महापुरुषों का आर्विभाव ऋतुराज बसन्त की तरह होता है
महापुरुषों का आर्विभाव ऋतुराज बसन्त की तरह होता है
धरती रूप सवारती,
जब आवै ऋतुराज।
सौन्दर्य मौद सुगन्ध का,
होता है आगाज़॥2531॥
धरती और समाज के भूषण कौन है –
सज्जन भूषण लोक के
धरती का है बसन्त।
कायाकल्प कर देत है,
नेक सलाह से संत॥2532॥
धरती बसन्त के बिना और सभा सन्त के बिना कितने सूने लगते हैं:-
धरती की रौनक गई,
जब चला जाय बसन्त ।
जैसे किसी सभा से,
पलायन करें कोई सन्त॥2533॥
क्षमा और दण्ड में अन्तर-
शान्ति और उल्लास क्षमा में,
दण्ड़ में है उल्लास ॥
जो जितना क्षमावान है,
उतना प्रभु के पास॥2534॥
जहाँ बुढ़ापा प्रभावहीन होता है –
अपमान उपेक्षा रोग का,
जहाँ नहीं संगात।
चेहरे पर मुदिता रहे,
लगै खिला परिजात॥2535॥
“विशेष शेर”
फ़न कुचलना आता हैं मुझे,
साँप के भय से,,
जंगल नहीं छोड़ा करते ।
(एक ऊर्दू शायर)
कितने विस्मय की बात सखे !
कण-कण में दिखता मुझे,
प्रभु तेरा ही नूर ।
आत्मा में परमात्मा,
परिचय को मजबूर॥2536॥
जिसे वेद ने ‘रसो वै सः’ कहा उससे रसना ही मिलाती है –
इसना रट हरि – नाम को,
छोड़ व्यर्थ के काम ।
भवसागर तर जायेगी,
मिले हरि का धाम॥2537॥
तत्त्वार्थ:- व्यर्थ के काम से अभिप्राय है निन्दा – चुगली करना , छल-कपट कटु बोलना कटाक्ष करना, उपहास करना और असत्य बोलना असगंत बकवास करना इत्यादि ।
परमपिता परमात्मा को खोजो नहीं, उसकी याद में खो जाओं: –
सांसो की ये श्रृंखला,
घटती जावे रोज।
खो जा हरि की याद में,
मत कर हरि की खोज॥2538॥
परमपिता परमात्मा दिखता नही उसकी अनुभूति होती है : –
फूल की खुशबू में निहाँ,
प्रभुवर ! तेरा रूप ।
निराकार दिखता नहीं,
अनुभूति है अनूप॥2839॥
क्रमशः
