‘जय भीम और जय मीम’ कहने वालो ! डॉक्टर अंबेडकर को लज्जित मत करो

डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर एक कट्टर राष्ट्रवादी व्यक्तित्व का नाम है । जिन्होंने नेहरू और गांधी की दोगली नीतियों का विरोध करते हुए और लगभग उन्हें नकारते हुए कई अवसरों पर अपने स्पष्ट राष्ट्रवादी विचार रखे । वे चाहते थे कि भारतवर्ष का विभाजन यदि मजहब के नाम पर हो ही रहा है तो भविष्य की सारी समस्याओं के समाधान के लिए हिन्दू मुस्लिम आबादी का भी पूर्ण तबादला हो जाना चाहिए अर्थात पाकिस्तान में कोई हिन्दू ना बचे और हिन्दुस्तान में कोई मुस्लिम ना बचे । सचमुच डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर जी का यह चिन्तन नेहरू और गांधी जी के चिन्तन की अपेक्षा जहाँ पूर्णतया यथार्थवादी था , वहीं उनके राष्ट्रवादी होने का एक पुख्ता प्रमाण भी है।

राजनीति की दोगली विचारधारा से रहे दूर

उनके यथार्थ राष्ट्रवादी होने के चिन्तन से अभिभूत होकर इतिहासकार दुर्गादास ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ में पृष्ठ 236 पर लिखा है “ही वाज़ नेशनलिस्ट टू द कोर”। उन्होंने भारत में एक ऐसे राजनीतिज्ञ की भूमिका निभाई जो राजनीति में रहकर राजनीति की किसी प्रकार की तुष्टीकरण की या दोगली विचारधारा का कभी शिकार नहीं हुए । उन्होंने यदि दलित , शोषित और उपेक्षित समाज के कल्याण के लिए कभी कुछ लिखा ,पढ़ा या कहा तो यह भी उनकी राजनीति का एक ऐसा हिस्सा था जो दूषित मानसिकता की राजनीति से निरपेक्ष भाव रखता था।

उन्होंने ऐसा मानवता के उत्थान के लिए कहा , ना कि किसी राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए । जबकि उनके बाद कांग्रेसी सरकारें दलित , शोषित और उपेक्षित समाज के कल्याण को राजनीति की दूषित मानसिकता के साथ जोड़कर प्रस्तुत करने लगीं । उसी का परिणाम यह निकला कि दलित , शोषित और उपेक्षित समाज के लिए बनने वाली योजनाओं को लेकर भी राजनीति होने लगी । धीरे-धीरे इसी दूषित राजनीति ने डॉक्टर अंबेडकर जैसे राष्ट्रवादी और यथार्थवादी चिन्तन रखने वाले महान व्यक्तित्व को किसी वर्ग विशेष का नेता बना कर रख दिया। जबकि वह किसी वर्ग विशेष के नेता ना होकर सम्पूर्ण भारतवर्ष के नेता थे। क्योंकि उनके चिन्तन में समग्रता का भाव समाविष्ट था।
उन्होंने एक बार कहा था कि बकरियों की बलि चढ़ाई जाती है, शेरों की नहीं। उनके इस कथन के कई अर्थ है । जहाँ उन्होंने ऐसा कहकर दलित , शोषित व उपेक्षित समाज के लोगों को सबल बनने और सबल बनकर राष्ट्र के विकास में अपनी सार्थक भूमिका का निर्वाह करने के लिए ऐसा कहा , वहीं उन्होंने सम्पूर्ण हिन्दू समाज के लिए भी यह सन्देश दिया कि वह इतिहास के इस सत्य को स्वीकार करे कि जब – जब उसने विदेशी आक्रमणकारियों या शासकों के समक्ष अपने आपको किसी बनावटी अहिंसा या ऐसे ही सद्गुण को अपनाकर एक भेड़ बकरी के रूप में प्रस्तुत किया तो उन्हें भारी क्षति उठानी पड़ी । पर जब – जब जिस – जिस कालखंड में वह मजबूती के साथ विदेशी आक्रमणकारियों या शासकों के विरुद्ध उठ खड़े हुए तब – तब उसके बहुत ही अच्छे परिणाम मिले ।

हिन्दू समाज के महानायक थे अंबेडकर

उन्होंने भारत वर्ष के दलित , शोषित और उपेक्षित समाज के लोगों के कल्याण के लिए जीवन भर संघर्ष किया । इसका कारण यह भी था कि उन्होंने स्वयं ने एक जाति विशेष में पैदा होकर इस बात को निकटता से अनुभव किया था कि दलन , उपेक्षा और शोषण का व्यक्ति के मानस पर और उसकी आत्मा पर क्या प्रभाव पड़ता है ? वास्तव में वह भारत की उस वैदिक संस्कृति में आए विकारों को दूर करने का एक सफल और सार्थक प्रयास कर रहे थे , जो अपने मौलिक स्वरूप में सबको साथ लेकर चलने और सबका विकास करने में विश्वास रखती है । उन्होंने देश के दलित ,शोषित और उपेक्षित समाज के लोगों के कल्याण के लिए जो कुछ भी कहा या किया उस पर कौन व्यक्ति उनका विरोध कर रहा है या कितनी बड़ी ताकत उनका विरोध करने के लिए मैदान में उतर आई है ? – इस बात का कभी उन्होंने विचार नहीं किया। वास्तव में उनकी महानता इसी बात में छुपी हुई थी कि उन्होंने अपने इरादों को किसी ताकत की आंधी के प्रबल वेग के सामने भी झुकने नहीं दिया।
आज जो लोग डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर का नाम लेकर कहीं सेनाएं गठित कर रहे हैं तो कहीं राजनीतिक दल गठित कर रहे हैं और दलित , शोषित और उपेक्षित समाज के ठेकेदार बनकर हिन्दू समाज को बांटने की राजनीति में लगे हुए हैं , उन्हें डॉ अंबेडकर के व्यक्तित्व का या तो पूर्ण ज्ञान नहीं है या ज्ञान होकर भी वह उनके व्यक्तित्व के उस महान गुण की उपेक्षा करने में लगे हैं , जिसके कारण वह समग्र हिन्दू समाज के और भारतवर्ष के महान नायक थे । ऐसे लोगों को यह ज्ञात होना चाहिए कि जब सन 1932 में भारतवर्ष की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने दलित समाज के लोगों के लिए अलग से मतदाता सूची बनाने का निर्णय लिया तो डॉक्टर अंबेडकर जैसे राष्ट्रवादी व्यक्ति को यह समझने में तनिक भी देर नहीं लगी कि इससे हिन्दू समाज का बंटवारा होना तय है । जिसका लाभ इस्लाम और ईसाइयत मिलकर उठाएंगे । वे नहीं चाहते थे कि किसी भी दृष्टिकोण से हिन्दू समाज दुर्बल हो ।
यही कारण था कि वह अंग्रेजों की इस कुटिल नीति के विरोध में मैदान में उतर आए। यह कितनी बड़ी बात है कि डॉक्टर अंबेडकर हिन्दू समाज की जिस ब्राह्मणवादी व्यवस्था से दुखी और त्रस्त थे वह उसी हिन्दू समाज के भीतर रहकर अपने समाज के लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ना उचित समझते थे । पर किसी भी दृष्टिकोण से हिन्दू समाज को दुर्बल कर मां भारती को क्षति पहुंचाना उचित नहीं मानते थे । सचमुच उनके नाम पर राजनीति करने वाले आज के तथाकथित अंबेडकरवादियों को इस बात पर निश्चय ही चिन्तन करना चाहिए ।

सनातन के पोषक थे अंबेडकर

डॉक्टर अंबेडकर ने ब्रिटिश सरकार की उपरोक्त कुटिल नीति का विरोध करने के लिए मदन मोहन मालवीय और गांधी जी से मिलकर समझौता किया जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। उनके इस प्रकार के आचरण और व्यवहार से पता चलता है कि डॉक्टर अंबेडकर उस सामाजिक व्यवस्था के विरोधी थे जो किसी वर्ग विशेष को जाति के नाम पर उपेक्षित करती थी । इसके विपरीत वह इस बात के समर्थक थे कि कोई भी व्यक्ति जन्मना दलित और शोषित पैदा नहीं होता । वास्तव में वैदिक संस्कृति के मानवीय मूल्य और सांस्कृतिक आदर्श भी इसी विचार पर टिके हुए हैं कि समाज में ऐसी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए कि किसी व्यक्ति को अपने आत्मविकास के अवसर उपलब्ध ही न होने पाएं । डॉ.अंबेडकर सनातन के इस शाश्वत मूल्य को अपनाकर उसे हवा और पानी देकर पुष्पित और पल्लवित करने के समर्थक थे। वह शाखाओं को तोड़ना नहीं चाहते थे , बल्कि सनातन के विराट वृक्ष का एक अंग बनकर जीवित रहना चाहते थे । वह समाज व संसार को यह संदेश देना चाहते थे कि सनातन के सांस्कृतिक मूल्यों से ही मानवता की रक्षा हो सकती है । याद रहे कि उन्होंने बौद्ध धर्म को सनातन का ही एक अंग समझ कर उसे स्वीकार किया था।
डॉ. अंबेडकर के विचारों को लेकर जिन लोगों ने राजनीति करनी आरम्भ की उन्होंने सनातन को गाली देना अपना शौक बना लिया। सनातन का अपमान करना उन्होंने अपनी राजनीति का एक अनिवार्य अंग घोषित किया । मुस्लिमों या अंग्रेजों के शासनकाल में हुए हिन्दू जाति के विनाश पर कोई शोध न करके या उस पर प्रहार न करके केवल और केवल सनातन संस्कृति को इस बात के लिए कोसना आरम्भ किया कि भारत की सामाजिक विसंगतियों की सारी समस्याएं इस सनातन संस्कृति में ही छुपी हुई हैं । जबकि होना यह चाहिए था कि सनातन संस्कृति में आए किसी भी प्रकार के दोषों या विकारों को दूर करने के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं के रूप में सुधारक चिकित्सक तैयार किये जाते , जो समाज को यह बताते कि अमुक – अमुक दोषों या विकारों को दूर करो और सब एक साथ एक स्वर से एक दिशा में आगे बढ़ो।

दलितों के उद्धारक डॉक्टर अंबेडकर

सन् 1927 में डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू समाज में प्रचलित छुआछूत की भावना को समाप्त करने के लिए एक आंदोलन चलाने का निर्णय लिया । उन्होंने छुआछूत की भावना को सामाजिक अभिशाप घोषित किया । जो लोग इस प्रकार की अमानवीय सोच में विश्वास रखते थे उनको एक योद्धा की भांति ललकारा । उन्होंने मन्दिरों में दलितों के प्रवेश पर लगी रोक को हटाने के लिए संघर्ष किया और जिन स्थानों पर पहुंचकर दलित समाज के लोग पानी तक नहीं पी सकते थे उन पर उनके पहुंचने के लिए आन्दोलन किया।
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर एक ऐसे समाज की परिकल्पना करते थे जो सभी लोगों के लिए विकास के समान अवसर उपलब्ध कराने में विश्वास रखता हो। वह चाहते थे कि लोग स्वाभाविक रूप से एक दूसरे के अधिकारों का सम्मान करना आरम्भ करें। वास्तव में उनका यह चिन्तन वेद के चिन्तन के अनुकूल था । जिसमें मनुष्य मनुष्य बन कर दिव्यता के विचारों में स्वयं को ढाल कर एक दूसरे का सहायक होकर वेद के संगठन सूक्त को अपने भीतर धारण कर चलने में विश्वास रखता है। वैदिक संस्कृति में वर्ण व्यवस्था ना तो किसी जाति की समर्थक है और ना ही जातिवाद को बढ़ावा देने वाली व्यवस्था है। उसमें व्यक्ति के कौशल और व्यक्तित्व के गुणों का सम्मान करते हुए उसे सम्मान पूर्ण जीवन जीने का अवसर प्रदान किया जाता है। इसी बात को देश , काल और परिस्थिति के अनुसार डॉ अंबेडकर वर्ग विहीन समाज की संज्ञा दे रहे थे । अच्छी बात होती कि डॉक्टर अंबेडकर के वर्गविहीन समाज के सपने को वेद की वर्ण – व्यवस्था के अनुकूल सिद्ध किया जाता और यह बताया जाता कि वर्ण व्यवस्था में ना तो कोई जातिवाद है , ना जाति है , ना जातिसूचक संबोधन है और ना ही किसी प्रकार की छुआछूत की भावना है।

डॉक्टर अंबेडकर का वर्णविहीन समाज

डॉ. आंबेडकर का सपना था कि समाज को श्रेणीविहीन और वर्णविहीन करना होगा । जबकि आज उनका नाम लेकर राजनीति करने वाले लोग किसी वर्ग विशेष की राजनीति करते हैं और अपने मंचों से खड़े होकर हिंदू समाज की शेष जातियों को गाली देते हैं । यदि उनकी इस प्रकार की दूषित मानसिकता और राजनीति को डॉ आंबेडकर की आत्मा कहीं से देखती होगी तो निश्चय ही बहुत दुखी होती होगी , क्योंकि उनका सपना ऐसा नहीं था ।
वास्तव में डॉक्टर अंबेडकर ने जिस समय मानवता के विरुद्ध जाकर अस्पृश्यता के आधार पर किसी वर्ग विशेष के साथ हो रहे अपराधों को चुनौती दी , उस समय उनका यह कार्य बहुत ही साहसिक था । यह वह काल था जब विद्यालयों में दलित वर्ग के बच्चों को अन्य विद्यार्थियों के साथ न बैठाकर अलग बैठाया जाता था । हिंदू समाज में अछूतों , हरिजनों और दलितों के साथ घोर अन्याय होते थे । उनकी सामाजिक अवस्था बहुत ही दयनीय थी और लोग उनसे एक गुलाम की भान्ति बेगार कराने का काम लेते थे । डॉ आंबेडकर जहां देश की आजादी की बात करते थे , वहीं वे समाज में देश के भीतर ही छुआछूत और ऊंच-नीच के रूप में फैली इस “ब्लड कैंसर” जैसी बीमारी को भी दूर करने का उपचार कर रहे थे । माना कि उनसे पहले महर्षि दयानन्द जैसे कई समाज सुधारक इस क्षेत्र में महान कार्य करने में सफल रहे थे , परन्तु राजनीति के क्षेत्र में समाज सुधारक होकर कार्य करना डॉ. अंबेडकर का एक निराला गुण था ।
वह गूंगे लोगों की आवाज , साधनहीन लोगों के साधन और बलहीन लोगों के बल बनकर प्रकट हुए।
आज के राजनीतिज्ञों को भी उनके व्यक्तित्व के इस महान गुण से शिक्षा लेनी चाहिए । विशेष रुप से उन लोगों को जो उनके नाम पर राजनीति करते हैं और जिन्होंने दलित , शोषित , उपेक्षित लोगों की भी जातियां बना दी हैं । जातियों के नाम से ही वे यह देखते हैं कि अमुक – अमुक जाति में ही दलित , शोषित और उपेक्षित लोग पाए जाते हैं । जबकि उनका चिन्तन व्यापक होना चाहिए । क्योंकि दलित, शोषित और उपेक्षित लोग समाज के प्रत्येक वर्ग में मिल जाते हैं । यदि इनके चिन्तन में समग्रता समाविष्ट हो जाए और प्रत्येक वर्ग , जाति व समाज के लोगों के कल्याण के लिए अपनी नीतियां बनाने लगे तो देश का सचमुच कायाकल्प हो सकता है।

‘जय भीम – जय मीम’ वाले लोग लें शिक्षा

आज कुछ लोग हैं जो ‘जय भीम और जय मीम’ की बात करते हैं और अपने इस ओच्छे विचार के साथ हिंदू समाज को तोड़कर देश हितों के विरुद्ध जाकर कार्य कर रहे हैं। यदि उनको समय रहते सही उत्तर नहीं दिया गया तो वे कुछ समय में डॉ. अंबेडकर को उन राष्ट्र विरोधी शक्तियों के साथ भी खड़ा कर देंगे जिनका डॉ. अंबेडकर ने अपने जीवन काल में डट कर विरोध किया था। राष्ट्र हितों के विरुद्ध कार्य करने वाले ऐसे लोगों को यह पता होना चाहिए कि डॉ अम्बेडकर ने दलित समाज को जिन्ना की हिन्दू समाज को तोड़ने और राष्ट्रहित को दुर्बल करने की नीतियों के विरुद्ध सजग रहने का आवाहन किया था। उन्होंने कहा था कि जिन्ना को इसलिए अपना मत समझो कि वह हिन्दू विरोधी हैं। जब जरूरत होती है तब दलितों को हिन्दुओं से अलग मान लेते हैं और जब जरूरत नहीं तो उन्हें हिन्दुओं के साथ मान लेते हैं। मत समझो कि वे तुम्हारे मित्र हैं। उन पर विश्वास मत करो। अम्बेडकर ने विभाजन के उपरांत पाकिस्तान में रह गए दलितों से कहा था कि “जैसे भी हो सके भारत आ जाओ” जिसका निहितार्थ था धर्मान्तरित होना पड़ा हो फिर भी आ जाओ।
यह एक बहुत दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि पाकिस्तान में रह गए हमारे दलित भाई वहाँ पर सबसे पहले हिंदू से मुसलमान बना लिए गए । यदि ‘जय भीम और जय मीम’ – का नारा भारतवर्ष में सफल हुआ तो जो दलित भाई आज हिंदुओं को अपना ना मानकर उधर जाना चाहते हैं या उनके साथ लगकर हिंदू समाज को तोड़ने की या इसकी शक्ति को क्षीण करने की चेष्टा में लगे हुए हैं , उन्हें भी अपने बारे में समझ लेना चाहिए कि उनका हश्र भी पाकिस्तान में रह गए दलितों के समान ही होगा। स्पष्ट स्पष्ट है कि जय भीम और जय भीम कहा जाना राष्ट्रवादी चिंतन के धनी डॉक्टर अंबेडकर जी का अपमान करना है। अतः ऐसे लोगों को अंबेडकर जी की आत्मा की शांति के लिए अपनी हरकतों से बाज आना चाहिए । डॉअंबेडकर को अपमानित या लज्जित न करके राष्ट्र निर्माण में अपना सक्रिय योगदान देना चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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