आत्मतत्व अचल और यह शरीर चल है

दुनिया की भागम भाग है, कोई गुरु के पास दौड़ रहा है ,कोई आश्रम जा रहा है, कोई तीर्थ जा रहा है ,कोई चार धामों की यात्रा के लिए भागम भाग कर रहा है, कोई 12 ज्योतिर्लिंगों की यात्रा के लिए दौड़ रहा है, कोई बिस्तर पर अशांत है, कोई अधिक धन के होते हुए भी परेशान एवं असंतुष्ट है, जिसको देखो – मन से व्यथित है ,अशांत है । सबके भीतर एक पीड़ा है, वेदना है ,अंदर ही अंदर करुण क्रंदन है ,किसी का मंथन ,किसी का चिंतन, किसी का मनन, तो किसी का भजन ,और किसी का नमन चल रहा है। सारा संसार चलायमान है सभी हैरान और परेशान हैं। आखिर क्यों ?

एक व्यक्ति है जो मृत्यु के नजदीक पहुंच रहा है ।मृत्यु की आगोश में जाना चाह रहा है। चिर निद्रा में जाना चाहता है ।परंतु विश्व के अटल सत्य को झुठलाने का प्रयत्न करता हुआ भी प्रतीत हो रहा है, परंतु अंत में मृत्यु की जीत होती है। क्योंकि मृत्यु ही अमर है। बाकी सब मर जाते हैं। जिस प्रकार सागर की तृप्ति अनेकानेक नदियों से नहीं होती ।मृत्यु की तृप्ति भी अनेक को आहार बनाने के पश्चात भी नहीं होती। इसलिए मृत्यु की संभावना से एक व्यक्ति व्यथित हो रहा है ।उसके व्यथित होने का कारण पूछा तो कहने लगा :-
तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे ।
मैं जिंदगी पर बहुत एतबार करता था।।

अर्थात वह व्यक्ति व्यथित है उसको वेदना हो रही है, अंत समय में। फिर पश्चाताप कर रहा है कि मैंने बचपन को खेल में खो दिया। जीवन का स्वर्णिम प्रहर सोने में बिता दिया। तीसरे प्रहर में व्यस्ततम रहा। हमेशा सोचता रहा कि अभी से ईश्वर भजन क्यों करें अभी तो धन जोड़ लूं, बच्चों के लिए अधिक से अधिक संपत्ति कर लूं।भजन तो वृद्धावस्था में कर लूंगा ,लेकिन एक दिन वृद्धावस्था भी आ गई । शरीर क्षीण हो गया। शरीर में नाना व्याधियां लग गईं , जो अब भजन में व्यवधान बन गईं ।जब मौत के नजदीक आ पहुंचा तब कहता है कि जिंदगी पर बहुत एतबार करता था। लेकिन अब कुछ पश्चाताप करने से हो नहीं सकता। इसलिए समय रहते चेतो।
आपके अंदर, आपके अंतःकरण में चेतन तत्व उपस्थित है ।जो चेतना देता रहता है कि चेत जा ,अगर अब भी नहीं चेता तो पछतायेगा ,परंतु हमने उसकी आवाज को सुना कहां ?
हमने उसकी चेतना को अर्थात चेतावनी को अनदेखा ,अनसुना करके तथा उसकी अवहेलना व उपेक्षा की तो अब क्या हो सकता है ।अब तो पुनः आवागमन के चक्कर में पड़ना ही है । मृत्यु को प्राप्त हो और जीवन धारण कर। चाहे भोग योनि में जा चाहे योग योनि में जा ,लेकिन योग योनि तो मिलेगी नहीं, क्योंकि समय से चेता ही नहीं था। अगर चेत जाता और आत्म तत्व, चेतन तत्व को पहचान लेता तो विश्व के सारे कार्य छोड़कर कहता कि :-

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव॥

अब जरा उसको देखो जो तीर्थ पर जा रहा है ,मैंने पूछा तीर्थ करने क्यों जा रहे हो तो बोले शांति की तलाश में। कैसी शांति ? किसकी शांति चाहते हो ?बोला कि मन की शांति चाहता हूं तो हमने कहा – सुखी, शांत और प्रसन्न रहने की औषधि खोजते फिर रहे हो तो सुनो अपने अंतःकरण में विवेक और संतोष को धारण करो, जिससे स्थाई सुख शांति और प्रसन्नता प्राप्त होगी।
महाकवि कालिदास ने सत्य कहा है- ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् हमारा शरीर धर्म(कर्म) का साधन है। शरीर स्वस्थ है तो हम अपने सामाजिक, नैतिक, धार्मिक, पारिवारिक दायित्वों को पूर्ण कर सकते हैं। शरीर के अस्वस्थ होने पर हमें किसी से बात करना या किसी भी प्रकार के शोर को सुनना नहीं चाहते बल्कि चिड़चिड़े हो जाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि हमें कुछ भी अच्छा नहीं लगता।
परमपिता परमात्मा को सर्वव्यापक समझो ।दुनिया के आडंबर से दूर होकर ईश्वर को पहचानो। वह आपके बहुत नजदीक रहता है। उसकी चरण शरण में जाओ, तो स्थाई शांति ,सुख और प्रसन्नता प्राप्त हो जाती। जिसके लिए भागम भाग कर रहा है वह तुझे प्राप्त हो जाती।
हमने पूछा कि चारों धाम की यात्रा करने वाले ,या 12 ज्योतिर्लिंगों की यात्रा करने वाले धर्म यात्री जरा यह तो बता दो कि धाम क्या है ? इतना तो वह जानता था कि धाम ईश्वर के स्थान को कहते हैं तो हमने पूछा कि अब वह जगह बता दो कि जहां ईश्वर नहीं है। क्या तुम ईश्वर को सर्वव्यापक मानते हो कहता है हां , फिर उसको कहां खोज रहे हैं ?
वह तो सर्वव्यापक है। इसका सीधा से तात्पर्य हुआ कि आप जानते हैं लेकिन मानते नहीं ,और इसीलिए अशांत हैं। जो वह सर्व व्याप्त है उसका कहीं पर कोई विशेष घर नहीं है । कुछ का धर्म नहीं , उसका तो घर सर्वत्र है , सर्वत्र धाम है तो व्यर्थ की धाम यात्रा से क्या लाभ ? लेकिन नादानी में , नासमझी में , अज्ञानता में भेड़ चाल में धाम यात्रा कर रहे हैं ।इसीलिए तो आपाधापी है ।इसलिए भागम भाग है। इसलिए पुण्य लाभ का झूठा अभिमान है। परंतु धाम यात्रा करने के पश्चात भी शांति, सुख और प्रसन्नता नहीं मिली ,क्योंकि धन संपदा जोड़ी बना करोड़ी। फिर धाम यात्रा की सुध आई। लेकिन अंतःकरण प्रदूषित रहा , क्योंकि जो धन जोड़ा था वह तो दूसरों के गले काटकर जोड़ा था ,उसमें शांति नहीं । घर पर माता-पिता भूखे प्यासे हैं ।वह मनुष्य माता-पिता को भोजन पानी कपड़ा , नहलाना न करके धाम यात्रा का योग लिए फिर रहा है,शांति की तलाश है।
लेकिन शांति सुख और प्रसन्नता ऐसे मिल नहीं सकती ,तो धाम यात्रा भी व्यर्थ रहे। हम ऋण लेकर संसार में पैदा होते हैं। मातृ ऋण, पितृ ऋण, आचार्य ऋण, संसार ऋण संतान का पत्नी का इन ऋणों से कभी उऋण होने की बात हमने सोची ही नहीं ,तो फिर शांति कैसे संभव है ? हमने कर्तव्य पथ को पहचाना नहीं ।हमने धर्म को माना नहीं ।हमने संसार में अपने आने का मर्म जाना ही नहीं तो शांति कैसे मिल सकती है। हमने पाप व पुण्य में अंतर किया ही नहीं ।हमने दूसरे के अधिकारों का हनन करके संपत्ति को जोड़ा, हमने अपने स्वार्थ में कितनी ही बार सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ा, लेकिन धर्म कर्म के मर्म को नहीं निचोड़ा।
इसलिए व्यर्थ की भागम भाग से पहले अपने मन में शांति लानी होगी। अपने मन को वश में करना होगा और मन को वश में कैसे कर सकते हैं ?
उपनिषद का ऋषि कहता है कि आत्मा के सबसे नजदीक चित होता है तो आत्मा का अधिक प्रभाव भी चित् पर ही रहता है। चित् के बाद बुद्धि और बुद्धि के बाद मन स्थित होता है , जैसे सूर्य के चारों ओर अपनी-अपनी कक्षाओं में ग्रह स्थित होते हैं उसी प्रकार आत्मा को सूर्य की कल्पना करो तो स्थिति स्वत:ही स्पष्ट हो जाएगी.। इसलिए क्योंकि मन से पहले चित् और बुद्धि आत्मा के नजदीक है ,और चित्त निर्मल है बुद्धि भी सदज्ञान विवेकी होने की प्रेरणा दे रही है। मन जब चौथे स्थान पर है जो अंधकार में सूर्य रूपी आत्मा का प्रकाश उस तक कम पहुंच रहा है, इसलिए मन को प्रकाशमय करने के लिए चित् और बुद्धि विवेक का प्रश्रय लेना पड़ेगा। इसलिए साधक पुरुष अपने विवेक के बल से मन को आसक्त नहीं होने देता। जबकि मन विषय भोगों में आसक्त होना चाहता है परंतु चित् से उठने वाले दोनों प्रकार के भावों को सद्भाव , सद्प्रवृत्ति , दुष्प्रवृत्ति में से केवल सद प्रवृत्ति को ही अधिमान जब देता है और ऐसे मनुष्य का जीवन निखरकर प्रखर हो जाता है ,लेकिन दुष्ट प्रवृत्ति दूर्भाव जब मनुष्य पर हावी हो जाता है तो मनुष्य मन के अधीन हो जाता है तो मनुष्य जिसको कि मननशील को कहा जाता है अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है। मनन नहीं करता है। बुद्धि के या विवेक बल से दुष्प्रवृत्ति पर काबू नहीं पाता है। जैसे छोटा बच्चा जब किसी हानिकारक वस्तु को पकड़ना चाहता है तो माँ उसे रोक देती है। ऐसे ही आत्मा, चित्, सद्बुद्धि, मन को रोकते हैं। जैसे सारथी घोड़े को रोकता है।
इसलिए छोड़ो व्यर्थ की भागम भाग को ।अपना आत्म ज्ञान पहचानो। अपने आत्म तत्व की आवाज को पहचानो। उसकी चेतना को जानो। आपको परमात्मा के दर्शन अपने अंदर ही हो जाएंगे। किसी मठ में ,किसी मंदिर में ,किसी मस्जिद में, किसी गिरजाघर में ,किसी तीर्थ स्थल में ,किसी धाम में ,किसी गुरुद्वारे में, किसी ज्योतिर्लिंग में आपको उसके दर्शन नहीं होंगे , यदि उस अविनाशी को खोजना है तो अपने अंतर्मन में ही खोजो ,तब शांति और प्रसन्नता का चारों ओर वास होगा।

पानी बिच मीन पियासी।
मोहि सुन सुन आवत हांसी।
आतम ज्ञान बिना सब सूना।
क्या मथुरा क्या काशी ।।
घर में वस्तु धरी नहीं खोजें।
बाहर खोजन जासी ।

मृ ग के नाभि माही कस्तूरी वन वन खोजत वासी।
कहे कबीर सुनो भाई साधो सहज मिले अविनाशी।।

अविनाशी को प्राप्त करना अत्यंत सहज है। वे लोग अज्ञानी हैं जो कहते हैं कि परमात्मा देखा नहीं ।कबीर दास जी ने हमको प्राप्ति का उपाय बता दिया ।हमें अपने विकार नष्ट करने होंगे ।तभी उसका दर्शन हो पाएगा। नहीं तो विकारों के घनघोर अंधकार में हमें घर में रखी हुई वस्तु भी दिखाई नहीं देती।
जैसे दर्पण पर जब मैल आ जाता है या धूल जम जाती है तो अपना चेहरा उसमें साफ दिखाई नहीं पड़ता।उसी प्रकार आत्मतत्व, आत्म चेतन तत्व का दर्शन दुर्लभ है । आत्मतत्व को और शरीर को अलग-अलग करके देखो तो पाओगे कि आत्म तत्व अचल तथा शरीर चल है और चल में अचल का निवास है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

Comment: