भारत में आरक्षण ब्रिटिश राज की दस्यु नीति का परिणाम

 

लेखक डॉ. त्रिभुवन सिंह

400 वर्ष पूर्व जब ईस्ट इंडिया कंपनी के तथाकथित व्यापारी भारत आये तो वे भारत से सूती वस्त्र, छींटज़ के कपड़े, सिल्क के कपड़े आयातित करके ब्रिटेन के रईसों और आम नागरिकों को बेंचकर भारी मुनाफा कमाना शुरू किया।
ये वस्त्र इस कदर लोकप्रिय हुवे कि 1680 आते आते ब्रिटेन की एक मात्र वस्त्र निर्माण – ऊन के वस्त्र बनाने वाले उद्योग को भारी धक्का लगा और उस देश में रोजगार का संकट उतपन्न हो गया।
इस कारण ब्रिटेन में लोगो ने भारत से आयातित वस्त्रों का भारी विरोध किया और उनकी फैक्टरियों में आग लगा दी।
अंततः 1700 और 1720 में ब्रिटेन की संसद ने कैलिको एक्ट -1 और 2 नामक कानून बनाकर ब्रिटेन के लोगो को भारत से आयातित वस्त्रों को पहनना गैर कानूनी बना दिया।

1757 में यूरोपीय ईसाईयों ने बंगाल में सत्ता अपने हाँथ में लिया, तो उन्होंने मात्र जमीं पर टैक्स वसूलने की जिम्मेदारी ली, शासन व्यवस्था की नहीं। क्योंकि शासन में व्यवस्था बनाने में एक्सपेंडिचर भी आता है, और वे भूखे नँगे लुटेरे यहाँ खर्चने नही, लूटने आये थे। इसलिए टैक्स वसूलने के साथ साथ हर ब्रिटिश सर्वेन्ट व्यापार भी करता था, जिसको उन्होंने #प्राइवेट_बिज़नेस का सुन्दर सा नाम दिया। यानि हर ब्रिटिश सर्वेंट को ईस्ट इंडिया कंपनी से सीमित समय काल के लिये एक कॉन्ट्रैक्ट के तहत एक बंधी आय मिलती थी, लेकिन प्राइवेट बिज़नेस की खुली छूट थी ।

परिणाम स्वरुप उनका ध्यान प्राइवेट बिज़नस पर ज्यादा था, जिसमे कमाई ओहदे के अनुक्रम में नहीं , बल्कि आपके कमीनापन, चालाकी, हृदयहीनता, क्रूर चरित्र, और धोखा-धड़ी पर निर्भर करता था । परिणाम स्वरुप उनमें से अधिकतर धनी हो गए, उनसे कुछ कम संख्या में धनाढ्य हो गए, और कुछ तो धन से गंधाने लगे ( stinking rich हो गए) । और ये बने प्राइवेट बिज़नस से – हत्या बलात्कार डकैती, लूट, भारतीय उद्योग निर्माताओं से जबरन उनके उत्पाद आधे तीहे दाम पर छीनकर । कॉन्ट्रैक्ट करते थे कि एक साल में इतने का सूती वस्त्र और सिल्क के वस्त्र चाहिए, और बीच में ही कॉन्ट्रैक्ट तोड़कर उनसे उनका माल बिना मोल चुकाए कब्जा कर लेते थे।
अंततः भारतीय घरेलू उद्योग चरमरा कर बैठ गया, ये वही उद्योग था जिसके उत्पादों की लालच में वे सात समुन्दर पार से जान की बाजी लगाकर आते थे।क्योंकि वहां से आने वाले 20% सभ्य ईसाई रास्ते में ही जीसस को प्यारे हो जाते थे।

ईसाई मिशनरियों का धर्म परिवर्तन का एजेंडा अलग से साथ साथ चलता था।

इन अत्याचारों के खिलाफ 90 साल बाद 1857 की क्रांति होती है, और भारत की धरती गोरे ईसाईयों के खून से रक्त रंजित हो जाती है ।
हिन्दू मुस्लमान दोनों लड़े ।
मुस्लमान दीन के नाम, और हिन्दू देश के नाम ।

तब योजना बनी कि इनको बांटा कैसे जाय। मुसलमानों से वे पूर्व में भी निपट चुके थे, इसलिए जानते थे कि इनको मजहब की चटनी चटाकर , इनसे निबटा जा सकता है।
लेकिन हिंदुओं से निबटने की तरकीब खोजनी थी।

1857 के बाद इंटेरमीडिट पास जर्मन ईसाई मैक्समुलर, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के पैरोल पर था। और जिसने अपनी पुस्तक लिखने के बाद अपने नाम के आगे MA की डिग्री स्वतः लगा लिया ( सोनिया गांधी ने भी कोई MA इन इंग्लिश लिटरेचर की डिग्री पहले अपने चुनावी एफिडेविट में लगाया था)। 1900 में उसके मरने के बाद उसकी आत्मकथा को 1902 में पुनर्प्रकाशित करवाते समय मैक्समुलर की बीबी ने उसके नाम के आगे MA के साथ पीएचडी जोड़ दी।

अब वे फ़्रेडरिक मष्मील्लीण (Maxmillian) की जगह डॉ मैक्समुलर हो गए। और भारत के विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर लोग आज भी उनको संदर्भित करते हुए डॉ मैक्समुलर बोलते हैं।

इसी विद्वान पीएचडी संस्कृतज्ञ मैक्समुलर ने हल्ला मचाया किभारत में #आर्यन बाहर से नाचते गाते आये। आर्यन यानि तीन वर्ण – ब्राम्हण , क्षत्रिय , वैश्य, जिनको बाइबिल के सिद्धांतों को अमल में लाते हुए #सवर्ण कहा गया।

जाते जाते ये गिरे ईसाई लुटेरे तीन वर्ण को भारतीय संविधान में तीन उच्च (? Caste) में बदलकर संविधान सम्मत करवा गए।

आज तक किसी भी भारतीय विद्वान ने ये प्रश्न नही उठाया कि मैक्समुलर कभी भारत आया नहीं, तो उसने किस स्कूल से, किस गुरु से समस्कृत में इतनी महारत हासिल कर ली कि वेदों का अनुवाद करने की योग्यता हसिल कर ली।
हमारे यहाँ तो बड़े बड़े संस्कृतज्ञ भी वेदों का भाष्य और टीका लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

अभी हाल में जे एन यू के एक आर्थिक इतिहासकार का लेख छपा है – उषा पटनायक का।
उन्होंने दावा किया किया है कि ब्रिटिश दस्युवो ने भारत से 45 ट्रिलियन पौंड की लूट किया।
इसका प्रभाव क्या हुवा?
इस पर आज तक इतिहासकार और सामाजिक शास्त्री चुप हैं।
इसका प्रभाव यह हुवा कि जब ब्रिटिश दस्यु भारत आये थे तो भारत विश्व की 24% जीडीपी का निर्माता था।
और जब गए तो भारत की जीडीपी 1.8% से भी कम बची।
करोड़ो भारतीय बेरोजगार हुए।
उनमे से 1850 से 1900 के बीच लगभग 3 करोड़ से अधिक भारतीय भूंखमरी और संक्रामक रोगों की चपेट में आकर काल के गाल में समा गए।
उन संकामक रोगों के कारण भारत मे छुआछूत का प्रचलन हुवा, जिसको विभिन्न राजनैतिक और ईसाइयत में धर्म परिवर्तन के उद्देश्य से डॉ आंबेडकर की मदद से भारतीय सरकारी कागजों में छुआछूत को हिन्दू धर्म का अंग बताते हुए सरकारी विधान बनाया गया।
मेरा दावा है कि 1885 के पूर्व के किसी सरकारी या गैर सरकारी दस्तावेज में छुआछूत का जिक्र तक नही है। टेवेरनिर, वेरनिर, बुचनान आदि के किसी ग्रन्थ में इसका जिक्र क्यों नही है।
15% और 85% का राजनैतिक सामाजिक न्याय का ढोल पीटने वाले इसका उत्तर क्यों नही देते?

चल संपत्ति की लूट हो सकती है।
अचल संपत्ति कहाँ ले जाओगे।
भारत मे अभी भी हजारों वर्ष पूर्व निर्मित विशाल और भव्य मंदिर हैं।
अम्बेडकर जी बताते है कि शूद्र 3000 वर्षो से नीच है।
तो उनके अनुयायी बतावें कि इन भव्य मंदिरों का निर्माण किसने किया?
ब्राम्हणों ने, क्षत्रियों ने, या वैश्यों ने?

आज राजशिल्पी अनुषुचित जाति में आते हैं संविधान में।
उनके पुर्वजों द्वारा निर्मित यह भव्य इमारतें इस बात का प्रमाण है कि भारत मे हिन्दुओ का कास्ट के अनुसार बंटवारा और ऊंच नीच, ब्रिटिश दस्युवो की सरकारी नीति की देन है।

Riddle of modern Caste sysyem
भारत में ब्रिटिश राज में जनगणना 1872 से शुरू हुई ।1872 और 1881 मे जनगणना वर्ण और धर्म के आधार पर हुई । 1885 का Gazetteer of India भी हिन्दू समाज को वर्ण के आधार पर ही classify करता है ।1891 में एबबस्तों भारत की जनगणना पेशे को मुख्य आधार बनाकर करता है ।

लेकिन 1901 में लार्ड रिसले कास्ट ( Caste एक लैटिन शब्द Castas से लिया गया है ) के आधार पर जनगणना करवाता है जिसमे 1738 कास्ट और 42 नश्ल को आधारहीन तरीके से anthropology को आधार बनाकर करता है । 19वीं शताब्दी मे यूरोप के ईसाई लगभग पूरी दुनिया पर कब्जा कर चुके थे और और स्वाभाविक तौर पर उनके मन मे श्रेष्ठता का भाव जाग्रत हो गया था / यहीं से एक नए विज्ञान का जन्म होता है जिसका नाम था Race Science , जिसमे चमड़ी के रंग और शरीर की संरचना के आधार पर दुनिया के विभिन्न देशों के लोगों को विभिन्न नशलों मे बांटने का काम किया /

अब ये तरीका क्या था ? उसको सुनिए और समझिये जरा । ” उसने एक लॉ का ईजाद किया 6000 लोगों पर प्रयोग करके बंगाल में कि जिसकी नाक चौड़ी है उसकी सामाजिक हैसियत कम है नीची है और जिसकी नाक पतली या सुतवां है उसकी सामजिक हैसियत ऊँची है ।यही लार्ड Risley का unfailing law of caste है।इसी को आधार बना कर उसने 1901 की जनगणना की जो लिस्ट बनाई वो अल्फाबेटिकल न बनाकर ; नाक की चौड़ाई के आधार पर वर्गों की सामाजिक हैसियत तय की हुई social Hiearchy के आधार पर बनाई / यही लिस्ट आज भारत के संविधान की थाती है / इसी unfailing law के अनुसार चौड़ी नाक वाले लोग लिस्ट में नीचे हैं ।ये नीची जाति के लोग माने जाते हैं ।और पतली नाक वाले लोग लिस्ट में ऊपर हैं वो ऊँची जाति वाले लोग माने जाते हैं।

इस न fail होने वाली कनून के निर्माता लार्ड रिसले ने 1901 में जो जनगणना की लिस्ट सोशल higharchy के आधार पर तैयार की वही आज के मॉडर्न भारत के समाज के Caste System को एक्सप्लेन करता है ।1921 की जनगणना में depreesed class (यानि दलित समाज ) जैसे शब्दों को इस census में जगह मिली ।लेकिन depressed class को परिभाषित नहीं किया गया / 1935 मे इसी लिस्ट की सबसे निचले पायदान पर टंकित जातियों को एक अलग वर्ग मे डाला गाय जिसको शेडुले कहते है / उसी से बना शेडुल कास्ट /

अब इन दलित चिंतकों से आग्रह है कि इस रिसले स्मृति को व्याख्यसयित करने का कष्ट करें ।अब सवर्ण यानि जिनके चमड़ी का रंग गोरा है ( ये मेरी कल्पना है क्योंकि ईसाई विद्वानों ने वर्ण का अर्थ मात्र चमड़ी का रंग बताया है ) भी इस लिस्ट में ऊपर टंकित हैं ।वही हुये ऊंची जाति वाले / नीचे हुये असवर्ण यानि नीची जाति वाले / सवर्ण औए असवर्ण को किस संस्कृत ग्रंथ से उद्धृत क्या गया है ?ये किस मनु और नारद स्मृति में लिखा है ?ये तो रिसले स्मृति का व्याख्यान है ?
✍🏻डॉ त्रिभुवन सिंह

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