भारतीय क्षत्रिय धर्म और अहिंसा( है बलिदानी इतिहास हमारा ) अध्याय –11( ग ) जब मुस्लिम आक्रमणकारियों के विरुद्ध 24 हिंदू शासकों ने बनाया था राष्ट्रीय संघ

सिकन्दर लोदी के शासनकाल में अवध में 24 हिन्दू रायों सामन्तों ने वहाँ के प्रान्तपति मियां मोहम्मद फर्मूले के विरुद्ध स्वतन्त्रता आन्दोलन आरम्भ किया । 24 हिन्दू रायों एवं सामन्तों का इस प्रकार एक साथ आना एक उल्लेखनीय घटना है । जो हिन्दुओं के भीतर की वेदना और स्वतन्त्रता के प्रति तड़प को स्पष्ट करती है। ‘वाकयाते मुश्ताकी’ के अनुसार इन 24 हिन्दू रायों को सफलता नहीं मिल सकी , परन्तु एक बात तो निश्चित है कि इस प्रकार के संघ बनाने की हमारी प्रवृत्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रवाद की भावना को लेकर हम समय-समय पर राष्ट्रीय सेना और संगठन बनाते रहे।

इसके पश्चात राणा संग्राम सिंह ने मेवाड़ के शासन को जब संभाला तो उन्होंने भी अपने देश , धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए प्राणपण से कार्य किया । वह भारत के गौरव को लौटाने चाहते थे , इसलिए उन्होंने जो कुछ भी किया वह भारत के लिए किया।
राणा सांगा के शासनकाल में ही बाबर नाम का विदेशी राक्षस आक्रमणकारी भारत पर चढ़ आया था। जिसने पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी को पराजित कर दिल्ली की सत्ता हथिया ली थी । इसके पश्चात यह निश्चित हो गया था कि अब इस विदेशी राक्षस से राणा सांगा का युद्ध होगा , क्योंकि राणा संग्राम सिंह उस समय भारतवर्ष की एक प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित थे । वह नहीं चाहते थे कि विदेशी आक्रमणकारी भारत आकर यहाँ का शासक बन बैठे इसलिए उनके साथ बाबर का प्रसिद्ध खानवा का युद्ध हुआ । यह युद्ध हमारे महान हिन्दू शासक राणा सांगा की अप्रतिम वीरता और देशभक्ति का प्रतीक है। जिसमें अनेकों हिन्दू योद्धाओं ने अपना बलिदान दिया था। इन्हीं के शासनकाल में 1528 ई0 में बाबर ने अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर स्थित मन्दिर को नष्ट किया था । जिसके लिए भीटी के शासक मेहताब सिंह और अन्य अनेकों वीर योद्धाओं के नेतृत्व में बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने अपना बलिदान दिया था।
सल्तनत काल में और उसके पश्चात भी हमें विजय नगर के महान हिन्दू राजाओं की एक ऐसी श्रंखला मिलती है जिन्होंने अपनी स्वतन्त्रता को निरन्तर 300 वर्ष तक बनाए रखा । निश्चित रूप से उनके इस महान योगदान की मां भारती ऋणी है । जबकि आसाम का गौरवशाली इतिहास हमें बताता है कि पूरे सल्तनत काल में और उसके पश्चात मुगलों के शासन काल में भी पूरा आसाम अपनी स्वतन्त्रता का परचम लहराता रहा । इसी प्रकार कश्मीर की कश्मीरियत को जीवित रखने वाली कोटा रानी का गौरवपूर्ण इतिहास भी हमें पढ़ने को मिलता है । जिसने एक से बढ़कर एक वीरता के उत्कृष्ट कार्य किए और अपना बलिदान देकर स्वतन्त्रता की ज्योति को प्रज्ज्वलित किया। यद्यपि इसी काल में कश्मीर को धर्मांतरण की ओर बढ़ाने के कार्य भी किए गए । कश्मीर में हिन्दुओं को इस काल में ‘इस्लाम , मृत्यु या कश्मीर छोड़ो’ – यह तीन विकल्प मिले थे । इसके उपरान्त भी हिन्दू योद्धाओं ने कश्मीर न छोड़ने का निर्णय लिया था। कश्मीर के इतिहास में वैद्यराज श्रीभट के प्रयासों को भी हम भुला नहीं सकते , जिन्होंने कश्मीर को फिर से स्वर्ग बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
(सभी फोटो प्रतीकात्मक हैं )

(पूरे सल्तनत काल में किस प्रकार हिन्दू अपने राष्ट्रीय सम्मान के लिए संघर्ष करते रहे ? – इसकी विस्तृत जानकारी है हमने स्वलिखित ‘भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास’ , भाग – 2 ‘वह रुके नहीं- हम झुके नहीं’ में दी है – लेखक )

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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