download (10)हर कहीं मौजूद हैं

महिषासुर और रावण

– डॉ. दीपक आचार्य

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आज दोष रावण और महिषासुर को ही क्यों दें। स्त्री और समाज को हरने, लज्जित करने और अपनी सत्ता का डंका बजाने वाले साम्राज्यवादी लोगों की आज कहाँ कमी है? हर तरफ पसरा है उनका साम्राज्य। जो कुछ हाल के वर्षों में हम देख-सुन रहे हैं उसने पौराणिक मिथकों और पुरातन घटनाओं तक को पछाड़ कर सामाजिक प्रदूषण के सारे पुराने नवाचारों को ध्वस्त कर दिया है।

उस जमाने में राक्षसराज रावण और महिषासुर से लेकर असुर साम्राज्य के संस्थापकों, अनुचरों से लेकर सामान्य राक्षसों तक के विध्वंसक और नकारात्मक इतिहास को हमने पीछे छोड़ दिया है।  असुरों में भी अपनी कई मर्यादाएं थीं जिनका उन्होंने हमेशा पालन किया और कुछ नगण्य मामलों या साम्राज्यवादी मानसिकता को छोड़ कर वे कभी पटरी से नीचे नहीं उतरे, जितने आजकल हम उतरते जा रहे हैं।

ब्रेक और बेरियर उस जमाने में भी थे जिनकी वजह से असुर सम्राट हाें या मामूली असुर, सारे अपनी-अपनी मर्यादाओं में बंधे हुए थे और मर्यादाओं का व्यतिक्रम पाप व अपराध समझा जाता था। वे जो कुछ करते थे अपनी-अपनी सीमाओं और मर्यादा रेखाओं में रहकर।  उस जमाने में सब कुछ पारदर्शी होता था। चाहे वह किसी भी पक्ष का होता। शत्रुता के भाव होते तब भी जग जाहिर थे और दोनों पक्षों का स्पष्ट ध्रुवीकरण अपनी-अपनी एकान्तिक निष्ठाओं का प्रकटीकरण कर ही देता था। दैत्यगुरु भी मर्यादित और धर्माचारी थे। आज के कतिपय गुरुओं की तरह समर्पण के मोहताज नहीं थे।

जमाना बहुत कुछ आगे बढ़ गया है। आज भी हमारे आस-पास से लेकर दूर-दूर तक सिंग-पूंछ-नख-दंत विहीन असुरों का प्रभुत्व दिखाई देता है। किसम-किसम के आदमियों की विस्फोटक जनसंख्या के बीच अब असुरों को ढूंढ़ने नहीं जाना पड़ता। हमारे पास और दूर सभी जगहों पर आसुरी वृत्तियों का बोलबाला है।

लोग दिखते तो भोले-भाले हैं लेकिन इनके भीतर हमेशा कोई न कोई असुर बोलता और क्रियाकर्म करता नज़र आ ही जाता है। हम चारों तरफ घिरे हुए हैं उन लोगों से, उन वृत्तियों से जो नकारात्मक ही नहीं, ऎसी हैं कि जिनकी कोई सीमा या मर्यादा रेखा दिखती नहीं। जिसे जो चाहे वो करने लगता है, कर गुजरता है और हम चुपचाप देखते रह जाते हैं।

पड़ोसी मुल्क के अपने ही पैदा किए असुर हमारी सीमाओं में घुस आते हैं, आतंकवादी हमारी धरती पर आकर धमाल कर जाते हैं और हम इन असुरों की हरकतों को अर्से से पूरी सहनशीलता के साथ देख रहे हैं। भारतीय मानस की रीढ़ कही जाने वाली गौमाता की संख्या हमने कितनी थी, और कहाँ पहुंचा दी? हमने अपनी सारी मर्यादाओं का चीरहरण कर दिया है। न हमें समाज से मतलब रह गया है, न धर्म या सम्प्रदाय से, न आदमी से, न इंसानियत से।

हमने हर मामले में असुरों को पछाड़ दिया है। आज हम जो भी कुछ कर रहे हैं वह असुरों ने भी कभी नहीं किया होगा। आज हर कहीं कालनेमियों का बोलबाला है जो धर्म की आड़ लेकर मर्यादाओं को तार-तार कर रहे हैं। रावण और महिषासुर से लेकर हर किस्म का असुर हमारे सामने किसी न किसी रूप में साकार होकर इतिहास को दोहरा जाता है।

आडम्बर और पाखण्ड के दौर में हम आदमी और औरत से लेकर शिखण्डियों और आम वृहन्नलाओं तक के किरदारों को अच्छी तरह जीने के लिए रोजाना औरों पर मरने लगे हैंं, अपने स्वार्थ की खातिर मारने और मरवाने भी। पुरुषार्थ और ईमानदारी की बजाय हमने अपना लिया है हड़पो कल्चर को। इसमें हर तरफ से खाने और हड़पने के लिए हम स्वतंत्र हो गए हैं। कोई पैसा खा रहा है, कोई जमीन-जायदाद, तो कोई कुछ न कुछ।

सब तरफ खाने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में हमें रोजाना छोटे परदों से लेकर जनजीवन में जाने कितने रावण और महिषासुर तथा इन जैसे महान-महान और स्वार्थ मान्य असुरों के दर्शन होने लगे हैं। हैरत की बात तो यह भी है कि इस जमाने के असुर खुद को देवता साबित करने के लिए जाने कितने आडम्बरों को अपनाए  हुए फब रहे हैं। हमेशा सावधान और सतर्क रहें, सभी अच्छे लोग इन दिनों असुरों के निशाने पर हैं।

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