यदि सभी मनुष्य विवेकयुक्त होते तो वेद और सत्यार्थ प्रकाश सर्वमान्य धर्म ग्रंथ होते

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

संसार में तीन अनादि सत्तायें वा पदार्थ हैं जो ईश्वर, जीव व प्रकृति के नाम से वैदिक साहित्य में वर्णित किये गये हैं। वेदों की भाषा मनुष्यकृत न होकर परमात्मा की अपनी भाषा है। वेद की संस्कृत भाषा के शब्द भी परमात्मा के द्वारा प्रयुक्त होने से उसके द्वारा उत्पन्न वा बनाये हुए हैं। सृष्टि में परमात्मा की सबसे श्रेष्ठ कृति मनुष्य को बताया जाता है। इसका कारण है कि यह सत्य व असत्य का निर्णय करने वाली बुद्धि रखता है। यह दो पैरों पर चलता है तथा इसके पास दो हाथ भी हैं जिससे यह लिख सकता है व ऐसे अनेकानेक काम कर सकता है जो कि अन्य प्राणी नहीं कर सकते। सत्य यथार्थ व वास्तविक ज्ञान को अथवा किसी पदार्थ के सत्य स्वरूप व यथावत प्रकट करने को कहते हैं। क्या सत्य है और क्या असत्य है इसका ज्ञान विद्या से होता है। विद्या की प्राप्ति वेदाध्ययन व वैदिक साहित्य से होती है। बिना वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन किये मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा, कर्तव्य, धर्म, उपासना, जन्म-मरण के कारण, बन्धन व मोक्ष आदि विषयों को नहीं जाना जा सकता। यही कारण है कि सभी वेदेतर मतों में अविद्या व मिथ्या ज्ञान निहित है। ऋषि दयानन्द ने अपने उपदेशों सहित अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में सभी मतों की कुछ मिथ्या बातों का दिग्दर्शन कराया है।

परमात्मा ने मनुष्यों को बुद्धि किस लिये दी है? क्या असत्य बोलना व असत्य व्यवहार करना बुद्धि का सदुपयोग है? क्या प्रतिपक्षी की सत्य बात की अवहेलना करनी चाहिये? क्या सत्य का ग्रहण न करना और असत्य को न छोड़ता उचित है? मत-मतान्तरों पर जब दृष्टि डालते हैं और ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश और अन्य ग्रन्थों में विचारों को पढ़ते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि 5000 वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद संसार में जो परिस्थितियां उत्पन्न हुईं और उस काल में जो अवैदिक मत-मतान्तर चले हैं उनका प्रमुख कारण मनुष्यों का वेदों के यथार्थ ज्ञान से अनभिज्ञ होना था। वेद ज्ञान से अनभिज्ञ अल्पज्ञ मनुष्य सत्य मत का आचार्य और प्रचारक नहीं हो सकता। इस सत्य को ऋषि दयानन्द ने अपने अध्ययन व अपने आचार्य स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की शिक्षा से साक्षात किया था। यदि महाभारत के पश्चात मध्यकाल में प्रचलित सभी मत सत्य पर आधारित होते तो यह परस्पर विरोधी न होकर अनुकूल होते। इन सभी मतों की मान्यतायें परस्पर अनुकूल होनी चाहिये थीं। मध्यकाल में प्रचलित सभी मतों में सत्य व असत्य दोनों प्रकार की मान्यतायें पाई जाती हैं जो ज्ञान की दृष्टि आधी व अधूरी हैं। सत्य का ग्रहण करना और असत्य को छोड़ना प्रत्येक मनुष्य व आचार्य का कर्तव्य है। अतः सभी मतों व उनके आचार्यों को अपने मत की समीक्षा कर असत्य मान्यताओं को उसमें निकालना व हटाना चाहिये। इसके साथ ही अन्य मतों व वैदिक धर्म जी को बातें उनके मत में नहीं हैं परन्तु जो युक्ति, तर्क एवं सृष्टिकर्म के अनुकूल हैं उन्हें अपने मतों में प्रविष्ट कराना भी सभी मतों व उनके आचार्यों का कर्तव्य है। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिये ऋषि दयानन्द ने अनथक प्रयत्न किये परन्तु हमारे मत-मतान्तरों के आचार्यों व उनके अनुयायियों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। इसका कारण सत्य का ग्रहण करने में उनको अपने हितों की हानि होती थी। दूसरी ओर ऋषि दयानन्द एक त्यागी, तपस्वी, योगी एवं ईश्वर के सान्निध्य को प्राप्त सिद्ध महापुरुष थे। उनका अपना कोई निजी प्रयोजन उन्हें सत्य के ग्रहण से दूर नहीं कर सकता था। वह धन व प्रतिष्ठा के आकांशी नहीं थे। वह अखण्ड ब्रह्मचारी, वीतराग वा वैराग्यवान महापुरुष थे। यही कारण था कि उन्होंने वैदिक सत्य मान्यताओं ज्ञान प्राप्त कर उनका अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ में प्रकाश किया है। सत्यार्थप्रकाश की सभी सिद्धान्तों की वैदिक विद्वानों ने परीक्षा की है और उसे सत्य पाया है। इन सत्य वैदिक मान्यताओं पर आधारित सत्यार्थप्रकाश को स्वीकार न करने से संसार में अविद्या से युक्त मत-मतान्तरों का अस्तित्व बना हुआ है। इनसे संसार में अशान्ति उत्पन्न होती रहती है। मत-मतान्तरों की शिक्षायें साधारण मनुष्यों को ईश्वर की सच्ची उपासना, सद्कर्मों के आचरण तथा दुःखों के बन्धनों को दूर करने के मार्ग में सहयोग नहीं करतीं इससे वह अपने जीवन में ईश्वर साक्षात्कार के लक्ष्य से दूर रहते हैं।

धर्म और विज्ञान दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं व उनको एक दूसरे के अनुकूल होना चाहिये। धर्म एवं विज्ञान दोनों की नींव सत्य पर स्थिर होती है। जिस मत की मान्यतायें सत्य वा विज्ञान के अनुकूल नहीं होती हैं, वह मत व पन्थ स्वीकार्य हो सकता है। धर्म व मत में यह अन्तर होता है कि धर्म ईश्वर के उपदेश वेद से आरम्भ होता है और मत किसी भी मनुष्य के उपदेशों व मत के आधार पर प्रचलित होता है। धर्म और मत में यदि भिन्नता है तो इससे मत के अनुयायियों को लाभ होने के स्थान पर हानि होती है। बहुत से मत कर्म-फल बन्धन तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को भी स्वीकार नहीं करते। मांसाहार, मद्यपान, अभक्ष्य पदार्थों के सेवन का उनके मत में निषेध नहीं होता। ऐसे मत मनुष्य की आत्मा की उन्नति में सहायक न होकर बाधक होते हैं। असत्य व्यवहार करने वाला व अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करने वाला मनुष्य धार्मिक कम धर्म विरुद्ध कार्यों में अधिक प्रवृत्त होता है। सभी मनुष्यों व मतों के आचार्यों को चाहिये कि वह विज्ञान कर्मियों के व्यवहार से प्रेरणा लें और स्वयं भी वैसा ही सद्व्यवहार करें। विज्ञान में एक वैज्ञानिक कोई बात कहता है तो सभी वैज्ञानिक उसकी बात को सुनते व उस पर चर्चा करते हैं और सत्य पाई जाने पर सब उसे स्वीकार कर लेते हैं। धर्म व मतों के आचार्यों को भी विज्ञान कर्मियों के सत्य के ग्रहण और असत्य के व्यवहार से प्रेरणा लेनी चाहिये। ऐसा करने से ही समाज में सत्य धर्म व सत्य मत स्थापित वा प्रतिष्ठित हो सकता है। ऐसा होने पर सभी मनुष्य एक धर्म व एक मत पर सहमत हो सकते हैं जिससे संसार के लोगों में सौहार्द तथा प्रेम की सरिता प्रवाहित हो सकती है और समाज से अज्ञान, अन्याय, शोषण तथा सभी समस्यायें दूर हो सकती हैं।

ऋषि दयानन्द और हमारे प्राचीन सभी ऋषि इसी भावना से वेद प्रचार का कार्य करते थे। रामचन्द्र जी और श्रीकृष्ण ने असत्य को हटा कर सत्य का पालन करने वाले राजाओं को स्थापित करने के लिये ही अपने जीवन को लगाया था। ऋषि दयानन्द इस कार्य को पूर्ण करना चाहते थे परन्तु मत-मतान्तरों के आचार्यों से सहयोग न मिलने के कारण वह अपने मानव जाति के हितकारी मिशन में सफल न कर सके। ऋषि दयानन्द की सन् 1883 में मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने उनके अधूरे काम को पूरा करने का प्रशंसनीय कार्य किया परन्तु जो समस्यायें ऋषि दयानन्द जी के सम्मुख थी वहीं समस्यायें उनके अनुयायियों के सामने भी रहीं जिससे सत्य धर्म का निर्धारण एवं उसका विश्व के सभी लोगों द्वारा पालन किये जाने का कार्य अधर में रुका हुआ है। वर्तमान की सामाजिक व राजनैतिक परिस्थितियों से अनुमान होता है कि शायद वेद के ईश्वरीय आदेश ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ अर्थात् ‘विश्व को श्रेष्ठ ज्ञान व आचरण वाला बनाओ’ का लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं हो सकेगा।

हम एक सनातनी पौराणिक परिवार में जन्में थे। हम जो धार्मिक क्रियाकलाप करते थे उसके औचीत्य व शंकाओं का समाधान करने वाला कोई हमें कोई पारिवारिक जन, मित्र व विद्वान नहीं मिलता था। हमें उन दिनों ईश्वर तथा आत्मा के सत्यस्वरूप का पता भी नहीं था। सौभाग्य से हमारे एक पड़ोसी मित्र श्री धर्मपाल सिंह जी ने हमें आर्यसमाज के विषय में बताना आरम्भ किया। उनसे अनेक प्रश्नों पर विचार व चर्चायें होती रहती थी। हम समय-समय पर उनके साथ आर्यसमाज जाने लगे और वहां अग्निहोत्र-यज्ञ में उपस्थित होकर व विद्वानों के प्रवचन सुनकर हमारे ज्ञान में वृद्धि होने लगी। हमें स्वाध्याय की प्रेरणा व रुचि भी अपने उन्हीं मित्र एवं विद्वानों के उपदेशों सहित आर्यसमाज में मिलने वाले सहित्य सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों से हुई। स्वाध्याय से भी हमारी शंकाओं का निराकरण हुआ। वहां जो विद्वान सदस्य होते थे उनकी संगति से भी हमें आर्यसमाज का सदस्य बनने की प्रेरणा मिली थी। तब भी समाज में कुछ लोग थे जो अपने किन्हीं स्वार्थों के साथ आर्यसमाज के प्रचार व विस्तार की उपेक्षा करते थे और लोगों को प्रोत्साहन देने के स्थान पर हतोत्साहित करते थे। हमें जो मित्र मण्डली मिली वह ऐसी थी कि जो अधिकांशतः ऋषि व आर्यसमाज के सिद्धान्तों के प्रति समर्पित थी। विद्वानों के उपदेशों तथा स्वाध्याय ने हमें आर्यसमाज से जोड़े रखा। स्वाध्याय ही हमारे जीवन का प्रमुख उद्देश्य बन गया था जिसका हमें लाभ हुआ और हमें वैदिक साहित्य संबंधी ग्रन्थों सहित आर्यसमाज के अनेक विख्यात विद्वानों के लगभग एक सहस्र छोटे बड़े ग्रन्थ पढ़ने का अवसर मिला। यदि हम आर्यसमाज से न जुड़े होते तो यह लाभ कदापि न होता।

आर्यसमाज की सभी मान्यतायें एवं सिद्धान्त अकाट्य एवं सत्य है। यदि सभी मतों को बुद्धि, तर्क वा सत्यासत्य पर स्थिर करने के लिये सब मतावलम्बी तत्पर हो जायें तो वैदिक धर्म ही सत्य मत का स्थान ले सकता है। वर्तमान में ऐसा न होने का सबसे बड़ा कारण यही है कि अन्य मतों के आचार्य अपने हितों के कारण ऐसा करना नहीं चाहते। उनका वेद व वैदिक साहित्य विषयक ज्ञान भी अपूर्ण व दूषित है। दूसरा कारण हमारे बन्धु भी सत्य ज्ञान की प्राप्ति के प्रति उदासीन दीखते हैं। उनमें ईश्वर व आत्मा तथा उपासना के लाभों को जानने के प्रति रूचि व जागृति नहीं है। उन्हें कोई कुछ भी कह दे या वह जिससे जुड़े हैं उनकी बातों को वह आंखें मूंद कर मानते हैं। इससे सत्य का निर्णय नहीं हो सकता। मत-मतान्तरों के सैद्धान्तिक व अन्य पक्षों पर विचार करने की क्षमता व इच्छा शक्ति साधारण मनुष्यों में नहीं होती इसलिये भी मिथ्या मत प्रचलित होते हैं। इन कारणों से लोगों की आत्मा का विकास जैसा वैदिक साहित्य के स्वाध्याय तथा यौगिक साधना से होता है, वैसा मत-मतान्तरों को मानने वालों का नहीं हो पा रहा है। आर्य महापुरुषों श्री राम व श्री कृष्ण देव जी को हमारे सनातनी मत के अनुयायी बन्धुओं ने परमात्मा व ईश्वर बना दिया है। उन्हें यह भी नहीं पता की ईश्वर के सर्वव्यापकत्व, सर्वशक्तिमान, अजन्मा, सर्वज्ञ, सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय की सामथ्र्य आदि बातें उनमें नहीं घटतीं। वह तो स्वयं ईश्वर के उपासक तथा देशभक्त महापुरुष थे। उनका निर्माण वैदिक ऋषियों व विद्वानों ने किया था। वैदिक सिद्धान्तों के आचरण ने ही उन्हें महापुरुष बनाया था। ऋषि दयानन्द भी वैदिक सिद्धान्तों की खोज कर तथा उन पर आचरण करके ही विश्वगुरु, वेदों के उद्धारक, वेद मर्मज्ञ, देशभक्त, समाज सुधारक, देशोपकारक, देश की आजादी के मन्त्रदाता, वेदभाष्यकार, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि पुस्तकों के प्रणेता व ग्रन्थकार बने थे।

संसार में धर्म व आचरण की दृष्टि से विचार करते हैं तो वेद, वैदिक साहित्य और सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ शीर्ष स्थान पर हैं। इनका अध्ययन कर इनकी शिक्षाओं को जीवन में धारण कर ही मनुष्य सच्चा धार्मिक बन कर अपने जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार एवं मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। अन्य किसी उपाय से यह लक्ष्य प्राप्त नहीं किये जा सकते। सत्य को ग्रहण करने के लिए विवेक की आंखों व ज्ञान की आवश्यकता होती है जो कि वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों के स्वाध्याय से दूर आज के अल्पशिक्षित मनुष्यों में दिखाई नहीं देता। इसी कारण संसार में नित्यप्रति अविद्या का विस्तार हो रहा है। विज्ञान में प्रतिदिन वृद्धि हो रही है तथा धार्मिक जगत में मध्यकालीन बातें ही प्रसारित की जा रही हैं। अन्धविश्वासों व मिथ्या परम्पराओं के निवारण व संशोधन की ओर किसी का ध्यान नहीं है। इस कार्य में वेद और सत्यार्थप्रकाश प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं परन्तु इसके लिये देश विदेश में सत्यान्वेशी धार्मिक मनुष्य उपलब्ध नहीं है इसलिये ऋषि दयानन्द का वेद को परमधर्म स्वीकार कराने का स्वप्न अधूरा है। ईश्वर ही लोगों के हृदयों में प्रेरणा कर इसे पूरा कर सकते हैं। उसी से प्रार्थना है कि वह लोगों के हृदय में वेदों में निहित ईश्वरीय सत्य ज्ञान को ग्रहण करने और मिथ्या ज्ञान का त्याग करने की प्रेरणा करें जिससे वेद सार्वभौमिक धर्म व मत बन सके। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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