चित्त की वृत्तियों पर करना होगा संयम

 

सकाम कर्म करने वाला सदैव अपने लिए शुभ फल की इच्छा किया करता है ,और यह फल इच्छा पूर्ण होने पर वासना पैदा करता है। अर्थात बार-बार किसी कार्य को करने को वासना कहते हैं। वासना से फिर वही फल इच्छा उत्पन्न होती है ।यह चक्र बराबर इसी प्रकार से जन्म जन्मांतर से चला आता है और जब तक जीव की मुक्ति नहीं हो जाती तब तक इसका क्रम ऐसे ही चलता रहेगा । वैदिक मान्यतानुसार मोक्ष की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्ष होती है। इतनी अवधि के लिये जीवात्मा का जन्म व मरण से अवकाश रहता है तथा वह ईश्वर के सान्निध्य से पूर्ण आनन्द की अवस्था में रहता है।
मोक्ष की इतनी अवधि को व्यतीत करने के पश्चात जीव को फिर संसार में आना पड़ता है । कहने का अभिप्राय है कि मोक्ष की अवधि भी अनंत काल के लिए नहीं है । जिसे साधारणतया लोग ‘सदा के लिए ‘ कह दिया करते हैं । ‘सदा’ शब्द का प्रयोग बहुत सावधानीपूर्वक करना चाहिए । जिसका अर्थ कदापि अनंत काल से नहीं लेना चाहिए । मोक्ष की इस उस अवधि के बीतने पर फिर जीव संसार में आता है और संसार में रहने की इच्छा होने पर फिर उसी वासना के पुराने जाल में फंस जाता है । वासना के प्रभाव को रोकने के लिए चित्त की चंचलता का विनाश होना अथवा एकाग्र होना ही परम आवश्यक है।
एक विद्वान कामवासना के बारे में समझाते हुए कहते हैं कि आज आपकी जानकारी में काम-सुख ही सबसे बड़ा सुख है। आपकी काम-वासना के तीव्र होने का यही कारण है , है न ? यदि कोई आपसे कहता है कि ‘यह बुरी चीज है, इसे छोड़ दो।’ तो क्या वास्तव में आप इसे छोड़ पाएंगे ? परन्तु यदि आप इससे भी बड़ी चीज का स्वाद चख लें, तब यह अपने आप आपसे छूट जाएगी। फिर इसे छोड़ने  के लिए आपसे किसी को कुछ कहना नहीं पड़ेगा। इसके लिए आपको अपने जीवन का थोड़ा समय ऐसी दिशा में लगाना होगा, जिससे कि एक बड़ा आनंद आपके जीवन का अंग बन सके। अगर आपको जीवन में अपेक्षाकृत ज्यादा आनंदित करने वाली चीज मिल जाए, तो सपस है कि छोटे सुख की इच्छा अपने आप ही मिट जाएगी। सबसे अच्छी बात यह होगी, कि छोटे सुख की चाहत आपके प्रयास करने से नहीं मिटी, बल्कि रुचि कम हो जाने से आपने छोटे सुख को चाहना बंद कर दिया है।
ध्यान रहे कि चित्त की एकाग्रता की यह उच्चतम अवस्था हमें समाधि की सिद्धि प्राप्त कर लेने के बाद ही प्राप्त होती है जब मन एकाग्र हो जाता है अर्थात सब चंचलताओं को त्याग कर एक देश में टिकने लगता है तो वह वासना रहित होता है। तब उसके भीतर सकामता नहीं रहती ।बल्कि उसकी प्रवृतियां सकामता से शून्य होती हैं और व्यक्ति निष्काम हो जाता है।

निष्काम भाव और हमारा जीवन

निष्काम कर्म’ गीता की विश्व को सबसे उत्तम देन है। इसे समझ लेने से जीवन दर्शन को समझने में सहायता मिलना निश्चित है। निष्काम कर्म पर पूर्व में भी प्रकाश डाल चुके हैं। अब इस पर विशेष विचार करते हैं।
गीता के चौथे अध्याय में ही योगेश्वर श्रीकृष्णजी इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि जिस व्यक्ति के सभी कार्य, कामना अर्थात फलेच्छा के संकल्प से अर्थात दृढ़ भावना से रहित होते हैं अर्थात जिनमें फलासक्ति का अभाव होता है और जिसके कर्म ज्ञान रूपी अग्नि में भस्म हो गये हैं, उसे संसार के बुद्घिमान लोग पंडित कहते हैं।
योगेश्वर श्रीकृष्ण जी की मान्यता है कि कर्म के फल के प्रति व्यक्ति को आसक्ति को त्यागना ही होगा। यह ‘आसक्ति’ ही व्यक्ति पर आशिकी के राग का भूत चढ़ाती है। जिससे फिर द्वेषादि का वितण्डावाद उठ खड़ा होता है। संसार में आशिकी को चाहे कितना ही अच्छा माना जाए पर यह भी सत्य है कि आशिकों को ही यह संसार पीटता भी है। तब उन्हें परमात्मा ही क्यों छोडऩे लगा है ? लोग अपने बुरे कामों को यह कहकर छिपाने का प्रयास करते हैं कि यह मेरे निजी जीवन का अंग हैं, इन पर किसी को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है, परन्तु जब उनका यह ‘निजी जीवन’ सार्वजनिक होता है तो लोग उन पर थूकने लगते हैं। जिनका कर्म आशिकी का हो गया-आसक्ति पूर्ण हो गया, समझो उसने अपने पतन का रास्ता स्वयं ही पकड़ लिया है।
आजकल कई तथाकथित धर्मगुरू आशिकी के इसी रास्ते को अपनाकर जेलों की हवा खा रहे हैं। अपने निजी जीवन के पापों को बहुत देर तक उन्होंने छुपाया पर जब वे उजागर हुए तो उन्होंने धर्मगुरूओं को जेलों के भीतर ले जाकर पटक दिया।
श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि अर्जुन ! तुझे ज्ञान पूर्वक अपने कर्मों के बीज को ज्ञानरूपी अग्नि में भून देना चाहिए। फिर जैसे भुना हुआ चना उपजने योग्य नहीं रह पाता है, उनसे आसक्ति का राग समाप्त हो जाता है वैसे ही तेरे कर्म हो जाएंगे-जिनका कोई फल तुझे नहीं मिलेगा। पर ध्यान रख , यह एक बहुत बड़ी साधना है। तुझे उस साधना में पारंगत होना होगा। तू जितना आसक्ति विहीन साधक बनता जाएगा-उतना ही तू निष्काम कर्मी बनता जाएगा।
हमारे गायत्री मंत्र के पांच चरण हैं। पहले चरण में है ‘ओ३म्’ दूसरे में ‘भूर्भुव: स्व:।’ तीसरे में है-‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ चौथे में है-‘भर्गोदेवस्य धीमहि।’ और पांचवें में है ‘धियो योन: प्रचोदयात्।’ अब मनुष्य के पांच ही शत्रु हैं-काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ। वैदिक संस्कृति के विद्वानों का मानना है कि गायत्री के पांच चरणों का अर्थपूर्वक चिन्तन करने से इन पांच विकारों का शमन होता है। गायत्री के जप से इन पांचों को ज्ञानाग्नि में भून दिया जाता है। ‘ओ३म्’ की साधना से या अर्थपूर्वक चिन्तन से हमारे भीतर का अहंकार रूपी शत्रु पकड़ा जाता है और उसे हम ज्ञानाग्नि में भूनने में सफल हो जाते हैं। ‘भूभुर्व: स्व:’ के निरन्तर जप से हम ‘मोह’ को पटकने मेंं सफल होते हैं। ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ बोलने से या जपने से लोभ की समाप्ति होती है। ‘भर्गो देवस्य धीमहि’-बोलने से अर्थात उसके तेज स्वरूप का ध्यान करने से उसकी ज्ञानाग्नि में हमारा क्रोध नाम का शत्रु भून दिया जाता है या भुन जाता है। इसके पश्चात सबसे भयंकर शत्रु काम बचता है। इसका शमन ‘धियो योन: प्रचोदयात्’ अर्थात हमारी बुद्घियों को सन्मार्गगामिनी बन जाने से होता है। जब ये सारे विकार कोयले बनकर ढेर हो जाते हैं, तब हमारी तब हमारी विजय हो जाती है, हम एक विजयी योद्घा होते हैं।
निष्काम भाव इस महत्तत्व के भाव से मुक्त होना है। यह बहुत साधारण उदाहरण बताया पर स्वामी विवेकानंद गीता और योगदर्शन का स्वर निनादित करतेे हुए कहते हैं कि, “यदि निष्काम भाव से तुम सारे संसार को भी मार डालो, तो भी तुम्हें पाप नहीं पड़ेगा!”
असली चित्त सूक्ष्म शरीर का एक अंग है जो प्रत्येक व्यक्ति के साथ रहा करता है । चित्त स्मृति ,वासना और संस्कारों का भंडार है। चित्त का कार्य भिन्न-भिन्न संकल्पों – विकल्पों का उत्पन्न करना है। चित्त के एकाग्र करने से तप और समाधि से हमको सिद्धियां प्राप्त होती हैं।

साधना और सिद्धि

चित्त की सत्ता को चुनौती नहीं दी जा सकती , क्योंकि हमें दैनिक क्रिया-कलापों एवं सोच-विचारों में पग-पग पर अनुभव होता है कि हमें कोई अभौतिक सत्ता या संस्थान रोक रहा है , प्रभावित कर रहा है। यही संस्थान चित्त है , जिसकी वृत्तियां हमें प्रभावित कर रही हैं। इसके प्रभाव का ही हमें अनुभव हो पाता है , न कि आकार आदि का। अभौतिक चित्त का प्रभाव भी अभौतिक ही होता है , जो सदैव हमारे मनोजगत में ही सक्रिय रहता है , भौतिक उपकरणों द्वारा इसे जानने-पहचानने का प्रयत्न बचपना ही है। मानव भौतिक स्तर पर संपन्न है , उसके पास सुखोपभोग के अनेक साधन हैं , विलास के उपकरण हैं , लेकिन ‘ आत्मिक शांति नहीं ‘ है। आखिर वह शांति क्यों नहीं मिल पा रही ? इसका कारण यही है कि शांति बाहर नहीं मिलती , यदि हमारे भीतर वैभव और सुख-शांति का संचरण हो तभी वास्तविक शांति मिलेगी।
अब प्रश्न है कि सिद्धि कौन-कौन सी हैं ? पहली सिद्धि जन्म से प्राप्त होती है जैसे आपने पशुओं को पानी में तैरते हुए देखा है और पक्षियों को आकाश में उड़ते देखा है। यह सिद्धि उनको कोई सिखाता नहीं या वह कहीं किसी पाठशाला में सीखते नहीं या शिक्षा ग्रहण नहीं करते । इनको यह जन्म से मिलती है ।
दूसरी सिद्धि औषधि के द्वारा अनेक रोगों का दूर हो जाना शरीर को पुनः पूर्व स्थिति में ले आना भी सिद्धि ही होती है।
तीसरी सिद्धि मंत्रों के जप से प्राप्त होती है। चित्त की एकाग्रता आदि मंत्रों के जप से मिलती है । इसका तात्पर्य हुआ कि चित्त की एकाग्रता महत्वपूर्ण हुई ।
चौथी सिद्धि अपने जीवन को तपस्वी का जीवन बनाने से प्राप्त होती है ।और तप के द्वारा अशुद्धियों को दूर करके शरीर और इंद्रियों की सिद्धि प्राप्त की जाती है। पांचवी सिद्धि समाधि से प्राप्त होती है।
इन सबसे हमारे भीतरी जगत में व्याप्त सारी हलचल शांत हो जाती है । हम पूर्ण शांति का अनुभव करते हैं। जितना भर भी शोर भीतर मच रहा था वह सब ऐसे उड़ जाता है जैसे धूप में रखा कपूर कपूर उड़ जाता है। हमारे रोम रोम में नई ऊर्जा संचरित हो उठती है और हम अपने आपको भीतर से मजबूत व बलशाली अनुभव करने लगते हैं।
अब हम 25 महाभूतों का अध्ययन करते हैं। यह 25 महाभूत कौन-कौन से हैं पृथ्वी ,जल ,अग्नि ,वायु और आकाश की स्थूलता। ये ही पंचमहाभूत स्थूल हैं।
पृथ्वी का कठोर होना, जल का गीलापन और अग्नि की प्रचंडता या उष्णता वायु की गति और आकाश का अनंत होना जिसका कोई ओर छोर ना हो , यह उनके स्वरूप होते हैं। स्थूल भूतों की 5 तन्मात्राएं शब्द ,स्पर्श ,रूप ,रस और गंध हुआ करती हैं, जिनको सूक्ष्म महाभूत कहते हैं।
सत्व , रज और तम भेद से त्रिगुणात्मक पृथ्वी, इसी प्रकार और जल ,अग्नि और आकाश यह 5 अन्वय हुए। पांच भूतों का भोग, मोक्ष, रूप अर्थ वाला अर्थ वत्व होता है। इस प्रकार 25 रूप इन पंचमहाभूतों के हुए । इनके अतिरिक्त भूतों का भूतत्व और नहीं है ।इन 25 उपरोक्त रूपों में जब योगी संयम करता है तो उसका इन पंचभूतों पर अधिकार हो जाता है और अब यह उसके बंधन का कारण नहीं बन पाते। यही योग की ‘भूतजय स्थिति’ कही जाती है ।
उपरोक्त पंचमहाभूतों के अधिकार में आ जाने के पश्चात योगी को 10 सिद्धियां और भी प्राप्त हो जाती हैं । जो निम्न प्रकार हैं :–
१ अणिमा :– _देह को सूक्ष्म कर लेने की सिद्धि को अणिमा कहते हैं अर्थात इसमें देह को योगी छोटी कर लेता है । छोटी करके कहीं भी छुप सकता है। किसी की ओट ले सकता है।
२ लघिमा :– शरीर को हल्का कर देना लघिमा सिद्धि कहा जाता है जिससे योगी आकाश में उड़ सकता है।
कितने ही देवी-देवताओं को आप आकाश में उड़ते हुए देखते हैं ।ऐसे देवी देवता वास्तव में योगी होते हैं और उनको यह योग क्रिया आती है। इसमें आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नहीं है , अथवा भ्रमित होने की भी आवश्यकता नहीं है।
३ महिमा__शरीर को इच्छा अनुसार बढा सकना की प्रक्रिया को महिमा कहते हैं।
रामायण धारावाहिक को तनिक याद करो जिसमें हनुमान जी को हम कभी सूक्ष्म शरीर में देखते हैं। कभी उड़ता हुआ , हल्के शरीर में देखते हैं तो कभी उनको बड़े शरीर में देखते हैं। हनुमान जी एक योगी पुरुष थे । जिनको अपनी आवश्यकता के अनुसार और इच्छानुसार शरीर को छोटा बड़ा करने और हल्का करने की सिद्धि प्राप्त थी । वह समुद्र को छलांग लगाकर लंका नहीं गए थे , ना ही वह वानर थे ।बल्कि वह एक योगी पुरुष थे ।वह लघिमा सिद्धि के अनुसार शरीर को हल्का करके उड़ करके लंका में गए थे। इस पर रामायण को देखते समय यह दु:ख भी होता है कि हमारे प्राचीन योगियों के योगबल को उचित सम्मान नहीं मिल रहा है बल्कि अंधविश्वास को बढ़ावा मिल रहा है। टीवी पर चल रहे रामायण धारावाहिक को बनाने वाले से अपेक्षा की जाती है थी कि वास्तविकता को, सत्य को,योगियों के योग को और हमारे महायोगी और महापुरुषों को वास्तविक स्वरूप में प्रदर्शित करते। इससे विधर्मियों को हम पर हंसने का अवसर भी नहीं मिलता।
४ प्राप्ति___इच्छित पदार्थ को प्राप्त कर लेना। जिस पदार्थ की इच्छा हो उसको आकाश से प्राप्त कर लेना।
आपने कितने ही योगियों को देखा होगा कि जब वह आकाश की ओर अपने हाथ करते हैं तो वह अपनी इच्छा के अनुसार शस्त्र प्राप्त कर लेते हैं । यह सब योग के द्वारा संभव है । जो इनको प्राप्त करने वाले हैं वह सब योगी पुरुष थे। एक बात यह भी देखने की है कि जितने भी घातक और दूर तक मार करने वाले विनाशकारी हथियार प्राचीन काल में मिलते थे , वह सब ऋषि-मुनियों के पास मिलते थे । इसका कारण केवल यही है कि वह योग बल से इन परम विनाशकारी हथियारों को प्राप्त करते थे , परंतु उन्हें उसी पात्र व्यक्ति को ही सौंपते थे , जो इनका उपयोग किसी महाविनाशकारी राक्षस के विनाश के लिए करे और मानवता के विरुद्ध कभी न करें । उनके इस योग को मूढ़ और अज्ञानी लोग समझ नहीं पाए और इन्हीं को काल्पनिक देवी देवता बता कर पूजा पाठ कराकर अपनी दुकान चलानी प्रारंभ कर दी । यह भी दुख का विषय है।
उपरोक्त चारों सिद्धियां या विभूतियां पांच भूतों के स्थूल रूप में संयम करने से प्राप्त होती है।शंकर जी एक महायोगी थे जो आकाश में उड़ना जानते थे। अक्सर उनको आकाश में उड़ता हुआ अथवा बैठा हुआ दिखाया जाता है । यह सभी उनकी योगविद्या के कारण सम्भव हुआ था और हमारे द्वारा यह विश्वास किए जाने योग्य है। क्योंकि अब मनुष्यों में योगी नहीं रहे और यह क्रियाएं नहीं रहीं , इसलिए हमको इस प्रकार की सिद्धियां कपोल कल्पित अनुभव होती हैं , जबकि ये वास्तविकता है।
जैसे श्रीकृष्ण जी युद्ध में जब अपनी अंगुली पर सुदर्शन चक्र प्राप्त करना चाहते हैं तो अपनी इच्छा के अनुसार सुदर्शन चक्र प्राप्त कर लेते हैं और शत्रु का शर संधान करने में सफल होते हैं। यह उनको सिद्धि प्राप्त थी ,क्योंकि श्री कृष्ण जी एक कर्म योगी थे।
५ – प्राकाम्य_जब बिना रुकावट के सभी इच्छाएं योगी की पूरी होने लगती हो तो उस सिद्धि को प्राकाम्य सिद्धि कहते हैं।
६ – वशित्व_पंचमहाभूत और भौतिक पदार्थ को अपने वश में कर सकना वशित्व कहा जाता है।
भूतों के सूक्ष्म रूप में संयम करने से योगी को प्राप्त होता है।
७ – इशित्व__शरीर और अंतःकरण पर जब अधिकार हो जाता है तो यह विभूति योगी को प्राप्त हो जाती है।और यह विभूति अन्वय में संयम करने से प्राप्त होती जिस अनवाय का उल्लेख ऊपर किया गया है।
८ – यंत्र कामावसायित्व__जब योगी कोई भी संकल्प करे और वह पूर्ण हो जाए और ऐसी सिद्धि अर्थ वत्व में संयम करने से प्राप्त होती है।
९ – काय संपत__ग्रहण में संयम करने से ,स्वरूप में संयम करने से इस सिद्धि की प्राप्ति होती है। जिससे शरीर वेगवान हो जाता है और प्रकृति पर यथेष्ट अधिकार प्राप्त कर लेता है। यह वही विभूति है जो हनुमान जी को प्राप्त थी। क्योंकि शरीर और आकाश में संयम करने और हल्के रुई के रुए में संयम करने से आकाश गमन की सिद्धि प्राप्त हो जाती है अर्थात शरीर और आकाश में संबंध स्थापित हो जाता है।
उस संबंध में संयम करने पर और रुई के उपाय के बराबर किसी हल्की वस्तु में संयम करके उसके अनुसार आकार प्राप्त हो जाने से योगी का शरीर बहुत हल्का हो जाता है । शरीर हल्का होकर जल या मकड़ी के जाले तक पर चलने में कोई कठिनता नहीं होती इसलिए योगीपुरुष जल पर ऐसे चलते हैं जैसे कि पृथ्वी पर चल रहे हों । इस प्रकार चलने में उनको कोई कठिनता नहीं होती है। जैसे सर्कस में हमने देखा है कि अभ्यास करने से सर्कस के खिलाड़ी तार पर बाइसिकल चला सकते हैं,। स्वयं दौड़ सकते हैं।मौत के कुएं में मोटरसाइकिल चला सकते हैं ।एक रस्सी पर चल सकते हैं, तो फिर योगी के संयम और अभ्यास से आकाश गमन की योग्यता प्राप्त हो जाने में आश्चर्य ही क्या है ?
शरीर के हल्के होने से जल को कीचड़ आदि का भय नहीं रहता और यह उदान नामक प्राण में संयम करने से मनुष्य को प्राप्त होता है अर्थात इसको प्राप्त करने के बाद शरीर हल्का हो जाता है । उदान पर योगी का अधिकार हो जाता है। उदान प्राण वह है जो कंठ में रहता है और जो मनुष्य के मरने पर आत्मा को दूसरे शरीर में ले जाया करता है।
१० – तद्धरमानभिघात_पांच महाभूतों के कार्य योगी के लिए विघ्नकारक नहीं रहते हैं।
यहां पर यह उल्लेख करना भी अति आवश्यक एवं प्रासंगिक हो जाता है कि ‘रामायण’ नाम के धारावाहिक के प्रसारण में हमने अंगद को रावण की सभा में पैर जमाते हुए देखा था । जो पैर किसी से अर्थात बलशाली से बलशाली योद्धा पर भी नहीं उठाया गया था । बलों में संयम करने से हाथी जैसा बल प्राप्त हो जाता है। इसलिए स्वयं रावण को उस को उठाने के लिए सिंहासन छोड़कर आना पड़ा ।तब अंगद ने स्वयं ही अपने पैर को उठाकर रावण को सलाह दी कि लंकेश ! तुम यदि पैर ही पकड़ना चाहते हो तो भगवान राम के पैर पकड़ो,क्षमा याचना उनसे करो, और देवी सीता को उनके पास पहुंचा दो । इसी में तुम्हारा और तुम्हारी लंका नगरी का सबका भला है । अंगद द्वारा किया गया यह कार्य भी एक योग था ।जो अंगद नामक युवक योगी को प्राप्त था। योग की भाषा में इस सिद्धि को गरिमा सिद्धि कहते हैं ,जिसके अंदर अणिमा एवं गरिमा दोनों का मेल है।
इसमें शरीर को भारी कर दिया जाता है। योग के माध्यम से कान और आकाश के संबंध में संयम करने से आकाश से दिव्य शब्द सुनाई देने लगते हैं ।

आकाशवाणी और योगी

योगी सूक्ष्म और मधुर शब्दों को अपने कानों में सुन सकते हैं। जिन शब्दों को दिव्य शब्द भी कहा जा सकता है। ऐसे शब्दों को सुनते समय आकाश की तरफ योगी देखता है तो उसको अज्ञानतावश हम आकाशवाणी कह देते हैं। यद्यपि यह कोई आकाशवाणी नहीं होती। बल्कि यह दिव्य शब्द होते हैं जो कान और आकाश दोनों के संयम करने से योगी को प्राप्त हो जाता है। वैसे योग की भाषा में आकाश हृदय को भी कहते हैं और जब हृदय सभी प्रकार की मलिन वासनाओं से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है तो किसी भी कार्य के करने से पहले उसके परिणाम की भविष्यवाणी हमारे भीतर हो जाती है । योगी का हृदय क्योंकि अत्यंत पवित्र होता है इसलिए वह हृदयाकाश की बात को बहुत जल्दी सुनता है , इसी को आकाशवाणी कहा जाता है।
रामचंद्र जी की सेना में ऐसे अनेकों योगी पुरुष थे । जिनको हम वानर के रूप में देखते हैं। जिनका असली स्वरूप पहचान नहीं पाते। वास्तव में ये वानर नहीं थे योगी पुरुष थे। वनवासी या वनों में रमण करने के कारण लोग इनको वानर कहते थे । अर्थ का अनर्थ करके हमने ही अपनी संस्कृति को उपहास का पात्र बना दिया है और अपने महापुरुषों को जंगली बंदर बना दिया है । दुर्भाग्य की भी पराकाष्ठा होती है।
यह लोग पहले आर्य थे लेकिन धीरे-धीरे आचार विचार में परिवर्तन आया और संस्कृति के मूल स्रोत वेदों से लोग कटते चले गए । फलस्वरूप आर्यों की संतान ही कालांतर में अनार्य हो गई। जाति से अलग होकर दस्यु ,दास , राक्षस असुर , महिष,कपि, मृग, नाग ,आदि नीच नामों से पुकारे जाने लगे और यहीं से आर्यों का पतन भी प्रारंभ होता है।

कैसे फैल गए थे आर्य लोग संसार में

आदि सृष्टि में समस्त गुणों से अलंकृत आर्य जाति का ही जन्म हुआ था। उसी से मूर्ख और असभ्य लोगों ने निकल – निकल कर दस्यु और राक्षस आदि की उत्पत्ति की थी । क्योंकि मनुस्मृति में लिखा है कि ब्राह्मणों के पास न पहुंच सकने के कारण क्षत्रियों की जातियां क्रिया लुप्त होने से पतित हो गयीं । वही पोंड्र , ओंद्र, कांबोज, पारद ,खस, पहव,चीन, किरात ,झल्ल मल्ल,दरद और शक नाम धारणी अनार्य जातियां अस्तित्व में आ गई ।
नहुष के पुत्र ययाति ने अपने पांचों पुत्रों में से तुर्वशु से युवावस्था मांगी , पर उसने देने से इंकार कर दिया ।इससे पिता ने नाराज होकर उसको सपरिवार जाति भ्रष्ट करके जहां अगम्यगामी ,मांसाहारी और पशु प्रवृत्ति वाले म्लेच्छ रहते थे , उस दक्षिण दिशा में धकेल दिया (देखो महाभारत आदि पर्व 84 /13 से 15)।
इस प्रकार की घटनाएं क्षत्रियों में भी हुईं ।ब्राह्मणों और वैश्य समाज में भी हुईं । ब्राह्मणों में जाति बहिष्कार हुआ । महर्षि विश्वामित्र जी ने कहीं से एक लड़का प्राप्त किया और उसे अपने सौ पुत्रों में सबसे मुख्य ठहराया , किंतु 50 लड़कों ने पिता की आज्ञा को मानने से इनकार कर दिया । इसलिए विश्वामित्र महाराज ने क्रोधित होकर उन्हें दक्षिण के जंगल में निकाल दिया। वहीं सब आंध्र, पुंद्र,, शबर ,पुलिंड आदि राक्षस हुए ।यह ब्राह्मणों का हाल हुआ। देखो ऐतरेय ब्राह्मण७/३३/६)
वैश्यों का हाल इससे भी अधिक विचित्र है। कहते हैं कि अति प्राचीन काल में आर्य लोग लोभी वणिक को पनिक कहते थे । जो बहुत लोभी होते ही हैं , इसलिए आर्य जनता इनसे रूष्ट हुई और विवश होकर इनको भी दक्षिण दिशा में जाना पड़ा ।
(देखो ‘ऋग्वैदिक इंडिया ‘ – पेज १८०,१८१)
इस प्रकार दक्षिण में ऐसे लोग देखने को मिलते हैं जिनकी सेना दशरथनंदन रामचंद्र जी के साथ युद्ध में भाग लेती है।

जामवंत जी रीछ नहीं थे

जामवंत जैसे महायोगी के लिए भी हम आरोप लगाते हैं कि वह रीछ थे , जबकि उनकी जाति रिक्ष थी , जिसको गलती से रीछ बना दिया गया है। रामायण धारावाहिक में यह देख कर बहुत दुख होता है कि जामवंत जी को एक रीछ के रूप में दिखाया जाता है और उनके कपड़े भी वैसे ही जंगली पशु की भांति उन्हें पहनाए जाते हैं । वैज्ञानिक ऋषियों की संतान भारत के लोग इतने पतित हो जाएंगे – यह देखकर हमारे वैज्ञानिक पूर्वज हम पर कितना दुख करते होंगे। यह दोष दूर होने चाहिए।अस्तु ।
अपने मूल विषय पर लौटते हैं। योगी का चित्त दूसरे शरीर में प्रवेश कर सकता है और दूसरे चित्त में क्या चल रहा है ? – उसका हाल जान लेता है । इसका कदापि अभिप्राय यह नहीं है कि वह दूसरे शरीर को अपने चित्त के अनुसार बढ़ाने लगता हो। हां , कुछ समय के लिए ऐसा संभव है। यह केवल धारणा, ध्यान और समाधि के अभ्यास से काम कर्म छोड़कर जब योगी केवल निष्काम कर्म का आश्रय लेता है तो वासनाओं के न बनने से कर्म का बंधन समाप्त हो जाता है । संयम से योगी चित्त के चलने का मार्ग जान लेता है अर्थात नाड़ी को पहचान लेता है , तब उसके चित्त में अपने से भिन्न शरीर में जाने की योग्यता प्राप्त हो जाती है।
यही कारण है कि दूसरे की भावनाओं को दूसरे की इच्छाओं को पहचानने में योगी सक्षम हो जाता है।
बुद्धि और जीव में अंतर है। बुद्धि जड़ है । परन्तु जीव चेतन है। बुद्धि में चेतना का प्रकाश जीव से ही आता है। सांसारिक भोगों को भोगते हुए इन दोनों की भिन्नताओं को बिसार दिया जाता है और बुद्धि अथवा मन अपने को जीव समझने लगता है । जीव रज और तम की अधिकता से भिन्नता के विचार पर स्थिर सा नहीं रहता। इस प्रकार बुद्धि और जीव के अभिन्नता ज्ञान से ही भोग सृष्टि रची जाती है। स्पष्ट है कि यह भोग इंद्रियों और अंतःकरण द्वारा ही साक्षात रीति से होकर जाते हैं। जीव को तो असाक्षात भोक्ता ही कहा जा सकता है । इसलिए भोग पदार्थ हुआ । जब इस बुद्धि भोग्य और भोग साधनों से सर्वथा भिन्न जीव इस पदार्थ के भोग का त्याग साधनों से सर्वथा त्याग करके अपने ही अर्थ में संयम करता है , अर्थात जब संयम का विषय स्वयमेव जीव बन जाता है , तब उस संयम से जीव अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

संयम और योगी

हृदय में संयम करने से योगी को चित्त का ज्ञान हो जाता है। नाभि चक्र में संयम करने से शरीर की बनावट का ज्ञान हो जाता है। हमारा शरीर वात, पित्त और कफ तीन दोषों और 7 धातुओं का समुदाय है।
सात धातु निम्न प्रकार एक त्वचा ,दो चर्म, तीन मांस, चार स्नायु , पांचवी अस्थि, छठी चर्बी और सातवीं शुक्र धातु होती है।
अपने रामायण और महाभारत जैसे दो ग्रंथों का अध्ययन करने से हमें पता चलता है कि वहां पर रामायण में मंदोदरी युद्ध के समय दुःस्वप्न देखती है तो महाभारत में गांधारी को युद्ध के समय दु:स्वपन सताने लगते हैं ।यह सब क्या है ? – यह अनिष्ट का पूर्वाभास है। जब मनुष्य को कान बंद करने के बाद भीतर का घोष या अनहद के शब्द सुनाई ना पड़ते हो तब समझो कि मृत्यु सन्निकट है। जिसको आध्यात्मिक अरिष्ट कहते हैं।
दूसरा अरिष्ट आधिभौतिक है जिसमें सताने वाली सूरत और मरे हुए अपने संबंधियों का दिखाई देना होता है जो सशरीर सामने खड़े होने का भान होता है। इससे भी मृत्यु का निकट आना माना जाता है।
तीसरा अरिष्ट आधि दैविक है। जिसमें आकाश में स्थित ग्रह नक्षत्र और तारे उल्टे पुलते दिखाई पड़ते हैं। अरिष्ट का अर्थ होता है – जो मरने से पहले दिखाई देने लगते हैं , इसलिए इन अरिष्टों से भी मृत्यु का ज्ञान हो जाता है ।
मनुष्य का सूक्ष्म शरीर जो मन बुद्धि और चित्त आदि का समुदाय होता है ।मृत्यु होने पर स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने से नष्ट नहीं होता। सूक्ष्म शरीर में चित्त जन्म जन्मांतर के अभिलेखागार के रूप में होता है । उसमें तीन चीजें होती हैं ।पहली – स्मृति । दूसरी – वासना ।तीसरा – संस्कार।
स्मृति में जन्म जन्मांतर का ज्ञान याद रहता है। दूसरे में किए हुए अच्छे बुरे कर्म वासना के रूप में फल प्राप्ति के लिए रहते हैं। तीसरे जन्म जन्मांतर के पड़े हुए प्रभाव संस्कार के रूप में चित्त में रहते हैं ।
इसलिए अनेक बालक जिनके अच्छे संस्कार होते हैं , पिछले जन्म का हाल बता देते हैं ।परंतु जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं तो उनकी नैसर्गिक शुद्धता कम होने लगती है और उनके अंतःकरण के ऊपर माया और मोह का आवरण पड़ने लगता है ।इसका परिणाम यह होता है कि पिछले जन्म का चित्त रूप संचित लेखपत्र साथ होते हुए उसे फिर याद नही रह सकते । परंतु जब योगी उनको अपने उपलब्ध ज्ञान से हटा देता है तो पढ़ने योग्य होकर अपने पिछले जन्म का हाल जान लेता है । योग , दर्शन , वासना और संस्कार सबका एक नाम दिया गया है । संस्कार के साक्षात करने का भाव उपरोक्त से हटा देना मात्र है।
भीष्म पितामह के महाभारत के दौरान घायल होकर शरशैय्या पर लेट जाने पर जब श्रीकृष्ण जी उनके पास जाते हैं तो भीष्म उनसे यह पूछते हैं कि केशव ! तनिक अपने योगबल से मुझे यह बताओ कि ऐसी कठोर सजा प्राप्त करने के लिए मैंने कौन सा पाप किस जन्म में किया है ? जिसके कारण मुझे आज इन बाणों की शैया पर लेटना पड़ रहा है।

मनुष्य का अंतः करण है एक ब्लैक बॉक्स

भीष्म पितामह के मुंह से ऐसे शब्द सुनकर कृष्ण जी ने उनका लेखपत्र अथवा अन्तःकरण का रिकॉर्ड देखकर के यह बताया कि अमुक जन्म में आपने किसी सर्प को मारकर झाड़ियों पर फेंक दिया था । उन झाड़ियों के कांटों ने उस सर्प को उस समय बहुत पीड़ा पहुंचायी थी । इस प्रकार आपके उस जन्म का यह फल है कि जो इतने बाण आपके शरीर में चुभे हुए हैं।
इससे यह सिद्ध हुआ कि अन्तःकरण में जन्म जन्मांतर के संस्कार और स्मृति सबका रिकॉर्ड साथ रहता है। सारे कर्मों का लेखा जोखा अर्थात पूरा विवरण उसमें रहता है। इसकी हम किसी वायुयान के उस ब्लैक बॉक्स से भी तुलना कर सकते हैं जो किसी भी वायुयान की दुर्घटना के पश्चात विशेष रुप से खोजा जाता है। जिसमें उस वायुयान के दुर्घटनाग्रस्त होने के कारणों को हमारे वैज्ञानिक सरलता से पढ़कर यह समझ लेते हैं कि वायुयान की दुर्घटना के अमुक अमुक कारण थे । बस यही ब्लैकबॉक्स हमारे इस चित्र में लगा रहता है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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