श्रेय , प्रेय , धर्म और संस्कृति

भावों के पंच गुण सर्वमान्य हैं ।पहला सरलता ,दूसरा समरसता, तीसरा मधुरता, चौथा कोमलता, पांचवां विशुद्धता।
जो साधक होते हैं वह बिना ध्वनि के संगीत सुनना पसंद करते हैं ।जिसका तात्पर्य होता है कि वे ऐसा संगीत सुनना पसंद करते हैं जिसमें कोई स्वर न हो अर्थात वे अनहद का संगीत सुनते हैं।
ऐसे भक्तों के हृदय से तरंगे निकलती हैं जो दूसरे के शरीर में प्रवेश करती हैं । दूसरों को प्रभावित करती हैं।वास्तव में यदि देखा जाए तो परमात्मा की तो कोई भाषा ही नहीं है , यह भाषा तो मनुष्य ने उत्पन्न की है। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि जब ईश्वर की कोई भाषा ही नहीं है तो उसे किस भाषा से पुकारा जाए ? किस भाषा में उसके साथ बातचीत करें , वार्तालाप करें ? उसकी भक्ति करें , आराधना करें ?
वास्तव में ईश्वर तो भाव को पहचानते हैं , जो साधक है वह इस बात को जानता है । वह इस बात के प्रति जागरूक है और सजग है और ऐसा व्यक्ति ही ईश्वर के करीब होता है । उसी व्यक्ति को ईश्वर ज्ञान की ऊंचाइयों तक पहुंचाने का पुरस्कार देते हैं।
ईश्वर की भक्ति के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं है , बल्कि जो अंतःकरण के भाव हैं , वे भाव ही बहुत महत्वपूर्ण होते हैं और ईश्वर भावों को ही समझ लेते हैं।भावों को समझने के अनुसार ही सद्भाव के लिए पुरस्कार तथा दुष्ट भाव के लिए दंड देते हैं। क्योंकि भाव ही तो वह है जो सबसे पहले मन में पैदा होते हैं , इसलिए मन , वचन व कर्म की तीनों की पवित्रता की आवश्यकता है।
सद्भाव से मोक्ष का रास्ता प्रशस्त होता है। दुर्भाव ही दुर्भाग्य भाग्य का मार्ग है। इसलिए भावों को सद्भाव ही रखें।

भक्ति धारा में एक स्थिति का नाम निसाधनता भी आता है अर्थात जहां किसी साधन की आवश्यकता नहीं रह जाती ।जहां सारे साधन अर्थहीन हो जाते हैं। भक्तों की तड़प बढ़ जाती है । वह हरि की कृपा का पात्र बन जाता है।केवल भाव ही भाव में। ऐसे भक्त के पास भगवान को स्वयं चल कर आना पड़ता है। क्योंकि भगवान की करुणा प्रस्फुटित होकर निसाधन भक्तों को अपनी आगोश में लेती है।
सृष्टिकर्ता की अनुपम रचना मनुष्य ही है ।इसमें अधिकांश लोग संसार की क्षणिक सुख देने वाली वस्तुओं को ही मानते हैं। हम धन, जीवन ,कीर्ति ,रोटी, पुत्र , रोजी , स्वास्थ्य आदि की याचना करते हैं। अभिलाषा अनंत होती हैं । जिनकी पूर्ति कर पाना संभव नहीं। सामान्यत: याचना अलौकिक वस्तुएं प्राप्त करने के लिए की जाती है। जबकि प्रार्थना एक पवित्र प्रक्रिया है । भक्ति प्रार्थना के माध्यम से होती है। जो मनुष्य के अंतः करण से सीधी जुड़ी होती है। इसलिए हृदय के तारों को झंकृत करती हुई भावों के माध्यम से प्रभु के पास सीधे पहुंचती है । प्रार्थना हृदय की पुकार है ।निश्चल हृदय से की गई प्रार्थना ही प्रभु को प्रिय लगती है। छल और कपट के भाव और भाषा परमात्मा को किंचित भी प्रभावित नहीं करती । अच्छा जीवन प्राप्त करने के लिए मनुष्य को किसी अनुष्ठान की आवश्यकता भी नहीं होती बल्कि उसके हृदय की पवित्रता व प्रभु के प्रति दृढ़ निष्ठा और प्रति क्षण मनुष्य को उसके उद्देश्य प्राप्ति तक पहुंचाने में सहायक होती है। मनुष्य के अंतर्मन से की गई शब्द हीन लेकिन भावभरी प्रार्थना ही अधिक महत्वपूर्ण होती है। प्रार्थना देवत्व और प्रसाद का स्वरूप है। मनुष्य की विनम्रता उसका महत्वपूर्ण साधन है।

श्रेव व प्रेय

वैदिक शिक्षा भारतवर्ष की रीढ़ की हड्डी रही है। वैदिक शिक्षा में जो वेदांत है उसमें श्रेय व प्रेय् को परिभाषित किया है। प्रेय का तात्पर्य होता है जो प्रिय है। श्रेय का तात्पर्य होता है प्राथमिकता के आधार पर चयन करना।
इस प्रकार दोनों में बहुत ही अंतर होता है । प्रेय में शारीरिक सुख, आशा, कामना, इच्छा जुड़ी रहती हैं। शारीरिक सुख और कामना के लिए सीमा उल्लंघन भी मनुष्य करता है। मनुष्य का चारित्रिक पतन होता है ।भ्रष्टाचार में लिप्त और नैतिक मूल्यों से गिरना सम्मिलित है।
जब कि श्रेय में नैतिक मूल्य होते हैं ।सदाचार होता है। शारीरिक सुख के स्थान पर मानव के कल्याण और समाज के कल्याण से संबंधित तत्व मौजूद रहते हैं। जो मनुष्य ऐसा करते हैं वह समाज में यश का अर्जन करते हैं ।
कठोपनिषद में समाज कल्याण की ऐसी भावना का प्रस्तुतीकरण नचिकेता ने यम के सम्मुख किया । जब यम को यह विश्वास हो गया कि नचिकेता इस रहस्यमयी ज्ञान को प्राप्त करने का सच्चा अधिकारी है तब उन्होंने नचिकेता को ज्ञान देते हुए बताया कि आत्मा अजर व अमर है ।आत्मा ही ब्रह्म है तथा उसकी कभी मृत्यु नहीं होती । केवल पंचमहाभूतों का बना शरीर रूपी ढांचा समय अनुसार नष्ट होता है। जिसे संसार में मृत्यु के नाम से पुकारा जाता है। कर्मों का भोग करने के लिए सूक्ष्म शरीर के साथ आत्मा जन्म व मृत्यु के चक्कर में पड़ी रहती है। लेकिन जो प्रेय तक सीमित होकर रह जाते हैं वह अपयश प्राप्त करते हैं।
प्रेम वास्तव में हृदय का विषय है ।।हृदय से जितना प्रेम करना चाहे करें , प्रेम कोई समझौता नहीं है। प्रेम पर कोई प्रतिबंध नहीं है । प्रेम तो एक भाव है जो दिल से निकलकर बहता है । प्रेम एक ऐसी नदी है जो कभी समाप्त नहीं होती और इसमें लाखों लोग अपने रास्ते को तलाश करते हैं । मोक्ष और मुक्ति को प्राप्त करते हैं , पर यह कभी थकती नहीं । प्रेम में थोड़े समय में ही आनंद की प्राप्ति होती। प्रेम तो परमात्मा की निकटता का बोध कराता है । जिसकी डोर को पकड़कर हम परमपिता तक पहुंच पाते हैं । जिसने इस प्रेम के मर्म को जान लिया उसने सब कुछ जान लिया।

धर्म और संस्कृति

धर्म क्या है ?

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।

पहिला लक्षण – सदा धैर्य रखना,
दूसरा – (क्षमा) जो कि निन्दा – स्तुति मान – अपमान, हानि – लाभ आदि दुःखों में भी सहनशील रहना;
तीसरा – (दम) मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर अधर्म से रोक देना अर्थात् अधर्म करने की इच्छा भी न उठे,
चैथा – चोरीत्याग अर्थात् बिना आज्ञा वा छल – कपट, विश्वास – घात वा किसी व्यवहार तथा वेदविरूद्ध उपदेश से पर – पदार्थ का ग्रहण करना, चोरी और इसको छोड देना साहुकारी कहाती है,
पांचवां – राग – द्वेष पक्षपात छोड़ के भीतर और जल, मृत्तिका, मार्जन आदि से बाहर की पवित्रता रखनी,
छठा – अधर्माचरणों से रोक के इन्द्रियों को धर्म ही में सदा चलाना,
सातवां – मादकद्रव्य बुद्धिनाशक अन्य पदार्थ, दुष्टों का संग, आलस्य, प्रमाद आदि को छोड़ के श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन, सत्पुरूषों का संग, योगाभ्यास से बुद्धि बढाना;
आठवां – (विद्या) पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त यथार्थ ज्ञान और उनसे यथायोग्य उपकार लेना; सत्य जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा वाणी में वैसा कर्म में वर्तना इससे विपरीत अविद्या है,
नववां – (सत्य) जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही समझना, वैसा ही बोलना, वैसा ही करना भी;
तथा दशवां – (अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़ के शान्त्यादि गुणों का ग्रहण करना धर्म का लक्षण है । (स० प्र० पंच्चम समु०)

इस 10 लक्षण युक्त पक्षपात रहित न्याय, धर्म का सेवन ,चारों आश्रम वाले करें ,और इसी वेदों के धर्म में ही आप चलना और दूसरों को समझाकर चलाना सन्यासियों का विशेष धर्म है। इसी प्रकार से धीरे-धीरे सब संग दोषों को छोड़ हर्ष , शोक आदि शब्दों से विमुक्त होकर सन्यासी ब्रह्म ही में अवस्थित होता है। सन्यासियों का मुख्य कर्म यही है कि सब ग्रहस्थ आदि आश्रमों को सब प्रकार के व्यवहारों का सत्य निश्चय कराकर अधर्म व्यवहारों से छुड़ा सब संशयों का छेदन कर सत्य धर्म युक्त व्यवहारों में प्रवृत्त कराया करें।
धर्म के इन 10 लक्षणों का पालन जब हम करते हैं तो यह हमारे संस्कार बन जाते हैं। यही संस्कार का अनुपालन ही संस्कृति कहलाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि संस्कृति में जीवन का मूल आधार धर्म ही है। अर्थात धर्म संस्कृति का प्राण है जो ऐसा विस्तृत व विशद है कि जिससे मनुष्य का और समाज का संपूर्ण जीवन आलोकित एवं प्रभावित होता है। क्योंकि युक्त धर्म के लक्षण हैं । धर्म कोई ऐसी वस्तु नहीं है , जिसको पकड़कर के हाथ में और दूसरे को दिया जा सके बल्कि यह धारणा में हैं।
यह तो विचारों में धारा जाता है ,धारण करने योग्य है अर्थात विचारधारा में हैं।
धर्म वास्तव में धारणा में होता है ग्रंथों में नहीं होता ग्रंथों में तो धर्म की तस्वीर अथवा धर्म की चर्चा होती है धर्म नहीं होता।ग्रंथों में तो महापुरुषों के अनुभव होते हैं , क्योंकि जितने भी ग्रंथ बने हैं। उनमें महापुरुषों के अनुभव हैं जैसे छह शास्त्र हैं। सांख्य शास्त्र में कपिल मुनि का अनुभव है ।योग शास्त्र में पतंजलि मुनि का अनुभव, न्यायशास्त्र में गौतम मुनि का अनुभव है। वैशेषिक में कणाद मुनि का अनुभव है ।पूर्व मीमांसा में जैमिनी मुनि का अनुभव है। उत्तर मीमांसा में वेद व्यास मुनि का अनुभव है।जैसे अंगूर किसमिस का कलेवर है वैसे ही ग्रंथ भी संत का स्वरूप है । संत ने हो तो ग्रंथ शाही मात्र है । अलग-अलग है अर्थात संतों की अनुभूति जब कागज पर लेखनी द्वारा उतर आती है तो ग्रंथ बन जाता है। इसलिए धर्म के बिना कर्म की सार्थकता नहीं है ।
मनुष्य का कर्म धर्म पर ही आधारित है। इसलिए धर्म अनुकूल आचरण करना संस्कृति की रक्षा करना होता है।
गीता’ कहती है कि इस आत्मा को संसार का कोई शस्त्र छेद नहीं सकता। न इसको अग्नि जला सकती है, और न इसे पानी गला सकता है, इसे वायु सुखा नहीं सकती।

अग्नि जला न पाएगा, शस्त्र करे नहीं छेद।
पानी गला न पाएगा, हो वायु को भी खेद।।

आत्मा के अमर होने के कारण ही उसके ऐसे गुण हैं। कई लोगों को संसार में यह भ्रान्ति बनी रही कि उन्होंने लोगों के गले काट दिये तो मानो उन्हें समाप्त कर दिया। उन्हें यह पता ही नहीं था कि तुमने तो भौतिक, स्थूल शरीर को समाप्त किया है। तुमने आत्मतत्व को समाप्त नहीं किया है, वह तो अमर है। संसार में जब उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी व्यवस्था का काल आया तो साम्राज्यवादी मनोवृत्ति के लोगों ने ऐसे अनगिन नरसंहार किये। जिनमें वह लोगों को मार-मार कर यह मानते रहे, कि तुमने इनकी आत्मा को भी मार दिया है। भारत अपनी गीता के ज्ञान का लाभ इस प्रकार के विदेशी आक्रमणकारियों के शासन काल में भी लेता रहा। यहां के लोग यह मानते थे कि संसार से चलते समय जैसी मति होती है-गति (अगला जन्म) वैसी ही होती है। हमारे लोग नरसंहार करने वाले लोगों के विनाश का संकल्प लेकर उनकी तलवार के सामने खड़े होते थे, इसलिए वे मर-कटकर भी अगला जन्म अपने पूर्व जन्म के संकल्प संस्कार के कारण विदेशियों के विनाश के लिए ही लेते रहे।
इस प्रकार ‘गीता’ ने भारत की और भारतीय धर्म की रक्षा उस समय भी की जब यह देश विदेशी सत्ताधीशों के अत्याचारों को झेल रहा था। कुछ लोगों ने उस समय भारतीय धर्म की अहिंसा का गलत अर्थ निकालते हुए भारत के लोगों को और भारत के धर्म को कायरता का जामा पहनाने का प्रयास किया, परन्तु उनका यह प्रयास सफल नहीं हो सका। इसका प्रमाण यह है कि यहां लोगों ने आत्मा की अमरता को और शरीर की नश्वरता को ध्यान में रखकर आत्म बलिदान देने में कभी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। सहर्ष बलिदान देने की भारत की अनोखी परम्परा है, और यह तभी सम्भव होता है जब किसी देश के लोग आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता में अटूट विश्वास रखते हों। कहने का अभिप्राय है कि गीता ने ही हमें देशहित और धर्म की रक्षार्थ सहर्ष बलिदान देने की परम्परा का बोध कराया। भारत यह जानता था कि आत्मा को छेदा नहीं जा सकता, जलाया नहीं जा सकता, गीला नहीं किया जा सकता, सुखाया नहीं जा सकता। यह नित्य है, स्थिर है, सनातन और अचल है। इसे इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। इसलिए यह अव्यक्त है। मन से ग्रहण न हो पाने के कारण यह अचिन्त्य है और सारे विकारों से रहित होने के कारण यह अविकार्य है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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