भारतीय मनीषियों के चिंतन के संदर्भ में : राष्ट्र रक्षा का नाम ही है राजनीति

राष्ट्ररक्षासमं पुण्यं,

राष्ट्ररक्षासमं व्रतम्,

राष्ट्ररक्षासमं यज्ञो,

दृष्टो नैव च नैव च।।

नभः स्पृशं दीप्तम्…
स्वागतम्!
– प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी का ट्वीट

AV 6.103 राष्ट्र सैन्य व्यवस्था
1. संदानं वो बृहस्पतिः संदानं सविता करत् ।
संदानं मित्रो अर्यमा संदानं भगो अश्विना । ।AV6.103.1 । ।
शत्रुओं को ! (बृहस्पति) साम्राज्य का मुख्य सेनापति –Chieh of Defence Staff- (व: संदानम्‌) तुम्हे बान्धे,(सविता संदानम्‌) सेना का क्षेत्रपति बान्धे। (मित्र: अर्यमा: भग: अश्विना) सेना के मित्र के समान न्यायाधीश और कोषाध्यक्ष दोनों (संदानम्‌) सेना के प्रबन्ध व्यवस्था में कार्य करें॥अथर्व6.103.1॥
Prisoners of War शत्रु सैन्य बन्दी
2. सं परमान्त्सं अवमानथो सं द्यामि मध्यमान् ।
इन्द्रस्तान्पर्यहार्दाम्ना तानग्ने सं द्या त्वं । । AV6.103.2 । ।

(परमान्‌) शत्रु के उत्कृष्ट अधिकारियों को (सं द्यामि) मैं सेनाध्यक्ष बन्दी बनाता हूं, (अवमान्‌) नीचे के अधिकारियों को (सम्‌) बान्धता हूं, (अथ) तथा (मध्यमान्‌) मध्यम अधिकारियों को (सम्‌ द्यामि) बान्धता हूं। परंतु (तान्‌ अग्ने दाम्ना संद्य) उन कठोर बन्धनों से बन्धे हुए बन्दियों को (त्वम्‌ इन्द्र: पर्यहा:) तुम राष्ट्र के इन्द्र रूप सम्राट जिन्हें चाहें बन्धन से मुक्त कर दें ॥ अथर्व 6.103.2॥

3. अमी ये युधं आयन्ति केतून्कृत्वानीकशः ।
इन्द्रस्तान्पर्यहार्दाम्न तानग्ने सं द्या त्वं । । AV6.103.3 । ।
(अमी) वे (ये) जो (केतून्‌ कृत्वा) झण्डे ले कर (अनीकश:) समूहों में (युधम्‌) युद्ध के उद्देश्य से (आयन्ति) आते हैं (तान्‌) उन्हें (इन्द्र: पर्यहा) उन्हें सेना दूर ही रोक दे और ( त्वम्‌ दाम्ना सम्‌ द्य) उन्हें ठीक से बांध कर रखे॥अथर्व6.103.3॥
✍🏻सुबोध कुमार

राष्ट्ररक्षा ही है राजनीति

लेखक : रवि शंकर
कार्यकारी संपादक, भारतीय धरोहर

राजनीति का सामान्य अर्थ है राज करने की नीति। राज करना यानी लोगों पर शासन करना नहीं होता। राज करने का अर्थ है लोगों को अभय यानी सुरक्षा प्रदान करना। प्रश्न उठता है कि किन लोगों को सुरक्षा प्रदान करना? एक प्रसिद्ध हिंदी फिल्म गब्बर इज बैक में प्रशासन भ्रष्टाचारी अधिकारियों को गब्बर के द्वारा दंडित किए जाने से सुरक्षा प्रदान करता है। क्या भ्रष्टाचारियों की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है? फिल्म में एक काल्पनिक स्थिति प्रस्तुत की गई है, परंतु सोचा जाए तो क्या वास्तव में राज्य ऐसा व्यवहार नहीं करने लगेगा, जैसा कि गब्बर फिल्म में दिखाया गया है। भले ही राज्य ऐसा अपनी सर्वोच्चता बनाए रखने के लिए करेगा, परंतु इससे राज्य की मूल संकल्पना को हानि तो पहुँचती ही है। वास्तविक जीवन में भी हमने आतंकियों को मृत्युदंड से बचाए जाने की सुनवाई के लिए न्यायालय को आधी रात को खुलते देखा है।
राष्ट्रं धारयतां ध्रुवम्
ऋग्वेद के दसवें मंडल का 173वाँ सूक्त बताता है कि वैदिक काल में राष्ट्र की अवधारणा बहुत मजबूत थी। राजा प्रजा के बीच में से चुना जाता था,और प्रजा चाहती थी कि उसे स्थिर शासन मिले। इस सूक्त में दो पंक्तियाँ ध्यान देने योग्य है। पहली पंक्ति है – मा त्वद् राष्ट्रमधि भ्रशत्। इसका अर्थ है – हे राजन्। तुम्हारे कारण राष्ट्र भ्रष्ट न हो। दूसरी पंक्ति है – राष्ट्रं धारयतां ध्रुवम्। इसका अर्थ है – हे राजन्। तुम राष्ट्र को सुस्थिर रखने में समर्थ बनो। इसके साथ ही इस सूक्त में वे मार्गदर्शक बिन्दु भी हैं, जिनका अनुसरण राष्ट्र के विकास में सहायक है और सत्ता पर बैठने वाले व्यक्ति के लिये अत्यन्त उपयोगी है। इन मंत्रों में न केवल राजा के चयन किये जाने की बात कही गई है, बल्कि राजा के लिए आवश्यक गुणों की भी चर्चा की गई है। इस सूक्त के छह मंत्रों का अर्थ नीचे दिया जा रहा है।

1. हे राजन्। मैं तुम्हें प्रजा के भीतर से लाया हूँ, तुम अब भी प्रजा के भीतर ही रहो। तुम्हारे राज्य में स्थिरता हो, राजधर्म से कभी विचलित न होओ। सारी प्रजा तुम्हें ही चाहे, तुम्हारे कारण राष्ट्र का कभी पतन न हो।
2. हे राजन्। अपने सिंहासन की रक्षा करो, अपने धर्म से कभी च्युत न होओ, पर्वत की तरह सुदृढ रहो, जितेन्द्रिय हो कर शासन करो, और राष्ट्र को धारण करो।
3. हे राजन्। तुम जितेन्द्रिय रहोगे, और संयमित तो प्रजा भी तुम्हारी भाँति होगी। तुम्हें अपने शासन के लिये सब ओर से शान्ति मिले, तुम्हें गुणीजनों का यथोचित परामर्श मिले।
4. हे राजन्। आकाश ध्रुव है, पृथ्वी ध्रुव है, ये पर्वत ध्रुव हैं, यह सम्पूर्ण संसार भी ध्रुव है, प्रजा का रञ्जन करने वाला राजा भी ध्रुव हो।
5. हे राजन्। तुम्हारे राष्ट्र में पाप शान्त हों, तुम्हारे राष्ट्र में ज्ञान का विस्तार हो, तुम्हारे राष्ट्र में शत्रु पराजित हों, तुम्हारे राष्ट्र में शुभ संकल्पों की सिद्धि हों।
6. हे राजन्। ध्रुव मन से ध्रुव संकल्प लो, प्रजा की सुख -समृद्धि की अचल व्यवस्था करो, यह सम्पूर्ण प्रजा केवल तुम्हारी हो और तुम केवल प्रजा के लिये बने रहो।
इसी प्रकार अन्यान्य शा�ों में भी राजा के कर्तव्यों का उल्लेख पाया जाता है। प्रजापति मनु ने राजा के सात गुण बताये हैं, और उन्हीं के अनुसार उसे माता, पिता, गुरू, रक्षक, अग्नि, कुबेर और यम की उपमा दी है। उसके प्रति जो मिथ्याभाव प्रदर्शित करता है, मनुष्य दूसरे जन्म में पशु-पक्षी की योनि में जाता है। मनु के अनुसार जो राजा प्रजा पर सदा कृपा रखता है, वह अपने राष्ट्र के लिये पिता के समान है। राजा दीन-दु:खियों की भी सुधि लेता और सबका पालन करता है, इसलिये वह माता के समान है। अपने और प्रजा के अप्रियजनों को वह जलाता रहता है; अत: अग्नि के समान है और दुष्टों का दमन करके उन्हें संयम में रखता है; इसलिये यम कहा गया है। प्रियजनेां को खुले हाथ धन लुटाता है और उनकी कामना पूरी करता है, इसलिये कुबेर के समान है। धर्म का उपदेश करने के कारण गुरू और सबका संरक्षण करनेके कारण रक्षक है। जो राजा अपने गुणों से नगर और जनपद के लोगों को प्रसन्न रखता है, उसका राज्य कभी डावांडोल नहीं होता क्योंकि वह स्वयं धर्म का निरंतर पालन करता रहता है।
प्राचीन भारतीय राजनीतिक आचार्यों में एक प्रमुख नाम है राजर्षि मनु। मनु ने अपने स्मृति ग्रंथ के सातवें अध्याय में राज्य के सुरक्षासंबंधी कर्तव्यों का विशद वर्णन किया है। उनका वह वर्णन आज भी प्रासंगिक है और राज्य के लिए अनुकरणीय है। आंतरिक सुरक्षा के लिए सभी प्राचीन भारतीय राजनीतिक आचार्यों ने दंड का विधान किया है और बाह्य सुरक्षा को विदेश नीति के अंदर गिना है। इसप्रकार भारतीय राजनीतिक शास्त्रों में सुरक्षा का व्यापक और समग्र विचार प्राप्त होता है।
मनुस्मृति 7/14 में इसका उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि राजा के लिए प्रारंभ में ही ईश्वर ने सभी प्राणियों की सुरक्षा करने वाले ब्रह्मतेजोमय तथा धर्मात्मज यानी धर्म से उत्पन्न दंड की रचना की। इस विधान में ब्रह्मतेजोमय तथा धर्मात्मज शब्दों का विशेष महत्त्व है। ब्रह्मतेजोमय का तात्पर्य है कि दंड को ब्रह्मतेज से संपन्न होना चाहिए। ब्रह्मतेज का शास्त्रीय अर्थ है सत्यपालन, तप आदि आंतरिक धर्मों से संपन्न होना। दंडधारक राजा को सत्यनिष्ठा से दंड का प्रयोग करना है। धर्मात्मज का तात्पर्य है कि दंड को धर्म के पालन में ही प्रयुक्त करना है, अन्यथा नहीं। राजनीति में धर्म धृति:क्षमा दमोस्स्तेयं तक सीमित नहीं है। राजनीति में धर्म का अभिप्राय आज की भाषा में कानून से है। राजा को कानून का पालन स्वयं भी करना है और अन्यों से भी करवाना है। इसके लिए उसे दंड देने का अधिकार प्रदान किया गया है।

इसका विस्तार से विवेचन करते हुए मनु 7/65 में कहते हैं कि एक सचिव के अधिकार में दण्ड देने का अधिकार रखना चाहिए और दण्ड के अन्तर्गत राज्य में अनुशासन और कानून की स्थापना का अधिकार रखना चाहिए, राजा के अधिकार में कोश और राष्ट्र का दायित्व होना चाहिए और दूत के अधीन किसी से सन्धि करना और न करना, अथवा विरोध करना आदि नीति धारण का दायित्व रखना चाहिए। इस प्रकार मनु सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए एक समग्र विधान प्रस्तुत करते हैं जिसमें नागरिकों की आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार की सुरक्षा का ध्यान रखा गया है। मनु पहले बाह्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने का वर्णन करते हैं। उन्होंने बाह्य सुरक्षा यानी शत्रु देशों के आक्रमण से सुरक्षा के लिए दूत नियुक्त करने का विधान है। मनु के दूत केवल संदेशवाहक नहीं हैं और न ही आज के राजदूतों की भांति केवल व्यवस्थापक ही हैं। वे वास्तव में कुशल राजनीतिक, कूटनीतिक तथा विदेशनीति के माहिर लोग हैं जो पूरी बाह्य सुरक्षा को सुनिश्चित करते हैं।

दूत के कार्यों की गणना करते हुए मनु 7/66 में कहा गया है – दूत ही वह व्यक्ति होता है जो शत्रु और अपने राजा का और अनेक राजाओं का मेल करा देता हैं और मिले हुए शत्रुओं में फूट भी डाल देता है। दूत वह काम कर देता है जिससे शत्रुओं के लोगों में भी फूट पड़ जाती है। मनु के इस विधान का विस्तार आचार्य चाणक्य ने अपने ग्रंथ कौटिलीय अर्थशास्त्र में किया है वे लिखते हैं – अपने राजा का सन्देश दूसरे राजा के पास ले जाना और उसको लाना, सन्धिभाव को बनाये रखना, अपने राजा के प्रताप को बनाना, अधिक से अधिक मित्र बनाना, शत्रु के पक्ष के पुरूषों को फोडऩा, शत्रु के मित्रों को उससे विमुख करना, अपने गुप्तचरों अथवा सैनिकों को आपत्ति से पूर्व निकाल लाना, शत्रु के बांधवों और रत्न आदि का अपहरण, शत्रुदेश में कार्यरत अपने गुप्तचरों के कार्य का निरीक्षण करना, समय पडऩे पर पराक्रम दिखाना, बन्धक रखे शत्रुबान्धवों को शर्त के आधार पर छोडऩा, दोनों राजाओं की भेंट आदि कराना दूत के कार्य है।

बाह्य तथा आंतरिक दोनों ही प्रकार की सुरक्षा में दूत के बाद दूर्ग का विशेष महत्त्व बताया गया है। दूर्ग को हम आधुनिक भाषा में पुलिस चौकी, थाने, सीमा पर स्थित सेना चौकी, बंकर आदि समझ सकते हैं। कुल मिला कर लोगों की सुरक्षा के लिए सेना को नियुक्त करने के स्थान को दूर्ग कहा गया है। पुलिस, अर्धसैनिक बल, केंद्रीय सुरक्षा बल, सीमा सुरक्षा बल आदि सभी सेना में ही शामिल हैं। आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्था में सेना के विविध रूप बनाए गए हैं। प्राचीन काल में भी प्रशासनिक सुविधा के लिए ऐसे अनेक स्वरूप बनाए गए थे। मनुस्मृति में लिखा है कि दूर्ग यानी कि पुलिस और सेना की चौकियां तथा थाने दुर्भेद्य होने चाहिए। इतना ही नहीं, मनु यह भी कहते हैं कि दुर्गम स्थानों पर भी दूर्गों का निर्माण किया जाना चाहिए – धन्वदुर्ग मरुस्थल में बना किला जहां मरुभूमि के कारण जाना दुर्गम हो महीदुर्ग पृथिवी के अन्दर तहखाने या गुफा के रूप में बना किला या मिट्टी की बड़ी बड़ी मेढ़ों से घिरा हुआ जलदुर्ग जिसके चारों ओर पानी हो अथवा वक्षदुर्गं जो घने वक्षों के बन से घिरा हो अथवा गिरिदुर्ग पहाड़ के ऊपर बनाया या पहाड़ों से घिरा किला बनाकर और उसका आश्रय करके अपने निवास में रहे (मनु 7/70)। राजा के आवास के लिए पहाड़ पर बने दूर्ग अधिक सुरक्षित बताए गए हैं। पहाड़ों पर चढ़ाई करना सर्वाधिक कठिन होता है। इसलिए हम पाते हैं कि सभी प्राचीन किले किसी न किसी पर्वत की चोटी पर ही बनाए गए हैं और वे बहुत ही दुर्भेद्य रहे हैं। मनु कहते हैं कि किले के परकोटे में स्थित एक धनुर्धारी योद्धा बाहर स्थित सौ योद्धाओं से युद्ध कर सकता है, परकोटे में स्थित सौ योद्धा बाहर स्थित दस सहस्त्र योद्धाओं से युद्ध कर सकते है इस कारण से दुर्ग बनाया जाता है (मनु 7/74)।
इसके बाद मनु ने दूर्गों को सभी प्रकार के संसाधनों से सज्जित रखने का भी निर्देश दिया है। वे कहते हैं – वह दुर्ग शास्त्रास्त्रों, धन-धान्यों, वाहनों, वेद शास्त्र अध्यापकों, ऋत्विज आदि ब्राह्मण विद्वानों, कारीगरों, नाना प्रकार के यन्त्रों, चारा-घास और जल आदि से सम्पन्न अर्थात परिपूर्ण हो। यह तो सभी समझते हैं कि सेना और पुलिस यदि हथियार, वाहन आदि संसाधनों से संपन्न नहीं होगी तो वह नागरिकों और सीमा की सुरक्षा कैसे कर सकेगी? परंतु यहाँ यह ध्यान देने की बात यह है कि मनु सेना और पुलिस को विद्वानों को भी साथ रखने का निर्देश देते हैं ताकि वे उसकी कार्यवाहियों को धर्मानुसार स्थित रखें। क्या हम इसे मानवाधिकारों की रक्षा के रूप में नहीं देख सकते हैं? वास्तव में धर्म एक प्रकार के मानवाधिकार ही हैं।

मनु कहते हैं कि राजा सदैव न्यायानुसार दण्ड का प्रयोग करने में तत्पर रहे, सदैव युद्ध में पराक्रम दिखलाने के लिए तैयार रहे, सदैव राज्य के गोपनीय कार्यों को गुप्त रखे, सदैव शत्रु के छिद्रों-कमियों को खोजना रहे और उन त्रुटियों को पाकर अवसर मिलते ही अपने राज्यहित को पूर्ण कर ले (मनु 7/102)। इसके बाद वे कहते हैं – राजा यह सावधानी रखे कि कोई शत्रु उसके छिद्र अर्थात् कमियों को न जान सके किन्तु स्वयं शत्रु राजा के छिद्रों को जानने का प्रयत्न करे, जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है वैसे शत्रु राजा से अपनी कमियों को छिपाकर रखे और अपनी रक्षा करे (मनु 7/105)। मनु के इस निर्देश को देखें तो पिछले 70 वर्षों के इतिहास में भारतीय राजा यानी सरकारें इसमें पूरी तरह विफल होती नजर आती हैं। यदि 1965, 1971 और कारगिल की लड़ाई को छोड़ दें तो देश की सरकारें हमेशा पराक्रम दिखाने से पीछे हटती रही हैं, दंड के प्रयोग में असफल रही हैं, गोपनीय कार्य उजागर होते रहे हैं और शत्रुओं की कमियों को उजागर करने की बजाय अपनी कमजोरियों को ही उजागर करती रही है। यही कारण है कि आज भी देश की लाखों वर्ग किलोमीटर जमीन शत्रुओं के कब्जे में हैं।

इसके बाद मनु बताते हैं कि रक्षात्मक नीति की बजाय हमेशा आक्रामक नीति से ही राज्य की रक्षा की जा सकती है। वे कहते हैं – जैसे बगुला चुपचाप खड़ा रहकर मछली को ताकता है और अवसर लगते ही उसको झपट लेता है, उसी प्रकार राजा चुपचाप रहकर शत्रुराजा पर आक्रमण करने का अवसर ताकता रहे और अवसर मिलते ही सिंह के समान पूरी शक्ति से आक्रमण कर दे और जैसे चीता रक्षित पशु को भी अवसर मिलते ही शीघ्रता से झपट लेता है, उसी प्रकार शत्रु को पकड़ ले और स्वयं यदि शत्रुओं के बीच फंस जाये तो खरगोश के समान उछल कर उनकी पकड़ से निकल जाये और अवसर मिलते ही फिर आक्रमण करे। पूर्वोक्त प्रकार से रहते हुए विजय की इच्छा रखने वाले राजा के जो शत्रु अथवा राज्य में बाधक जन हों उन सबको साम, दाम, भेद, दण्ड इन उपायों से वश में करें। मनु के इस निर्देश में न केवल सीमाओं की सुरक्षा की बात आ जाती है, बल्कि राज्य के अंतर्गत नक्सलियों तथा अलगाववादियों जैसे उपद्रवियों से निपटने की भी बात कह दी गई है।

मनु ने सीमा की सुरक्षा और विदेश नीति से संबंधित नीतियों का विस्तार से वर्णन किया है। वे शत्रु, उदासीन और मित्र राजाओं की पहचान करने का मापदंड बताते हैं और उनके साथ कैसा व्यवहार रखा जाए, इसका भी वर्णन करते हैं। वे लिखते हैं – अपने राज्य के समीपवर्ती राजा को और शत्रुराजा की सेवा सहायता करने वाले राजा को शत्रु समझे, शत्रु राजा से विपरीत आचरण रखने वाले अर्थात सेवा सहायता करने वाले राजा को और शत्रुराजा की सीमा से लगे उसके समीपवर्ती राजा को मित्र राजा माने इन दोनों से भिन्न किसी भी राजा को जो न सहायता करे और न ही विरोध करे, उसे उदासीन राजा समझना चाहिए (मनु 7/158)। मनु कहते हैं कि इन सभी प्रकार के राजाओं को साम, दाम, भेद, दण्ड उपायों आदि उपायों से अथवा सब उपायों का एक साथ प्रयोग करके तथा पराक्रम से और नीति से वश में रखे।

राजा बिना युद्ध के अपने राज्य में शान्त बैठे रहना अथवा युद्ध के अवसर पर शत्रु को घेरकर बैठ जाना, और शत्रु पर आक्रमण करने के लिए जाना तथा शत्रु राजा अथवा किसी अन्य राजा से मेल करना और शत्रु राजा से युद्ध करना, युद्ध के समय सेना के दो विभाग करके आक्रमण करना, निर्बल अवस्था में किसी बलवान राजा या पुरुष का आश्रय लेना लेना, युद्ध विषयक इन षड्गुणों को कार्यसिद्धि करने के लिए प्रयुक्त करना चाहिए।

इस प्रकार हम पाते हैं कि मनु ने विदेश नीति, युद्ध नीति आदि का गंभीरता के साथ विशद विवेचन किया है। मनु के इन निर्देशों को आधुनिक पदावलि में पढ़े जाने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए दूर्ग का अर्थ आज के समय में सेना की चौकियों तथा बंकरों और पुलिस थानों तथा चौकियों से समझ सकते हैं। इसी प्रकार हाथियों तथा रथों से विभिन्न प्रकार के टैंकों का ग्रहण किया जा सकता है। अश्व सेना से हम मोटरसाइकिल टुकड़ी समझ सकते हैं। इस प्रकार यदि हम मनु के निर्देशों को आधुनिक पदावलि में परिवर्तित करके समझेंगे तो संभवत: आज की सरकारों को भी रक्षा और विदेश नीतियों में काफी लाभ मिल सकेगा।
भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे पुरानी सामाजिक संस्कृति है। वायुपुराण में भरत की कहानी आती है जो कि आधुनिक इतिहासकारों की समझ से परे है। पिछले हजारों वर्षों में स्थानीय और विदेशियों द्वारा बड़ी संख्या में रचे गए साहित्य, पुरातात्विक प्रमाणों और मजबूत मौखिक तथा संपुष्ट मौखिक परंपराओं से हमारी प्राचीनता और हमारी सभ्यता की श्रेष्ठता साबित होती है। हमारी सभ्यता में आध्यात्मिकता से लेकर दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, कला, विज्ञान, तकनीकी, उद्योग, प्रशासन और यहाँ तक कि युद्ध और शांति तक मानव जीवन के हरेक आयामों का विकास हुआ था। यह सब कुछ केवल तभी संभव है, जब लंबे समय तक देश में शांति रही हो जोकि अपने लोगों और अपनी भौगोलिक सीमाओं की सुरक्षा के बिना संभव नहीं है।

हमारी सभ्यता का प्रारंभ मानव सभ्यता के इतिहास से होता है। आधुनिक इतिहासकारों द्वारा स्वीकृत सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक काल ईसा के हजारों वर्ष पुराने हैं। इसके बाद उपनिषदों का काल आता है, फिर रामायण और महाभारत और उसके बाद पांड्यन, मौर्य, अशोक, सातवाहन और अंतत: मगध का गुप्त साम्राज्य जैसे महान राज्य हुए। इस दौरान देश में विभिन्न कालखंडों में विभिन्न स्थानों पर महान गणतंत्र राज्यों का भी उदय हुआ।

भारतीय सभ्यता की सीमाएं इतिहास के विभिन्न कालखंडों में विशालतम अवस्था तक पहुँची और कई बार उनमें काफी संकुचन भी आया। उत्तर और दक्षिण की सीमाओं के लिए सामान्यत: हिमालय और महासागर का सीमांकन किया जाता था, इसकी पश्चिमी सीमाएं कैस्पियन सागर तक विस्तीर्ण रही हैं। पूरब में वर्तमान बांग्लादेश और म्यामांर तक हमारी सीमाएं रही हैं। इस प्रकार हमारी सांस्कृतिक सीमाएं पहली शताब्दी के अंत तक इरावाडी नदी जिसे स्थानीय भाषा में ऐरावाड्डी (इंद्र के ऐरावत हाथी के नाम पर) कहा जाता था और ऑक्सस नदी जो आज अमू दरिया के नाम से जानी जाती है, के बीच तक फैली हुई थीं। उत्तर में सागरमाथा जो कि आज माउंट एवरेस्ट के नाम से प्रसिद्ध है से लेकर श्रीलंका तक भारत ही था।

राजनीति संबंधी भारतीय ग्रंथों में राज्य और राष्ट्र शब्दों की चर्चा बहुतायत में पाई जाती है। इन्हीं शब्दों का बाद में आधुनिक विद्वानों ने स्टेट और नेशन में अनुवाद कर दिया जोकि पश्चिमी मूल के शब्द हैं। राज्य के लिए स्टेट शब्द का प्रयोग तो ठीक है, परंतु राष्ट्र का अनुवाद नेशन करना ठीक नहीं है।
✍🏻साभार : भारतीय धरोहर में प्रकाशित लेखों से संग्रहित

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