मजबूत लोकतंत्र के लिए मजबूत नेता की खोज करती देश की जनता

 

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। जिसमें सबको अपने-अपने  अनुसार जीवन यापन करने की पूरी स्वतंत्रता है। लोकतंत्र की नींव जनता के मतों पर टिकी होती है। लेकिन उत्तराखंड हो या अरुणाचल प्रदेश-लोकतांत्रिक मूल्यों को टूटते-बिखरते देखा गया है। ऐसी ही स्थितियों और राजनीतिक प्रक्रिया के कारण आम लोगों में अरुचि और अलगाव बहुत साफ दिखाई देता है, समानता लोकतंत्र का हृदय है, लेकिन असमानता ही चहूंओर दिखाई दे रही है। वोटों के गलियारे में सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने की होड़ और येन-केन-प्रकारेण वोट बटोरने के मनोभाव ने इस उन्नत शासन प्रणाली को कमजोर किया है।    राजनीति का आदर्शों भरा युग बीत चुका है आज हम लोग राजनीतिक दलों की विभीषिका और उसकी अतिवादिता से ग्रस्त होकर राष्ट्र के मूल्यों को भूल गए हैं। भारतीय राजनीति उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। चारों ओर भ्रम और मायाजाल का वातावरण है। भ्रष्टाचार और घोटालों के शोर और किस्म-किस्म के आरोपों के बीच देश ने अपनी नैतिक एवं चारित्रिक गरिमा को खोया है। मुद्दों की जगह  अभद्र टिप्पणी एवं व्यक्तिगत रूप से छींटाकशी की जा रही है।कई राजनीतिक दल तो पारिवारिक उत्थान करने वाले व्यावसायिक संगठन बन चुके हैं। सामाजिक एकता की बात कौन करता है, आज देश में भारतीय कोई नहीं नजर आ रहा, क्योंकि उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, महाराष्ट्रीयन, पंजाबी, तमिल की पहचान भारतीयता पर हावी हो चुकी है। वोट बैंक की राजनीति ने सामाजिक व्यवस्था को अलग-थलग करके रख दिया है। ऐसा लगता है कि सब चोर एक साथ शोर मचा रहे हैं और देश की जनता बोर हो चुकी हैं।       जनता के स्वतंत्र लिखने, बोलने और करने की स्वतंत्रता का हनन करने वाले शासकों ने इस शासन प्रणाली को ही धुंधला कर  दिया है। शासक ही सोचेगा, शासक ही बोलेगा और शासक ही करेगा- ऐसी घोषणाओं के द्वारा शासक ने जनता को पंगु, अशक्त और निष्‍क्रिय बनाया है। आज राजनितिज्ञ कम व्यावसायिक राजनीतिज्ञ जादे पैदा हो रहे है। शायद यही वजह है कि बडी मुश्किल से कोई राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बनना चाहता है। एक तरह से लोकतंत्र जैसी स्वस्थ और आदर्श शासन प्रणाली भी प्रश्‍नों के घेरे में है। आवश्यक है कि देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास और मतदान के साथ-साथ नागरिक सजगता का भी विकास हो।       बहुत से समाजसेवी संगठन’ लोकतांत्रिक मूल्यों को सुदृढ़ बनाने, चुनाव की खामियों को दूर करने एवं नए लीडर उभारने के प्रयास में लगे है। ज्यादा से ज्यादा वोट देना ही नागरिक सजगता नहीं है, बल्कि वोट किसे दे रहे हैं, उसकी नीतियां और नियत क्या है, इस पर भी विचार करना जरूरी है। वोट देने के साथ शासक के काम पर नजर रखना भी जनता की बिना सजगता के संभव नहीं है। सोशल मीडिया की भीड़ तख्‍तापलट तो कर सकती है लेकिन उसके बाद का काम नहीं कर सकती। लिहाजा मतदान जनता का  पहला कदम है अंतिम नहीं। लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी से सरकार बने और सही तरीके से चले भी। अच्छे लोग हार के डर से राजनीति में रूचि नहीं लेते उन्हें भी राजनीति में भागीदारी करके जनता के सामने स्वस्थ विकल्प रखना चाहिए ।      विधान परिषद और राज्यसभा को राजनीतिक व्यक्तियों से मुक्त करना जरूरी है। इसमें अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ लोग होने चाहिए जो राजनेताओं की गलतियों को पकड़ सकें। विधानसभा और लोकसभा में अपराधियों की बढ़ती संख्‍या भी चिंता का विषय है। हाल ही में चुनाव आयोग और विधि आयोग द्वारा प्रस्तावित ‘चुनाव सुधार’ को तुरंत लागू किया जाना इसलिए जरूरी है ताकि राजनीति का अपराधीकरण होने से रोका जा सके। चुनाव आयोग पार्टियों को पंजीकृत तो कर सकता है लेकिन नियंत्रित नहीं। यह काम जागरूक नागरिक ही कर सकतें है, अतः देश के लोग जागरूक हो और अपना कर्तव्य निभाएं। इधर लोकतंत्र से जुड़ी मुख्य बात यह है कि जागरूक और शिक्षित मतदान करने वाली आबादी अनुपात में घट रही है, आश्चर्यजनक तो यह है कि हमारे राजनीतिक दल समाज के इस हिस्से में अपने खिलाफ बनी छवि सुधारने के वजाय उन लोगो को खींचने की कोशिश मे लगे है  जिन्हें देश की दशा और दिशा से कोई लेना देना नहीं है यह तबका किसी एक धर्म, जाति या समुदाय से ताल्लुक नहीं रखता। यह पूरे देश में फैला हुआ है और इसमें कॉलेज स्टूडेंट्‌स, मध्य-उच्च मध्य परिवारों से लेकर उन कामकाजी लोगों को रखा जा सकता है, जो मुखयतः अर्द्धशहरी और शहरी इलाकों में रहते हैं।       राजनेता और सरकारें अपने नीतियों और कार्यक्रमो को क्रियान्वित कराने मे नाकाम रहे हैं। इसलिए आम जनता यह मानने लगी है कि व्यवस्था ही दोषपूर्ण है और नेता अपने वादे नहीं निभा रहे।          लोकतंत्र की यह दुर्बलता है कि सांसदों-विधायकों का चुनाव अर्हता, गुणवत्ता एवं योग्यता के आधार पर न होकर, दल या संस्था के आधार पर होता है। इससे नाहीं राजनीति स्वस्थ बन सकती,और नाहीं योग्य एवं प्रतिभासंपन्न उम्मीदवारों का चयन होता है। सही व्यक्ति की खोज वर्तमान राजनीति की सबसे बड़ी जरूरत है। स्वस्थ राजनीति में ऐसे नेतृत्व की आवश्‍यकता इसलिए भी है, ताकि लोकतंत्र को हांकने वाला निष्‍पक्ष हो, सक्षम हो, सुदृढ़ हो, स्पष्‍ट एवं सर्वजन हिताय का लक्ष्य लेकर चल सके। ऐसी व्यवस्था भी नियोजित की जानी चाहिए है, जिसमें स्वतंत्र विचारों वाले जागरूक नागरिकों द्वारा हर सरकार के कामकाज का मूल्यांकन किया जाए। यह उन्हें अपनी चुनावी घोषणाओं या जीतने के बाद किए गए वायदों के प्रति उत्तरदायी बनाएगा।         हमें ऐसे मंच तैयार करने चाहिए जो भारत के उन युवाओं, प्रोफेशनल्स और ऊर्जावान नागरिकों को एक साथ लाएं और आपस में जुड़ने का अवसर दें, जो इस देश की तस्वीर बदलना तो चाहते हैं, लेकिन उचित मंच के अभाव में येसा नहीं कर पाते। यही युवा, सक्रिय नागरिक और प्रोफेशनल लोग अपने तौर-तरीकों और नागरिकों मूल्यों की वजह से दूसरों के लिए रोल माँडल और आने वाली पीढ़ी के लिए पथ प्रदर्शक बन जाएंगे। हमें भारत के विशाल प्रांगण में हर कोने में ऐसे लोगों की तलाश करनी होगी। जिससे भारतीय लोकतंत्र का उचित प्रबंधन किया जा सकें।      लोकतंत्र की सुदृढ़ता के लिए और नए लीडर तलाशने के लिए जरूरी है कि राजनीति के प्रशिक्षण का उपक्रम विभिन्न स्तरों पर संचालित होना चाहिए। न्यूनतम योग्यता एवं न्यूनतम प्रशिक्षण तय होना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर कृषि, ग्रामीण रोजगार, शिक्षा, वित्तीय अनुशासन, स्वास्थ्य और कुपोषण, जवाबदेही और पारदर्शिता, चुनाव और पुलिस सुधार, मानवाधिकारों की रक्षा आदि के संसाधनों को सुचारू रूप से चलाया जाना चाहिए। इसलिए परिवर्तन के लिए लीडरों की पहचान सेमिनार, वाद-विवाद और महत्वपूर्ण मुद्‌दों पर राय मांगकर की जा सकती है। लीडरों को बदलाव बाहक बनाने हेतु उनका सशक्तिकरण किया जाना चाहिए। ऐसे दूसरे संगठनों और दबाव समूहों की पहचान भी की जानी चाहिए जो देश की व्यवस्था को सुधारने में उचित योगदान दे सके।        लोकतांत्रिक संस्थाओं में ऐसे नेताओं को चुनकर मत भेजिए जो पक्ष या विपक्ष की अच्छाई-बुराई देखने में सक्षम न हो जो कुटिल , मायावी,अभिनेता हो। जिनके लिए सत्ता प्राप्ति ही एक उद्देश्य हो। येसे लोग जिस जनता के कंधों पर बैठकर केन्द्र तक पहुंचते हैं, उनके साथ भी धोखा कर सकते हैं। ऐसे नेता देश से भी अधिक महत्व अपनी जाति और संप्रदाय को देते हैं। सत्ता जिनके लिए सेवा का साधन नहीं, विलास का साधन है। भला येसी स्थितियों में लोकतंत्र एक अच्छी शासन प्रणाली कैसे साबित हो सकता है?

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