युधिष्ठिर धर्म के अनुसार आचरण करने वाले होने के कारण ‘धर्मराज’ कहलाए । जिनके मन, वचन और कर्म में सदा सत्य समाहित होता था । इसी प्रकार से रघुकुल में अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र ने धर्म की रक्षा के लिए वाराणसी अर्थात काशी में स्वयं अपने आप को और अपने पुत्र व पत्नी को भंगी के हाथों बेचना स्वीकार किया । सत्यवादी हरिश्चंद्र ने अपने धर्म की रक्षा के लिए ही भंगी के घर पानी भरा और इस कार्य में अनेकों अप्रत्याशित यातनाओं को भी झेला ।

इसके उपरांत भी धर्म से विचलित नहीं हुए। अतः मन ,वचन और कर्म से सत्य का आचरण उन्होंने भी किया। उसी कुल में जन्मे दशरथनंदन मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी ने सदा धर्म के अनुसार मर्यादा का पालन किया।
भारतीय संस्कृति में ऐसे और भी अनेकों महापुरुषों के आदर्श जीवन से जुड़े अनुकरणीय उदाहरण उपलब्ध हैं जो मन ,वचन और कर्म से पवित्र थे ,इसलिए चाहे वह योगी थे अथवा नहीं लेकिन उन्होंने केवल अपने द्वारा इन गुणों का वरण करके उन्हें व्यावहारिक जीवन में सच करके भी दिखाया। यही कारण है कि वह हमारे समाज और राष्ट्र के लिए आज भी उदाहरण बने हुए हैं। उनकी आदर्श कहानी आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण, श्रव्य ,भव्य एवं अनुकरणीय है।
योग के चौथे अंग प्राणायाम के महत्व पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि मनुष्य जीवन में प्राणायाम की बड़ी उपयोगिता है , क्योंकि प्राणायाम के करने से जो ज्ञानरूपी प्रकाश पर अज्ञान रूपी तम आदि का आवरण छा जाता है वह कमजोर पड़कर नष्ट हो जाता है । इसीलिए मनु ने भी प्राणायाम का महत्व किस प्रकार प्रकट किया है :-

“दह्यन्ते ध्मायमानानां धातुनाम ही यथा मला:।
तथेन्द्रीयाणां दह्यन्ते दोषा: प्राणस्य निग्रहात।।

अर्थात जैसे अग्नि में सोने को पिघलाने से उसका मैल या दोष दूर होता है , वैसे ही प्राणायाम से शरीर की इन्द्रियों का मैल या दोष दूर होता है।
प्राणायाम से इनके अतिरिक्त शारीरिक और मानसिक उन्नति भी होती है और योग के अग्रिम अंग प्रत्याहार आदि को सिद्ध करने की योग्यता भी मनुष्य के अंदर आ जाती है।
हमारे शरीर में रक्त प्रवाह करते-करते काला पड़ जाता है जो गंदगी से होता है और उसमें ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है , क्योंकि वह शरीर के जिस अंग में जाता है उसी को क्रियाशील करता है और क्रियाशील करने के कारण उसके अंदर गंदगी और कालापन आता है । जिसको शिराएं हृदय तक ले जाती हैं और हृदय से वह रक्त जब हमारा हृदय संकुचित होता है तब बाहर निकलता है तो एक मोटी नली के द्वारा होता हुआ फेफड़ों की तरफ जाता है । जहां प्राणायाम करने से जब उसमें शुद्ध हवा ऑक्सीजन जाती है तो वह फेफड़ों में भरती है । फेफड़ों का कार्य होता है कि वे उस रक्त को ऑक्सीजन प्रदान करके शुद्ध कर देते हैं। वहां से वह रक्त बिल्कुल साफ व स्वच्छ, लाल होकर के हृदय के अंदर जाता है और हृदय से फिर धमनियों द्वारा समस्त शरीर में भेज दिया जाता है।
यह प्रक्रिया हमारे शरीर में अनवरत एवं सतत दिन रात चलती रहती है ।24 घंटे में एक बार प्राणायाम अवश्य करना चाहिए। इसलिए आवश्यक है कि हम रक्त में आई अशुद्धियों को इससे दूर कर अपने स्वास्थ्य को अच्छा बनाए रखें। इससे रक्त की अशुद्धियों से होने वाली तमाम बीमारियों को हम दूर कर सकते हैं ।इसी से चेहरे पर तेज चमकता हुआ दिखाई पड़ता है। यह सब प्राणायाम के कारण ही संभव है ।शरीर में स्फूर्ति, सुर्खी और चमक आ जाती है। प्राणायाम के करने से कैंसर जैसी बीमारियां दूर होती है । कैंसर एवं टी0बी0 की बीमारी दूषित कोशिकाओं के कारण पैदा होती है ,वह भी समाप्त हो जाती है।
प्राणायाम करते समय ध्यान रखना चाहिए कि फेफड़े के ऊपरी भाग , मध्य भाग और नीचे डायफ्राम की तरफ के तीनों भाग पूरी तरीके से खुलने चाहिए। प्राणायाम के समय एक एक कोशिका में शुद्ध वायु पहुंचनी चाहिए । जिससे कि कोशिका निष्क्रिय नहीं होगी और जब कोशिका निष्क्रिय नहीं होगी तो एक दूसरे से जुड़ेगी नहीं और जब वह जुड़ेंगी नहीं तो वह गलनी, सड़नी ,खराब होनी प्रारंभ नहीं होती है। जिससे टी0बी0 अथवा फेफड़े का कैंसर नहीं होता है। उच्च रक्तचाप शुगर आदि बीमारियां नहीं बनती है। इसलिए प्राणायाम बहुत आवश्यक है। प्राणायाम करने से कार्बनिक एसिड कम निकलते हैं और कार्बनिक एसिड जितना कम निकलता है उतनी ही भूख कम लगती है । अतः इसके करने से भूख में संतुलन आ जाता है । संतुलन का अभिप्राय है कि बेकार की भूख नहीं लगती , बार-बार खाते रहने की इच्छा नहीं होती । जप करने वाले व्यक्ति बहुत बहुत देर तक एक ही अवस्था में बिना अन्न जल ग्रहण किए बैठा रहता है।
यदि मनुष्य प्रतिदिन 12000 बार ओ४म का जप किया करें तो उसे बहुत थोड़े भोजन की जरूरत रह जाती है । जप से कुंभक की अवधि बढ़ती है। ऐसा अनेक बार परीक्षा करने में प्रमाणित हुआ है।कबूतर 1 मिनट में 34 बार, मामूली चिड़िया 30 बार, बत्तख 21 बार, बंदर 30 बार, मनुष्य 12 बार, सूअर 36 बार ,कुत्ता 28 बार, बिल्ली 24 बार, बकरी 24 बार ,घोड़ा 16 बार और मेंढक केवल तीन बार श्वास लेता है। इस प्रकार मेंढक सबसे कम श्वास लेता है। यही कारण है कि मेंढक की आयु 110 वर्ष तक हो सकती है। वह नवंबर के मध्य में जमीन के नीचे चला जाता है और फिर मध्य अप्रैल के बाद निकलता है। इस प्रकार वह करीब 5 माह तक बिना भोजन और बिना स्वास के रहता है। इसी वजह से इसकी आयु बढ़ती है।

प्रत्याहार

योग का पांचवा अंग है प्रत्याहार । ज्ञानेंद्रियों में आंख का विषय देखना है , कान का विषय सुनना है , जिह्वा का विषय स्वाद और बेस्वाद को बताना है। नाक का विषय सूंघना है। लेकिन प्रत्याहार की अवस्था में इंद्रियां अपने विषय से पृथक हो जाती हैं, अर्थात देखना, सुनना , स्वाद – बेस्वाद का कोई ज्ञान मनुष्य को इस स्थिति में अथवा अवस्था में नहीं रहता है ।हम पूर्व में चित्त की दो प्रकार की वृत्तियों के विषय में स्पष्ट कर चुके हैं कि चित्त की वृत्तियां बहिर्मुखी और अंतर्मुखी दो प्रकार की होती हैं । प्रत्याहार की स्थिति में आत्मा का सामर्थ्य जो बहिर्मुखी वृत्ति द्वारा चित्त और इंद्रियों के माध्यम से व्यय हो रहा था अब उस काम में से रुककर वापस आत्मा में लौट आता है। यही कारण है कि प्रत्याहार का उद्देश्य यह कहा जाता है कि वह आत्मशक्ति का एकत्रीकरण करने का एकमात्र साधन है । इसी से मनुष्य के चित्त की अंतर्मुखी वृत्तियां क्रियाशील होने लगती हैं। आत्मशक्ति शरीर से पृथक हो आत्मा को हाथ के शस्त्र की तरह समझने लगता है । ऐसी परिस्थिति में वह आत्मा पर अपना अधिकार समझता है । उसे जब चाहे हाथ की वस्तु की तरह पृथक कर दे । इसी प्रकार जब चाहे उसको आकाश से प्राप्त कर ले । इस अवस्था को प्राप्त करने के पश्चात योगी यम और नियम का पालन करते हुए भोजन आदि की व्यवस्था योगियों की मर्यादा अनुकूल रखने लगता है । प्राणायाम का अभ्यास करते हुए 10 मिनट तक स्वास रोके रखता है तब उसका अपनी इंद्रियों पर अधिकार हो जाता है , धारणा , ध्यान और समाधि के अभ्यास करने में समर्थ हो जाता है । इस प्रकार प्रत्याहार एक बहुत ही महत्वपूर्ण कड़ी है। धारणा ध्यान और समाधि की।
महाराज जनक के विषय में सर्वविदित है कि उनको ‘विदेह’ कहा जाता है , क्योंकि इस देह के अतिरिक्त उनके पास एक विशेष देह होती है I यही कारण था कि राजा जनक को विदेह कहते थे। उनकी शरीर के अंदर जो जीवात्मा रहती है उनको वह शरीर से निकालकर आकाश में स्थित कर देते हैं और वह आकाश में विचरण करती हुई हजारों लाखों कोस दूर की बात अपने दरबार में बैठे हुए प्रत्यक्षदर्शी के रूप में दरबारियों से वर्णन करते थे । यह सब प्रत्याहार के कारण ही संभव था ।

धारणा

योग का छठा अंग धारणा है ।धारणा चित्त की वह अवस्था है जब वह किसी एक बिंदु या केंद्र पर स्थित हो जाता है या केंद्रित हो जाता है ।यह शक्ति प्रत्याहार के अभ्यास करने से एकत्र होती है ।उसे नाभि चक्र, नासिका के अग्रभाग आदि पर लगाकर एक अवस्था में बैठे रहना धारणा है। प्रत्याहार से इंद्रियों पर अधिकार होता है तो धारणा से मन पर अधिकार हो जाता है। जब प्राणायाम का अभ्यास इतना बढ़ जाता है कि 21 मिनट और 36 सेकंड तक बिना स्वास् के व्यक्ति रह सकता है , तब इनसे अनायास धारणा की सिद्धि से ध्यान के अभ्यास करने के योग्य योगी अथवा व्यक्ति हो जाता है।

ध्यान

ध्यान योग का सातवा अंग है । अभी ऊपर हम बता रहे थे कि ध्यान जब 21 मिनट और 36 सेकंड तक बिना स्वास् के किसी एक ही बिंदु पर केंद्रित बना रहता है तो वह धारणा की अवस्था होती है। इसमें बुद्धि धारणावती बन जाती है। कहने का अभिप्राय है कि बुद्धि किसी एक देश में रुकने की अभ्यासी बन जाती है । लेकिन इसी का अभ्यास जब निरंतर बना रहे , एक ही लक्ष्य पर चित्त एकाग्र हुआ रहे तो उसको ध्यान कहते हैं । सांख्य के आचार्य महामुनि कपिल ने ‘ध्यानं निर्विषयम मन :’ – सूत्र के द्वारा मन के निर्विषय होने का नाम ध्यान बतलाया है । परंतु भाव दोनों का एक ही है । जब मन किसी लक्ष्य पर एकाग्र हो रहा है तो निश्चय है कि वह निर्विषय है, क्योंकि मन एक समय में दो विषयों को ग्रहण नहीं कर सकता। विषय का अभिप्राय साधारणतया इंद्रिय का विषय होता है।
इसका शाब्दिक अर्थ विष के योग्य है। कहने का अभिप्राय है कि इंद्रियों का वह विषय जो विष के योग्य है , हमारे लिए त्याज्य है। इसलिए जब मन इसी लक्ष्य पर एकाग्र है और एकाग्रता में निरंतरता बनी है तो वह योग दर्शन अनुसार ध्यान है। इस ध्यान में मन निर्विषय है । सांख्य दर्शन में यही बात इस प्रकार वर्णित है कि जब मन निर्विषय है तो वह ध्यान की अवस्था में है ।स्पष्ट है कि भाव दोनों का एक ही है। प्राणायाम का अभ्यास इतना हो जाने पर जो योगी 42 मिनट 12 सेकंड स्वास को रोके रखे तो ध्यान की अवस्था योगी को प्राप्त हो जाती है।

समाधि

समाधि योग का आठवां अंग है । ध्यान अवस्था में ध्याता ,ध्यान , ध्येय इन तीनों का ज्ञान या आभास योगी को बना रहता है अर्थात ध्यान की अवस्था में ध्यानी यह जानता है कि वह ध्यान में है और उसका ध्यान किसमें लगा हुआ है, परंतु जब वह अर्थात ध्यान करने वाला यह भूल जाए कि वह ध्याता है और यह भी भूल जाए कि वह ध्यान रूपी कोई क्रिया कर रहा है ,अर्थात इसका भी उसे ज्ञान नहीं रहे और केवल ध्येय ही उसके लक्ष्य में रह जाता है तो उस अवस्था को समाधि कहा जाता है । इस अवस्था में योगी को सुख-दुख ,शीतोष्ण आदि का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता। जब उसके दृष्टि में न कोई मित्र है और न शत्रु। वह न तो किसी बात में अपना मान समझता है और ना अपमान समझता है। सोना और चांदी उसके लिए मिट्टी के ढेले से अधिक प्रतिष्ठा की वस्तु नहीं रह जाती है ।
प्राणायाम के द्वारा जब एक घंटा 26 मिनट और 24 सेकंड तक योगी बिना स्वास् के रह सकता है , उसे समाधि की सिद्धि हो जाती है । इसी को सैकड़ों वर्षों तक बढ़ाया जा सकता है । महर्षि च्यवन समाधि की अवस्था में इतने समय तक चले गए कि उनको अपने शरीर पर जमी हुई मिट्टी अथवा धूल की भी कोई चिंता नहीं रही थी और जब वह एक राजा की लड़की के द्वारा आंखों में एक तिनका डाल देने पर उनसे रुधिर बाहर आने पर और उनके कराहने पर यह एहसास होता है वह तो कोई समाधि में बैठा व्यक्ति है। तब राजा ने अपनी पुत्री की शादी उस ऋषि से इसीलिए कर दी थी कि अब यह अंधे हो चुके हैं और आप इनकी सेवा करें। आपको यही सजा है।
यह इसका प्रमाण है की समाधि में योगी सैकड़ों हजारों वर्षों तक बिना खाए पिए रह सकते थे । इस अवस्था में वायु के परमाणुओं से ही योगी अपना भोजन पानी लेने की अवस्था में पहुंच जाता है। वह अपनी आयु इसी प्रकार बढ़ा लिया करते थे। इससे यह भी सिद्ध होता है कि आयु ग्रासों में नहीं स्वासों में मिलती है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

Comment: