आज क्या हो गई है देश की स्थिति

 

देश से वेद-विद्या लुप्त की जा रही है, और देश का मूल संस्कार परमार्थ के स्थान पर स्वार्थ बनाया जा रहा है। देश की वर्तमान शिक्षा प्रणाली और बाजारीकरण पर केन्द्रित देश की अर्थव्यवस्था इस स्थिति के लिए उत्तरदायी हैं। सर्वत्र मारा-मारी और एक दूसरे के अधिकारों के हनन की भावना मनुष्य पर हावी होती जा रही है। फलस्वरूप चारों ओर वाद-विवाद और कलह-कटुता का वातावरण है। हमारा नेतृत्व समझ नहीं पा रहा है कि हमारी वर्तमान दुर्दशा का कारण क्या है? हमारा मानना है कि जब तक भारत में शिक्षानीति को संस्कार आधारित नहीं बनाया जाएगा-तब तक हम अपनी वर्तमान दुर्दशा का वास्तविक कारण खोज नहीं पाएंगे। मनुष्य को मनुष्य बनाने वाली भारत की वैदिक शिक्षा को देकर ही हम मनुष्य को मनुष्य बना सकते हैं। किसी भी राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था की सफलता इसी में छिपी होती है कि उसका मानव समाज वास्तव में मानवतावादी हो। मानवतावादी मनुष्य समाज ही स्वार्थशून्य होकर परमार्थ प्रेरित कार्य कर सकता है। मनुष्य की स्वार्थशून्यता और परमार्थप्रेरित कार्य करने की शैली ही वास्तव में समाज में परमार्थी परिवेश का निर्माण कर सकती है।
जब तक इस देश का राष्ट्रीय संसार परमार्थ रहा, तब तक इस देश की राष्ट्रीय एकता भी अक्षुण्ण रही। इस देश पर पहला प्रमुख इस्लामी आक्रमण मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में 712 ई. में किया गया था। हमारे देश के मौलिक संस्कार ‘परमार्थ’ ने उसी समय तुरंत देशभक्ति का रूप धारण किया और सूक्ष्मरूप में वह हमारे राष्ट्र नायकों और देशवासियों के भीतर बड़ी शीघ्रता से प्रवेश कर गया, बस इसी भावबीज का चमत्कार था कि सारा देश विदेशी आक्रामकों के विरूद्घ उठ खड़ा हुआ। सारे देश ने एक सामूहिक राष्ट्रीय संकल्प लिया कि विदेशी आक्रांताओं की सत्ता को स्वीकार नहीं किया जाएगा-और न ही उनकी दासता को सहन किया जाएगा। अपने इस संकल्प की पूर्ति के लिए हमारे देशभक्त पूर्वजों ने यह भी संकल्प लिया कि हमें चाहे जितना दीर्घकालीन संघर्ष करना पड़े और चाहे जितने बलिदान देने पड़ें-हम संघर्ष भी करेंगे और बलिदान भी देंगे-पर देश से विदेशी आक्रांताओं को खदेडक़र ही रहेंगे। हमारे पूर्वज समझते थे कि पराधीनता मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। जो देश या जाति इस शत्रु को स्वीकार कर लेती है, वह समाप्त हो जाती है।
क्या कोई ऐसा इतिहासकार है जो यह बता सके कि विदेशियों को इस देश से खदेडऩे का वीरतापूर्ण संकल्प इस देश में अमुक तिथि और अमुक वार को अमुक स्थान पर अमुक राजा के नेतृत्व में लिया गया था? निश्चित रूप से ऐसा बताने वाला या स्पष्ट करने वाला कोई भी इतिहासकार नहीं होगा, और हमारा मानना है कि हो भी नहीं सकता। पर फिर भी यह सत्य है कि इस देश ने ऐसा संकल्प लिया और वह किसी विशेष तिथि को या विशेष वार को विशेष राजा के नेतृत्व में विशेष स्थान पर नहीं लिया था। ऐसा इस देश ने स्वाभाविक रूप से लिया और अपने मूल संस्कार-‘परमार्थ के लिए जीओ’ -की धारणा के वशीभूत होकर लिया। ‘परमार्थ के लिए जीओ’ की इसी भावना ने इस देश में मानवतावाद का प्रचार-प्रसार और विस्तार किया और इसी विचार ने यहां राष्ट, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की उत्कृष्ट भावना का सृजन किया। राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की जैसी भावना भारत में है वैसी अन्यत्र मिलना असंभव है।
यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि भारत में राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता मानव, मानवतावाद और मानवीय संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले पावन पवित्र शब्द हैं। राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता और मानव, मानवतावाद और मानवीय संवेदनाओं के ये पवित्र शब्द ही भारत की संस्कृति के ‘इदन्नमम् का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो’ इस आदर्श को पूरा करने वाले ऐसे शब्द हैं जो इस देश के लोगों को परस्पर सम्मैत्री और सहयोग का पात्र बनाते थे। यही कारण था कि भारत के राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता में विखण्डन नहीं था, संपूर्ण भूमंडल एक राष्ट्र था, उसकी प्रजा पर हमारा एक ही कानून लागू होता था और वह था -मानवतावाद का कानून।
विश्व को खण्ड-खण्ड करने और इस मानवजाति को सम्प्रदायों में विभाजित करके देखने की प्रवृत्ति उन लोगों की बनी जिनकी सोच लूट-खसोट की थी और मानवता पर अत्याचार करके राज करना जिनका उद्देश्य था। आप देखें कि जिस दिन से विश्व से भारत का मूल संस्कार ‘परमार्थ’ लुप्त होकर लुटेरी जातियों का ‘स्वार्थ’ प्रभावी हुआ उसी दिन से संसार में विखण्डन आरंभ हो गया। ये देशों की, राष्ट्रों की, प्रदेशों की सीमाएं हमारी उन्नति का नहीं अपितु हमारे पतन की प्रतीक हैं, हमारे चिंतन की विशालता का नहीं अपितु उसकी संकीर्णता की प्रतीक हंै। हमारे विकास की नहीं अपितु हमारे विनाश की प्रतीक हैं।
इसका अभिप्राय है कि शांति और विकास, स्थिरता और सुव्यवस्था ये सभी ‘इदन्नमम् के सार्थक व्यवहार’ से ही उपलब्ध हो सकती हैं। स्वार्थ के द्वारा इन्हें प्राप्त किया जाना संभव नहीं है। स्वार्थ में स्वार्थ ही जुड़ता जाएगा और हम देखेंगे कि हम टूटते ही जाएंगे। कण-कण से अणु-अणु में बिखर जाएंगे हमारा संघटन नही बन पाएगा। उधर परमार्थ से हम जुड़ते जाएंगे, कण-कण से कंकर बनेगा और अंत में ‘शंकर’ अर्थात एक पूरा विश्व-राष्ट्र बनेगा। अणु-अणु को जोड़ो तो कोई मनोहारी चित्र बनेगा और अणु-अणु को तोड़ो तो कोई कृति, कोई रचना आत्महत्या के लिए विवश हो जाएगी। कण-कण को जोड़ो तो कोई ‘कंकर’ बनेगा और वही कंकर विराट पुरूष शंकर राष्ट्र के रूप में हमारे सामने आएगा। इस विश्व की एक मूल भावना (राष्ट्र एक अदृश्य भावना ही तो है) परमार्थ के रूप में सामने आएगा।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

Comment: