गांधी जी का धर्म और उनकी मान्यताएं

वास्तव में गांधीजी का हिन्दू और हिन्दू दर्शन से कोई संबंध नहीं था । उनका धर्म वह था जिसे वह स्वयं अपने लिए उचित मानते थे । उनकी नैतिकता , उनकी आध्यात्मिकता , उनकी ईश्वरभक्ति भी अपनी मान्यताओं , अपनी धारणाओं ,अपनी सोच और अपनी परिभाषा से तय होती थी । हिन्दू धर्म शास्त्रों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। गांधी जी के धर्म , उनकी मान्यताओं , उनकी आध्यात्मिकता और उनकी ईश्वर भक्ति पर यदि शोध किया जाए तो हमें कदम – कदम पर गहराते कुछ स्याह रहस्यों के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा।


गांधीजी मुस्लिम तुष्टिकरण के द्वारा अपने बारे में जितना ही यह संकेत देने का प्रयास करते थे कि वह हिन्दू नहीं हैं , उतना ही मुस्लिम लीग के जिन्नाह और अन्य नेता उन्हें ‘हिन्दू नेता’ के नाम से पुकार कर उन्हें केवल हिन्दू तक सीमित करने का प्रयास करते थे। यदि गांधीजी स्वयं को एक ‘हिन्दू नेता’ के रूप में स्थापित करते और इसमें स्वयं उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती तो मुस्लिम लीग के नेता उनको ‘हिंदू नेता’ कहने का साहस नहीं करते, क्योंकि मुस्लिम लीग के नेताओं ने कभी भी सावरकर जी को ‘हिन्दू नेता’ नहीं कहा था । कारण कि सावरकर जी स्वयं ही अपने आप को ‘हिन्दू नेता’ कह कर गर्व और गौरव का अनुभव करते थे । डॉक्टर अम्बेडकर जी गांधी जी को ‘बुरा सवर्ण हिन्दू’ मानते थे।
गाँधीजी ने स्वयं 12 अक्तूबर, 1921 के ‘यंग इंडिया’ में घोषणा की थीः ”मैं अपने को सनातनी हिन्दू कहता हूँ क्योंकि मैं वेदों, उपनिषदों, पुराणों और समस्त हिन्दू शास्त्रों में विश्वास करता हूँ और इसीलिए अवतारों और पुनर्जन्मों में भी मेरा विश्वास है । मैं वर्णाश्रम धर्म में विश्वास करता हूँ ।इसे मैं उन अर्थों में मानता हूँ जो पूरी तरह वेद सम्मत हैं , लेकिन उसके वर्तमान प्रचलित और भौंडे रूप को नहीं मानता।
मैं प्रचलित अर्थों से कहीं अधिक व्यापक अर्थ में गाय की रक्षा में विश्वास करता हूँ। मूर्तिपूजा में मेरा विश्वास नहीं है ।”

गांधीजी और हिंदू राष्ट्र

यह बहुत ही दुखद तथ्य है कि अपने आपको सनातनी हिन्दू कहने वाले गांधीजी का कभी भी हिन्दू महासभा के ‘हिन्दू राष्ट्र’ में विश्वास नहीं रहा । वह एक ऐसी कल्पना में खोए रहे कि ‘हिन्दू भारत’ कभी हो ही नहीं सकता ।जबकि हिंदू महासभा के नेता ‘हिन्दू भारत’ की बात करते थे । गांधीजी इतिहास के उन सभी तथ्यों को झुठलाने को तैयार थे जो ‘हिन्दू भारत’ के गौरव पूर्ण अतीत को प्रकट करते थे। वेदों और पुराणों में विश्वास रखने वाले गांधी जी मुगलों से पीछे के इतिहास पर जाकर प्रकाश डालना और उसके आधार पर ‘हिन्दू भारत’ की खोज करने को तैयार नहीं होते थे।
आज जिन लोगों ने पुराणों में ‘अल्लाह’ शब्द को डालकर उनमें मिलावट करने का काम किया है , यह वही लोग हैं जो गांधीजी के ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ – से ऊर्जा प्राप्त करते रहे हैं । यह अल्लाह को इतना पुराना सिद्ध कर देना चाहते हैं , जितने पुराने वेद हैं। गांधीजी के ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’- इसी गीत ने लोगों की बुद्धि पर पर्दा डाल दिया । किसी ने यह नहीं सोचा कि वेदों और पुराणों में यदि ‘अल्लाह’ शब्द है तो ईश्वर शब्द कुरान में क्यों नहीं है ? या फिर ईश्वर और अल्लाह दोनों एक हैं तो अल्लाह वालों को ईश्वर पुकारने में आपत्ति क्यों हो ?
हिंदू महासभा यह मान सकती थी कि ईश्वर अल्लाह उसी एक परमेश्वर के नाम हैं , परन्तु उसके लिए शर्त केवल एक थी कि अल्लाह वाले भी इस बात को मानें। जबकि गांधी जी की यह जिद थी कि अल्लाह वाले मानें या न मानें पर ईश्वर वाले जरूर मान लें ।
देश में गांधीवादी आज तक भी इसी जिद पर कायम हैं कि ईश्वर अल्लाह एक ही परमेश्वर के नाम हैं और हिन्दुओं को इसे मानकर मुसलमानों के प्रति एक पक्षीय प्यार दिखाना चाहिए। इसके लिए देश को चाहे जितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़े ,गांधीवाद और गांधीवादी उसके लिए आज भी वैसे ही तैयार हैं जैसे देश विभाजन के लिए 1947 में तैयार थे।

गांधीवादी हिन्दू भारत

गांधी जी की सोच थी कि मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए हिंदुओं को अपनी चाल – ढाल सब भूल जानी चाहिए। वे बदलें या न बदलें पर हिन्दू अपने आपको अवश्य बदल ले और इतना बदल लें कि वे जो चाहें सो करते रहें और जो मांगे सो मांगते चले जाएं। हिन्दू को उनकी ओर से आंखें बंद कर लेनी चाहिए । गांधीजी , गांधीवाद और गांधीवादियों की इसी सोच के चलते1947 के बाद कश्मीर को हमने एक बंद डिब्बे की तरह समझ लिया । जिसके प्रति ‘गांधीवादी हिन्दू भारत’ ने आंखें बंद कर लीं। वहाँ हिन्दुओं पर जो भी अत्याचार होते रहे , ‘गांधीवादी हिन्दू भारत’ ने उसकी ओर सहानुभूति से देखना तक भी उचित नहीं माना । बस, गांधीजी हिन्दू के प्रति ऐसे ही ‘ह्रदयहीन भारत’ का निर्माण करना चाहते थे।
गांधीवादियों की दृष्टि में भारत में हिंदू राष्ट्र हजार डेढ़ हजार वर्ष पूर्व समाप्त हो चुका था । इनका मानना है कि जब इस्लाम यहाँ पर आया तो वह एक ‘मजबूत धर्म’ के रूप में भारत में प्रविष्ट हुआ। उसके पश्चात ईसाई धर्म भी ऐसे ही ‘मजबूत धर्म’ के रूप में भारत में प्रविष्ट हुआ था । गांधीवादियों की दृष्टि में हिंदुत्व या वैदिक धर्म अपने आपमें इतना मजबूत ,सरस और प्रगतिशील नहीं है जितना इस्लाम और ईसाइयत हैं।
गांधीवादियों की यही सोच हमारा पीछा आज तक कर रही है । जिसके कारण हम इस्लाम और ईसाइयत की रूढ़िवादिता पर प्रहार करने से तो बचते हैं और ‘हिन्दू’ को जितना मन में आता है उतना गाली देकर अपने आप को संतुष्ट करते हैं । ऐसा करके हम यह दिखाते हैं कि हम बहुत बड़े धर्मनिरपेक्ष और गांधीवादी हैं।
गांधीवादियों ने राष्ट्रीय दृष्टिकोण या राष्ट्रीय सोच की भी अपने ढंग से एक नई परिभाषा गढ़ी है। इसके अनुसार चोर – उचक्के , बदमाश , राजा ,अपराधी और न्यायाधीश जहाँ सब एक साथ बैठें और एक साथ बैठकर नीति ,रणनीति बनाएं , शासन चलाने के लिए नीति निर्धारित करें , उस ‘गुड़ गोबर’ को यह राष्ट्रीय सोच या राष्ट्रीय दृष्टिकोण कहते हैं। इसीलिए इनके राज में कश्मीर के आतंकवादी भी सरकारी सुविधाएं प्राप्त करते रहे और विदेशों में जाकर भारत के पैसे से भारत के विरुद्ध ही उग्रवादी , आतंकवादी गतिविधियों को प्रोत्साहित करते रहे। वास्तव में यह सोच भी गांधीवाद की ही देन है । हमारे दृष्टिकोण में राष्ट्रीय सोच वह है जो राष्ट्र को विखंडित करने वाली शक्तियों के विरुद्ध राष्ट्रवादी लोगों को एक साथ मिलकर काम करने का आमंत्रण देती है और जहाँ अराष्ट्रीय लोग ऐसे आमंत्रण के लिए सर्वथा अयोग्य समझे जाएं।
यदि गांधीजी का हिन्दुत्व यही है तो हमें निसंकोच कहना चाहिए कि हमें ऐसा गांधीवादी हिन्दुत्व नहीं चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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