भारतीय क्षात्र धर्म और अहिंसा ( है बलिदान इतिहास हमारा) , अध्याय — 11 ( क )

दलन बनाम पराक्रम

तुगलक वंश के सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने अपने शासनकाल में वारंगल पर आक्रमण किया था । उस समय वीर हिन्दू शासक राय लद्दर देव वहाँ शासन कर रहा था । लददरदेव की राष्ट्रभक्ति बहुत ही वन्दनीय है।
इस युद्ध के बारे में बरनी ने जो कुछ लिखा है वह यद्यपि अपने सुल्तान को कुछ अधिक दिखाने के दृष्टिकोण से लिखा है, परन्तु उसके लिखे का यदि सही आंकलन किया जाए तो पता चलता है कि वारंगल के युद्ध में निर्णायक विजय राजा लददर देव की हुई थी। उसकी वीरता और रणकौशल के सामने सुल्तानी सेना भयभीत होकर भाग खड़ी हुई थी। इस प्रकार मैदान हिन्दू वीर लद्दर देव के नाम रहा था । अपनी स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए राजा ने मुस्लिम सेना में ही ऐसे मतभेद उत्पन्न कर दिए थे कि उनमें परस्पर ही अविश्वास का वातावरण बन गया था ।

पी.एन.ओक इस हिन्दू विजय पर लिखते हैं :- “यह मार इतनी कमरतोड़ और करारी थी कि सैनिक पस्त हो गए । जिधर से अवसर मिला भाग निकले । भागने वाले कुलीनों ने भी अपना – अपना रास्ता पकड़ा। उनके सिपाही और गुलाम नष्ट हो गए । उनके घोड़े और हथियार हिन्दुओं के हाथ लगे । मलिक तमार ( भूल से) अपने कुछ सवारों के साथ हिन्दू क्षेत्र में घुस गए और वहीं समाप्त हो गए । हिन्दुओं ने अवध के मलिक तमार को मारकर उसकी चमड़ी उलुघ खान के पास देवगिरी भेज दी । उन लोगों ने मलिक मलल अफगान, शायर उबेर आदि बहुत लोगों को बन्दी बनाकर देवगिरी भेज दिया । ” ( सन्दर्भ : ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान’, भाग – 1 पृष्ठ 269 -270 बरनी के माध्यम से )
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सल्तनत काल में सुल्तानों की ओर से हिन्दुओं का जितना अधिक दमन, दलन व शोषण का क्रम बढ़ता जाता था , उतना ही हिन्दू का पराक्रम बढ़ता जा रहा था । किसी भी स्थिति में हिन्दू अपनी स्वतन्त्रता को खोना नहीं चाहते थे । इसके लिए उन्हें चाहे जितने बलिदान देने पड़ जाएं और चाहे जितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़े उन सबके लिए वे मनोवैज्ञानिक और आत्मिक रूप से तैयार थे।
अलाउद्दीन खिलजी जब मरा तो यह सत्य है कि उसने एक विशाल साम्राज्य उस समय तक स्थापित कर लिया था , परन्तु उसकी मृत्यु पर देश के हिन्दुओं ने बहुत अधिक खुशी मनाई थी । ‘इलियट एंड डाउसन’ के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु पर प्रत्येक घर में ढोल एवं नगाड़े बजाए गए । बाजार के लोगों ने अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु पर खूब खुशियां मनाई थीं ।” समकालीन इतिहास लेखकों का कहना है कि अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के पश्चात कुतुबुद्दीन खिलजी के शासन काल में मुसलमान व्यापारी जनता की चमड़ी तक उधेड़ लेते थे । कर वसूली के अफसरों के लिए सुनहरी अवसर आया हुआ था । मुसलमानों में व्यभिचार फैल गया था और हिन्दुओं ने विद्रोह ( स्वतन्त्रता संग्राम ) का बिगुल फूंक दिया था।”

दोआब ने उठा लिया स्वतन्त्रता का झण्डा

तुगलक वंश में मोहम्मद तुगलक ने जब दोआब में कर वृद्धि की तो उसके विरुद्ध भी हिन्दुओं ने स्वतन्त्रता का झण्डा उठा लिया था। ‘सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध’ के लेखक ने लिखा है कि :- “परिणाम स्वरूप दोआब की जनता ने विद्रोह कर दिया । उन्होंने अपने पशुओं को घरों से बाहर निकाल दिया और खलिहानों में आग लगाकर जंगलों की ओर भाग निकले । इस प्रकार वहाँ की जनता द्वारा असहयोग किए जाने के कारण कृषि की कमी तथा प्रजा का विनाश हो गया । दोआब से अनाज न पहुँच पाने के कारण राजधानी सहित सर्वत्र स्थानों पर अनाज की कमी हो गई तथा दुर्भिक्ष पड़ गया ।”
इस विषय में बरनी लिखता है :- ” दूर-दूर की विलायत की प्रजा को जब दोआब की प्रजा के विनाश का समाचार मिला तो उसने भी भय के कारण विद्रोह कर दिया और जंगलों में भाग गए।”
इस प्रकार स्पष्ट है कि तुगलक वंश के शासकों के भी किसी अत्याचार को हिन्दुओं ने सहन नहीं किया। उन्हें जो भी शासकीय नीति अपने हितों के प्रतिकूल और शोषण व दमनकारी लगी , उसी का उन्होंने वीरतापूर्वक विरोध किया और अपनी स्वतन्त्रता के आन्दोलन को गति प्रदान की।

हिन्दू प्रतिरोध और राजधानी परिवर्तन का निर्णय

कुछ भारतद्वेषी इतिहासकारों ने तुगलक के राजधानी परिवर्तन के निर्णय को भी एक बहुत अच्छा और ऐतिहासिक निर्णय बताने का प्रयास किया है। वास्तव में राजधानी परिवर्तन का निर्णय भी हिन्दू प्रतिरोध और हिन्दुओं के नित्य प्रति के चल रहे स्वतन्त्रता आन्दोलनों से दु:खी होकर ही सुल्तान के द्वारा लिया गया था । पी.एन.ओक ने अपनी पुस्तक ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान’ , भाग – 1 पेज 287 पर समकालीन इतिहास लेखक इब्नबतूता को उद्धृत करके इस संदर्भ में महत्वपूर्ण जानकारी हमें दी है। अपनी पुस्तक के पृष्ठ संख्या 613 पर इब्नबतूता ने लिखा है :- “मोहम्मद बिन तुगलक का उद्देश्य था कि दिल्ली के निवासी अपमान एवं गालियों से भरा हुआ पत्र सुल्तान को लिखते थे । वे उसे (गोंद से ) बन्द कर और ‘राजा के अलावा कोई न पढ़े’ – लिखकर रात में सभागार में फेंक दिया करते थे । जब सुल्तान उसे खोलते थे तो उन्हें ज्ञात होता था कि उन पत्रों में उन को अपमानित करते हुए गालियां दी गई हैं।”
ऐसे नित्य प्रति के समाचारों को पढ़- पढ़कर सुल्तान दु:खी हो गया था । तब उसने दिल्ली को नष्ट करने का निर्णय लिया । इस प्रमाण को समझकर हमें अपने स्वतन्त्रता प्रेमी हिन्दू पूर्वजों को सराहना चाहिए और इस प्रकार के लेखन पर पूर्णविराम लगाना चाहिए कि सुल्तान ने राजधानी का परिवर्तन बहुत सोच समझकर बुद्धिमत्ता पूर्वक किया था। विशेष रूप से तब तो यह और भी अधिक आवश्यक हो जाता है जब हमें यह पता चलता है कि दिल्ली के स्वतन्त्रता प्रेमी हिन्दुओं से प्रेरित होकर दौलताबाद अर्थात देवगिरि के हिन्दुओं ने भी सुल्तान के विरुद्ध तुरन्त स्वतन्त्रता आन्दोलन आरम्भ कर दिया था । जैसे ही सुल्तान देवगिरि पहुँचा तो वहाँ के लोगों ने उसका स्वागत उसी भाषा में किया जिस भाषा को सुनकर वह दिल्ली से भागा था।
इस सम्बन्ध में बरनी ने लिखा है :-“देवगिरि के चारों ओर जो एक काफिर जमीन ( हिन्दुओं की आबादी) थी ,उसमें मुसलमानों की बहुत सी कब्रें तैयार हो गईं (अर्थात उस हिन्दू बहुल क्षेत्र में बड़ी संख्या में मुसलमानों को मार दिया गया ) उन लोगों ने काफिर जमीन ( हिन्दू बहुल क्षेत्र) में अपना सिर दफना दिया और प्रवासियों की बहुत बड़ी जनसंख्या में से केवल थोड़े बहुत ही अपने-अपने घर लौटने के लिए जीवित बच सके ।”
जो लोग यह कहते हैं कि सुल्तान जब दिल्ली से दौलताबाद पहुँचा तो वहाँ पर उसका मन नहीं लगा और वह वहाँ से फिर दिल्ली लौट आया , वह इतिहास के उक्त तथ्य को उपेक्षित करने का प्रयास करते हैं जो बर्नी ने हमें बताया है। जिससे स्पष्ट है कि सुल्तान देवगिरी के स्वतन्त्रता प्रेमी हिन्दुओं के आतंक से आतंकित होकर और अपने मुस्लिम लोगों की बड़ी संख्या में अपनी कब्रों को देखकर वहाँ से फिर दिल्ली के लिए भाग आया था।
इसी मुहम्मद बिन तुगलक ने चीन और तिब्बत की ओर स्थित एक हिन्दू राज्य कराजल पर आक्रमण किया था । वहाँ के हिन्दुओं ने मुहम्मद बिन तुगलक को ऐसा पाठ पढ़ाया था कि फिर कभी उधर को देखने तक का साहस वह नहीं कर पाया था । समकालीन इतिहास लेखकों के माध्यम से हमें पता चलता है कि कराजल के हिन्दुओं ने एक लाख सल्तनती सैनिकों की कब्रें खोद डाली थीं।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास में पुनर्लेखन समिति

Comment: