गुरदे फेल होने पर आयुर्वेदिक उपचार

डॉ. अनुराग विजयवर्गीय

(लेखक प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य हैं।)

मानव शरीर में स्वस्थ अवस्था में गुरदे लगभग एक सौ पच्चीस मिलीलीटर रक्त एक मिनट में शुद्ध करते हैं। गुरदों के द्वारा हमारे शरीर से विषाक्त एवं अनुपयोगी तत्व बाहर हो जाते हैं। जब गुरदों की यही कुदरती क्रिया बाधित होती है, तो रक्त से विष जातीय तत्व बाहर नहीं हो पाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप रक्तगत विषाक्तता बढऩे लगती है। यह स्थिति जानलेवा सिद्ध होती है। इसे ही गुरदों का फेल होना नाम से जाना जाता है। चिकित्सकीय भाषा में इसे एनयूरिया अथवा सप्रैषन ऑफ यूरिन भी कहा जाता है। गुरदे फेल होने के प्रमुख रूप से दो प्रकार कहे गए हैं। पहला प्रकार है – एक्यूट किडनी फेल्योर। दूसरा प्रकार है क्रोनिक किडनी फेल्योर।
एक्यूट किडनी फेल्योर के लक्षण

 अचानक पैदा होता है।

 मूत्र-त्याग करने में बहुत ही कमी आ जाती है।

 सारे शरीर में सूजन आ जाती है।

 त्वचा में खुजली होना

 इस अवस्था में जब रोगी का वजन दिन प्रतिदिन बढऩे लग जाए, तो समझें कि खतरा बढ़ रहा है।

 रोगी के चेहरे पर सूजन आने लगती है।

 रोगी उल्टी आने तथा बहुत अधिक थकान की शिकायतें कर सकता है।

 जैसे-जैसे रोग बढऩे लगता है तो रोगी की श्वास में भी पेशाब की दुर्गंध आने लगती है, जो कि एक मारक लक्षण कहा जा सकता है।

 गुरदों का तीव्र संक्रमण भी गुरदे फेल होने का प्रमुख कारण है।

 अनेक बार गुरदों पर लगी तीव्र चोट भी गुरदे फेल होने का कारण बन जाती है।

 अन्यान्य कारणों में डिहाइड्रेशन, विषाक्तता, बर्न (जलना) तथा अन्यान्य अवयवों में पैदा हुआ फेल्योर भी इसका कारण माना जाता है। गर्भवती महिलाओं में पैदा हुआ टॉक्सीमिया भी इसका कारण माना गया है।

क्रोनिक किडनी फेल्योर के लक्षण

 यह अवस्था बहुत धीरे-धीरे पैदा होती है। एलोपैथिक विशेषज्ञों के अनुसार यह अवस्था सामान्य तौर पर अपरिवर्तनीय होती है, जबकि आयुर्वेद के अनुसार रोग की इस अवस्था में भी उपचार किया जाना सम्भव होता है, तथा अनेक सकारात्मक सम्भावनाएं रहती हैं।

 आरंभ में रोग के स्पष्ट लक्षण दृष्टिगत नहीं होते हैं लेकिन धीरे-धीरे थकान, सुस्ती, सिरदर्द इत्यादि लक्षण पैदा होने लगते हैं।

 अनेक रोगियों में पैर में ख्ंिाचाव आना, मांसपेशियों में खिंचाव आना, हाथों एवं पैरों में सुन्नता आना तथा दर्द होना इत्यादि लक्षण देखने को मिलते हैं।

 रोग की बढ़ी हुई अवस्था में जब रोगी का वजन बढऩे लगता है, तो रोगी भूख कम लगने की शिकायतें करता है। उल्टी आने, जी-मिचलाने तथा मुंह का स्वाद खराब होने की शिकायतें करता है।

किडनी फेल्योर के अन्यान्य कारण

 ग्लोमेरुनेफ्रायटिस: इस रोग में गुर्दों की छनन-यूनिट(नेफ्रांन्स) में धीरे-धीरे सूजन आ जाती है तथा ये नष्ट हो जाते हैं। साधारणतया गुरदे फेल होने का यह सबसे साधारण कारण माना जाता है।

 मूत्र के वेग को रोकने की आदत

 अधिक मात्रा में नमक का सेवन करना

 बहुत ही कम मात्रा में पानी पीना

 मधुमेह (डायबिटीज), उच्च रक्तचाप (हाइपरटेंशन) भी धीरे-धीरे गुरदों की कार्यक्षमता को बुरी तरह से प्रभावित करते हैं।

 विविध दर्द-निवारक औषधियों तथा प्रतिजीवी औषधियों का अंधाधुंध और निरंतर सेवन करना।

 अंधाधुंध मांस-मदिरा का सेवन करना

 सॉफ्ट-ड्रिंक्स एवं विविध कोल्ड-ड्रिंक्स का सेवन करना

 गुरदों में गांठों का पैदा होना(पोलीसिस्टिक किडनी)

 वृक्कीय धमनी का सिकुडऩा

 दुर्घटना में चोट लगना

 लंबे समय किसी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त रहना

 गुरदों में सूजन, संक्रमण

 एक गुरदे शरीर से निकाल देना

 हृदयाघात (हर्ट अटैक)

 शरीर के किसी अन्य अंग की प्रक्रिया में बाधा आना

 डिहाइड्रेशन(जलाल्पता)

 विष सेवन कर लेना

 गर्भावस्था की विषाक्तताएं।

 बहुत तेज एवं भागदौड़ वाली जीवन-शैली, आराम का नितांत अभाव

क्या कहता है आयुर्वेद?
आयुर्वेद में दोनों गुरदों, मूत्रवाहिनियों, मूत्राशय इत्यादि अवयवों को एकत्र रूप में मूत्रवह स्रोतस नाम दिया गया है।
कब होते हैं मूत्रवाही स्रोतस खराब?

 जब कोई व्यक्ति मूत्र की हाजत होने पर भी मूत्र त्याग नहीं करके, पानी पीता है, या मूत्र त्याग करने के स्थान पर आहार ग्रहण करता है।

 अधिक स्त्री सहवास करना

 मूत्र के वेगों को रोकना

 रस रक्त इत्यादि धातुओं में पैदा हुई कमजोरी

 गुरदों इत्यादि अवयवों पर चोट लगना

 आयुर्वेद में इस रोग को मूत्रक्षय एवं मूत्राघात नामों से परिभाषित किया गया है। आयुर्वेदीय ग्रंथ माधव निदान के अनुसार रूक्ष प्रकृति तथा विविध रोग इत्यादि से कमजोर हुए व्यक्ति के मूत्रवह संस्थान में पित्त और वायु नामक दोष प्रकुपित होकर मूत्र का क्षय कर देते हैं, जिससे रोगी को पीड़ा एवं जलन होने लगती है। यही रोग मूत्रक्षय है। इस अवस्था में मूत्र बनना कम या बंद हो जाता है।
आयुर्वेदीय उपचार कैसे करें

 नियमित रूप से अनुलोम-विलोम प्राणायाम का अभ्यास करें। इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति का तनाव-प्रबंधन करने पर रोग निवारण में बहुत लाभ मिलता है। अनुलोम-विलोम के सतत अभ्यास से रोगी के तनाव में आश्चर्यजनक ढंग से कमी आने लगती है तथा उसमें भरपूर मात्रा में आषा का संचार होने लगता है।

सीरम क्रिएटिनीन व यूरिक ऐसिड बढऩे पर – रोगी को उन खाद्य पदार्थो से परहेज कराएं, जिनमें प्रोटीन (प्यूरीन) की मात्रा अधिक पाई जाती है। जैसे, विविध अंगों का मांस जैसे यकृत, गुरदे, दिमाग, मांस रस, सूखा मांस, शोरबा, सूखे हुए मटर, हरे मटर, फ्रैंचबीन, बैंगन, मसूर, उड़द, चना, बेसन, कढ़ी, अरबी, कुलथी, राजमा, भिंडी, सेम, पालक, मेथी, बथुआ इत्यादि हरी-सब्जियां दही, लस्सी, अचार, विविध बेकरी उत्पाद, पनीर, मशरूम, चीकू, सेब, इमली, अमचूर, आइसक्रीम, जिमीकंद, कांजी, रेड वाइन, बियर तथा अन्यान्य अलकॉहलिक पेय-पदार्थ। समुद्री नमक का सेवन भी पूरी तरह से बंद करदें। हलकी मात्रा में सैंधा-नमक सेवन किया जा सकता है। कम मात्रा में टमाटर भी सेवनीय हैं। नींबू का रस भी सेवन किया जा सकता है। कालीमिर्च का सेवन भी लाभप्रद है। चैरी का सेवन भी अमृत के समान लाभप्रद है। पाइन ऐपल तथा आलू का सेवन भी हितकारी है।

ब्लड प्रेशर बढऩे पर समुद्री नमक, इमली, अमचूर, लस्सी, चाय, कॉफी, तली भुनी चीजें, पूरी-परांठा, मिठाइयां इत्यादि गरिष्ठ आहार, अति परिश्रम, अधिक मात्रा में कसैले खाद्य-पदार्थ, धूप में रहना, अधिक क्रोध, स्त्री सहवास, चिंता, अधिक बोलना इत्यादि से अनिवार्य रूप से परहेज करें। काले नमक का सेवन करना लाभप्रद है, क्योंकि यह धमनियों में रक्त-प्रवाह को सुचारु रूप से करता है तथा उनमें आए हुए अवरोधों को दूर कर देता है।
ग्ुारदे फेल होने पर ऐसे खाद्य-पदार्थों का सेवन करें, जिनमें नमक तथा फास्फोरस की मात्रा कम हो। पोटेषियम की मात्रा भी नियंत्रित होनी हितकर है। इस दृष्टि से केले का सेवन बहुत ही लाभप्रद सिद्ध होता है। दिन भर में अनेक बार केले का सेवन करना चाहिए। केले में प्रचुर मात्रा में कार्बोहाइड्रेट्स पाए जाते हैं और इनमें कम मात्रा में प्रोटीन एवं नमक पाए जाते हैं। टमाटर (कम मात्रा में), सिरका (कम मात्रा में)।

सेवन करें – बीट, गाजर, तोरई, टिंडे, ककड़ी, अंगूर, तरबूज, अनानास, नारियल पानी, गन्ने का रस, इलायची, सेब। यदि डायबिटीज है तो गन्ने के रस का सेवन नहीं करें। विषेष बात यह है कि सभी फल मूत्र को खुलकर लाने तथा मूत्र की मात्रा को बढ़ा देने वाले गुणों से युक्त होते हैं। किडनी फेल होने की अवस्था में इनका सेवन किया जाना अमृत के समान लाभ देता है।

मोसमी, संतरा, किन्नू, कीवी, खरबूजा, आंवला, पपीता का सेवन भी परम हितकर माना जाता है। रात को तांबे के बरतन में रखा हुआ पानी सवेरे पिएं।

सेवन कर सकते हैं- अमचूर, गाजर का सूप, कुलथी का काढ़ा, गोखरू से बना हुआ काढ़ा, ककड़ी, खीरा ,नींबू का रस, दही, काली मिर्च, चैरी, पत्ता गोभी, पाइन ऐपल, रैड केबेज, संतरा, आलू।

पोटेशियम के प्रमुख स्रोत – बाजरा, मक्की, पालक, बैंगन, करेला, टमाटर (हरे), शकरकंद, कमल ककड़ी, आलू, पपीता, बेल का फल, आडू, खूबानी, लुकाट, तरबूज, चैरी, नींबू, प्लम, आंवला, आम, दूध, दही। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिन रोगियों का पोटेशियम बढ़ा हुआ हो, उनको इन खाद्य-पदार्थों का संतुलित मात्रा में सेवन करना चाहिए। अथवा जरूरत के अनुसार पूरी तरह बंद कर देना चाहिए।

शरीर में लौह-तत्व की कमी होने की अवस्था में गिलोय एवं व्हीट ग्रास जूस का सेवन करते रहने से चमत्कारिक लाभ प्राप्त होते हैं।

गैंहू एवं विविध दालों के मेल से बने हुए हलके एवं आसानी से पचने वाले खाद्य-पदार्थ गुरदों की सेहत के लिए अच्छा है।

जस मौसम में जो फल-सब्जियां पैदा होती हैं, उनका सेवन किया जाना सेहत के लिए अमृत के समान लाभप्रद माना गया है। बिना मौसम के पैदा होने वाली फल-सब्जियों को पकाने में काम में लाए जाने वाले विविध रसायन गुरदों के लिए बेहद हानिप्रद सिद्ध होते हैं

 मीठे सोडे का सेवन करना भी बहुत हानिप्रद है।
नमक की अधिकता वाले खाद्य-पदार्थ

सॉल्टेड नट्स, पिकल्स, चटनी, बिस्किट्स, विविध बेकरी उत्पाद, हरे मटर, पालक, फ्रेंच बीन, बैंगन, कॉलीफ्लॉवर, मषरूम, चीकू, कस्टर्ड, ऐपल, चिप्स, फ्रेंच फ्राइज।

तरल पदार्थो का भी नियंत्रित मात्रा में ही सेवन किया जाना चाहिए।

प्रोटीन का सेवन भी नियंत्रित मात्रा में ही किया जाना चाहिए, अन्यथा गुरदों पर अतिरिक्त भार पड़ सकता है।

रोगी को केवल उबली हुई सब्जियों पर ही रहना चाहिए। किसी भी प्रकार का तड़का निषेध किया जाना चाहिए। भूलकर भी मिर्च-मसालों का सेवन नहीं किया जाना चाहिए।

रोटी के स्थान पर चावल का सेवन किया जाना अधिक हितकर है। लौकी का सेवन अति हितकर है। उबले हुए आलुओं का सेवन किया जाना भी लाभ देता है।

आयुर्वेदिक औषधियों पुनर्नवा मंडूर, गोक्षुरादी गुग्गुलु, चंद्रप्रभा वटी, श्वेत पर्पटी, गिलोय सत्व, मुक्ता पिष्टी, मुक्तापंचामृत रस, वायविडंग इत्यादि का सेवन किसी सुयोग्य आयुर्वेद विशेषज्ञ की देखरेख में करने से बहुत लाभ होता है। आयुर्वेद के द्वारा अनेकानेक रोगियों को गुरदे फेल होने की विविध स्थितियों में आराम मिलकर उनकी प्राणरक्षा होती है। लक्षणों के अनुरूप अन्यान्य औषधियों का भी सेवन कराया जा सकता है। ऐसे रोगियों को नियमित रूप से एलोवैरा, व्हीट ग्रास तथा गिलोय के जूस का सेवन करते रहना अमृत के समान लाभ देता है और डायलिसिस इत्यादि कारणों से कम हुआ हीमोग्लोबिन बढऩे लगता है।

यदि मूत्र निर्माण की प्रक्रिया पूरी तरह से बंद नहीं हुई है तथा कम मात्रा में मूत्र निर्माण हो रहा है, तो उस स्थिति में प्राणरक्षक आयुर्वेदिक औषधि पुनर्नवा का सेवन कराएं। पुनर्नवा की मुख्य क्रिया ग्लोमेरुलि पर होती है, जो कि गुरदों में स्थित रहने वाले सिराओं के गुच्छे ही हैं। इस हरबल औषधि में ऐसी विलक्षण क्षमता है कि यह चमत्कारिक ढंग से एवं निरापद रूप से रक्त निर्माण प्रक्रिया को बढ़ा देती है, जिससे अनेक रोगियों की जीवन रक्षा हो पाती है। पुनर्नवा के द्वारा होने वाली कुदरती डायलिसिस की प्रक्रिया इतनी उत्तम होती है कि बाद में पुनर्नवा का सेवन बंद कर देने पर भी रोगी अनेक दिनों तक टिक जाता है तथा महंगी डायलिसिस प्रक्रिया से बच जाता है।

किडनी का सिकुडऩा – इन दिनों ऐसे रोगी भी बहुत संख्या में आने लगे हैं, जिनको डॉक्टर्स ने कह दिया है कि उनकी किडनी सिकुड़ गई है और किडनी ट्रांस्पलांट ही इसका इलाज रह गया हो तो ऐसे रोगियों को निराष होने की जरूरत नहीं है। उनके लिए आयुर्वेद का साक्षात वरदान-स्वरूप औषधि बता रहा हूं-

मकोय नामक हर्ब के पचांग को अच्छी तरह से धोकर इसका रस निकाल कर बोतल में रख लें। इस रस में से चार चम्मच भर मात्रा में दिन में दो बार पी लें। तीन महीनों के बाद अल्ट्रा सोनोग्राफी करवा लें। मकोय के पत्तों की सब्जी बनाकर भी खाया जाता है। सब्जी भी समान रूप से लाभकारी है।

गुरदों की खराबी से मूत्र निर्माण प्रक्रिया बंद होना – इस अवस्था में मूली और मूली के पत्तों का रस साठ मिलीलीटर की मात्रा में पीने से वह फिर से बनने लगता है। इस प्रयोग से पेषाब की जलन और वेदना भी मिट जाती है।

नियमित रूप से नीम की छाल से बनाए हुए काढ़े का सेवन करने से बढ़ा हुआ क्रिएटिनीन सामान्य अवस्था में आ जाता है। इसी प्रकार बढ़े हुए ब्लड यूरिया के स्तर को सामान्य अवस्था में लाने के लिए पीपल की छाल के काढ़े का सेवन कराया जाता है।
गुरदों को स्वस्थ-सबल बनाए रखने के लिए आहार
सेवन करने से बचें-

 फल-आम, केला, संतरा, मौसमी, नारियल पानी, कच्चा-नारियल, चीकू, प्लम, पीच, अमरूद।

सब्जियां-चुकंदर, हरी मेथी, पालक, बैंगन, कद्दू, सरसों का साग।

धान्य-सभी प्रकार के चोकर-युक्त धान्य

सूखे मेवे-काजू, मूंगफली, पिस्ता, खजूर, मुनक्का

दालें-उड़द, राजमाष

वसा-घी, मक्खन, चिकन, मछली, मटन तथा अनेक प्रकार के डिब्बाबंद खाद्य-पदार्थ।

डेयरी उत्पाद-फ्लेवर्ड दूध
सेवन करें-

फल-अंगूर, स्ट्राबैरी, पपीता, अनार, सेब, पाइन ऐपल, तरबूज, चैरी, नींबू।

सब्जियां-तोरई, परवल, टिंडा, चौलाई, लाल मूली, षिमला मिर्च, फूल गोभी, बंद गोभी, करेला, सूखा अथवा हरा धनिया।

धान्य-गैंहू, मक्का, जौ, चावल, साबूदाना, एवं इनसे बने हुए खाद्य-पदार्थ।

सूखे मेवे- अखरोट

दालें-मूंग दाल, अरहर दाल, मसूर दाल।

वसा-सरसों का तेल, राइस ब्रान तेल

भोजन करने के तुरंत बाद मूत्र-त्याग करने की आदत से जीवन भर गुरदे स्वस्थ एवं सबल बने रहते हैं तथा कभी भी यूरिक ऐसिड बढऩे तथा गुरदे फेल होने की षिकायत नहीं रहती है। ऐसे लोगों को जीवन में कभी भी पथरी नहीं बनती है तथा अनेक प्रकार के मूत्र सम्बंधी रोगों से बचाव रहता है। उनके शरीर में हलकापन बना रहता है। उनका भोजन शीघ्र पच जाता है। मेरे पिता श्री मोतीलालजी विजयवर्गीय जीवन भर इस प्रयोग को करते हुए दीर्घायु बने रहे। इसीलिए भोजन करने के बाद मूत्र-त्याग अनिवार्य रूप से करना चाहिए।

भोजन के बाद मूत्र-त्याग करने के बारे में हमारे बुजुर्गों को बखूबी ज्ञान था, जिसका उल्लेख अनेक लोक-कहावतों में मिलता है। ऐसी ही एक लोक-कहावत यहां पर प्रस्तुत की जा रही है-
खाइ के मूतै सोवे बाम।
कबहुं ना बैद बुलावै गाम।
अर्थात भोजन करने के बाद जो व्यक्ति मूत्र-त्याग करता है तथा बांई करवट सोता है, वह सदैव स्वस्थ रहता है, तथा वैद्यों एवं डॉक्टरों की शरण में जाने से बचता है।

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