछ विशिष्ट लोगों और कुछ विशिष्ट संस्थानों व राज्य आदि संस्थाओं का एकाधिकार है। इस एकाधिकार को तोडऩे के लिए सारे विश्व में सर्वत्र बेचैनी व्याप्त है।
इस समस्या का एकमात्र समाधान भारत की वर्ण-व्यवस्था को अपना लेने में है। गाय को अपनी अर्थ-व्यवस्था का आधार बना लेने में है। पिछले लेख में हमने गाय को अपनी अर्थ व्यवस्था का आधार बना लेने के कुछ बिंदुओं पर चर्चा की थी। अब उस चर्चा को आगे बढ़ाते हैं कि कैसे गाय से हमें समाज में बहुत से लोगों के लिए रोजगार मिल सकते हैं?
प्रो. मदनमोहन बजाज एवं महेन्द्र पाल चौधरी ने अपनी पुस्तक ”गौमाता एवं अन्य जीवों की रक्षा” में गोमूत्र एवं गोमय से बनने वाले उत्पादों की एक पूरी सूची दी है। जिनके विषय में लेखक द्वय का मानना है कि यदि ये उत्पाद कुटीर उद्योगों की मान्यता पा जाएं तो बहुत से लोगों को जीविकोपार्जन का साधन सहज ही उपलब्ध हो जाएगा। हमारा इस पर मानना है कि ऐसे कुटीर उद्योगों की स्थापना से व्यक्ति की स्वतंत्रता तो सुनिश्चित होगी ही साथ ही संस्थागत भ्रष्टाचार की बढ़ती प्रवृत्ति पर भी रोक लगाने में सफलता मिल सकती है। व्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ ही ये है कि ‘स्याम पतयो रयीणाम्’ अर्थात हम धनैश्वर्यों के स्वामी हों, वाली वैदिक धारणा फलीभूत हो सके। उक्त पुस्तक के लेखक द्वय ने जिन उत्पादों का उल्लेख गौमूत्र या गोमास से बनाने का उल्लेख किया है, वे निम्न प्रकार हैं :-
कामधेनु खाद :एक गाय बैल प्रतिदिन औसतन यदि 7 किलो गोबर देती है, तो उससे वर्ष में 70-75 टन कम्पोस्ट खाद तैयार की जा सकती है। इसे अपने प्रयोग के साथ-साथ अन्य कृषकों को उपलब्धता के अनुसार बेचा जा सकता है। 100 किलो गोबर के साथ वानस्पतिक व्यर्थ 1500 किलो (सूखे पत्ते, जड़ें, डंठल आदि) सूखी छानी हुई मिट्टी 1750 किलो, पानी 1500 से 2000 लीटर (मौसम के अनुसार) पदार्थ मिलाकर यह खाद तैयार की जा सकती है। जिससे रासायनिक खादों का प्रयोग सस्ता होकर नीरोग अन्नोत्पादन करने में सहायता मिल सकती है।
कामधेनु खाद कीटनाशक : इसे गोमूत्र 10 किलो और नीम की पत्ती ढाई किलो लेकर तैयार किया जाता है। यह कीटनाशक औषधि तो है ही साथ ही पत्तियों के माध्यम से कई पोषक तत्वों की पूर्ति करने के कारण खाद का भी काम करता है।
एक्जिमा साबुन : मुल्तानी मिट्टी 1 किलो, लाल गेरू 200 ग्राम, गीला गोबर 1250 ग्राम, नीला थोथा 35 ग्राम, नील के पत्ते आवश्यकतानुसार लेकर यह साबुन बनायी जाती है, एक्जिमा जैसी बीमारियों के लिए अति उत्तम है। यह साबुन स्नान के लिए नही है।
गोमय साबुन : यह साबुन स्नान में प्रयोग की जाती है। इसे देशी गाय के ताजा गोबर (1250 ग्राम) मुल्तानी मिट्टी 1000 ग्राम, गेरू 200 ग्राम कपूर डली वाला 50 ग्राम से बनाया जाता है।
गोमय मरहम : त्वचा पर होने वाले दाद, खाज, खुजली रोगों के लिए यह मरहम बनाया जाता है। जिसे गोबर का बारीक 400 ग्राम पाउडर (कपड़े से छना) अथवा कपड़े का राख (छना हुआ) गेरू मिट्टी 300 ग्राम गोमूत्र क्षार, 100 ग्राम पेट्रोलियम जैली 1 किलोग्राम से तैयार किया जाता है।
कामधेनु तेल : शरीर दर्द के लिए यह तेल अतीव लाभकारी है। इसे गोबर का रस 2 लीटर गोमूत्र आधा लीटर, काले तिल का तेल 1 किलो, अजवाइन का सत 10 ग्राम से तैयार किया जाता है। दर्द के स्थान पर मालिश करने से अतीव गुणकारी सिद्घ होता है।
देवधूप बत्तियां : देवपूजक यज्ञ-यागादि में प्रयोग के लिए। गीला गोबर 1 किलो, खस का कटा हुआ बुरादा अर्थात मशीन का बुरादा आधा किलो चावल (कण की) 200 ग्राम, गाय का घी 200 ग्राम, लोबान 200 ग्राम से इसे तैयार किया जाता है।
गौधूप (वातावरण शुद्घि के लिए) सूखा गोबर चूर्ण 750 ग्राम लाल चंदन 250 ग्राम, लोबना 250 ग्राम, जटामसी 250 ग्राम, नागर मोथा 250 ग्राम कपूरकाचरी 250 ग्राम। गाय के कण्डे की आग या कोयलों की आग पर धूपन करने से जीवाणु कीटाणु मच्छर आदि से छुटकारा मिलता है। इस वातावरण में सांस लेने से रोग नाश होकर प्राण वायु मिलती है। इस प्रकार पर्यावरण शुद्घि में भी गाय की उपयोगिता सिद्घ होती है।
पंचगव्य घृत : मिरगी, दिमाग की कमजोरी, पागलपन, पाण्डुरोग, भयंकर कामला, (ज्वायन डिस) बवासीर याददाश्त की कमी आदि रोगों में लाभकारी होता है। 10 मि.ली सुबह और इतनी ही शाम को गाय के दूध या पानी से लें। गोघृत 100 मिली. गौमूत्र 100 मिली. गाय का दूध 100 मिली. से इसे तैयार किया जाता है। ऐसे उत्पादों के लिए हमें बहुत बड़ी मशीनों की आवश्यकता नही है। इन उत्पादों को घर में ही तैयार किया जा सकता है और बाजार में सस्ते मूल्य पर उतारा जा सकता है। उपभोक्तावादी बाजार व्यवस्था ने व्यक्ति के भीतर ‘कंपीटीशन’ की जिस भावना को जन्म दिया है वह उसे मार रही है। हमें ‘कंपीटीशन’ की इस प्राण घातक बीमारी के चक्कर में नही पडऩा है, अपितु ‘सहचर्य’ की जीवनप्रद बाजार व्यवस्था को अपनाना होगा। इस बाजार व्यवस्था में आप मेरे परिश्रम का उचित मूल्य नही बल्कि पारितोषिक दें और मैं आपको शुद्घ और उचित उत्पाद दूं। एक उद्योगपति उत्पादन में मिलावट करता है, दूसरों के श्रम की चोरी करता है, तो चारों ओर चोरों का बाजार गर्म हो जाता है, यदि उत्पादन में मिलावट या चोरी रोक दी जाए तो कंपीटीशन की जिस मारामारी की बीमारी से आज सारी वैश्विक व्यवस्था आतंकित है उससे मुक्ति मिल सकती है। चोरी की यह भावना आज के तामसिक और राजसिक खाद्य पदार्थों और तदजनित पारिवारिक और सामाजिक परिवेश की देन है।
गाय का दूध, घृत आदि शुद्घ सात्विक होते हैं। यदि उनका सेवन किया जाए तो शुद्घ सात्विक पारिवारिक और सामाजिक परिवेश का निर्माण किया जा सकता है। उस शुद्घ और सात्विक परिवेश में सतोगुणी बुद्घि का निर्माण होने से ‘कंपीटीशन’ के युग से लौटकर हक सहचर्य के ‘सत्वगुणी’ परिवेश में प्रविष्ट हो सकते हैं। जिसकी आज के विश्व को महती आवश्यकता हे। इसलिए गाय के महत्व को राष्ट्रीय स्तर पर ही नही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी समझने व मानने की आवश्यकता है।
मुख्य संपादक, उगता भारत