एक अद्भुत और अनूठी रही काशी शास्त्रार्थ महोत्सव शोभायात्रा गुरुकुल राजघाट नरौरा , भाग 1

आर्य समाज के संस्थापक एवं युग प्रवर्तक, सत्य एवं धर्म के पोषक, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम उद्घोषक, क्रांति दूत,धर्म संस्कृति के पुरोधा,शास्त्रार्थ महारथी, वेद मर्मज्ञ महर्षि दयानंद सरस्वती का नाम मानव इतिहास में सदैव अमर है। जिस समय महर्षि का जन्म हुआ उस काल में भारत वर्ष में पूर्णरूपेण अविद्या, अज्ञान का अंधेरा था। चारों ओर धर्मांन्धता,अंधविश्वास एवं पाखंड का बोलबाला था। राष्ट्र में शास्त्रों का नाम लेकर शास्त्री बहकाने में लगे हुए थे। वेदों के सारगर्भित अर्थ का अर्थ बदलकर अनर्थ करने में लगे हुए थे। वेदों को भस्मासुर ले गया है,शंकासुर ने समाप्त कर दिया है। कहीं भी अब दुनिया मे वेद दिखाई नहीं देते। बचे- खुचे वेदों को विधर्मी यवन और यूरोप वाले ले गये। इस प्रकार उस समय के शास्त्रज्ञ, पाखंड, धर्मान्धता और अंधविश्वास को बढ़ावा देने में लगे थे। अविद्या एवं अज्ञान फैलाने में ही अपनी निपुणता समझते थे। इसी कारण राष्ट्र पतन की ओर जा रहा था।

महर्षि दयानंद का ऐसे समय में प्रादुर्भाव हुआ। महर्षि इस कालखंड में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता देख चुके थे। किस प्रकार अदभुत शौर्यता को कुचल दिया गया। इसी काल में महर्षि दयानंद ने मथुरा नगरी में प्रवेश कर वेदों के प्रकांड पंडित और व्याकरण के सूर्य दण्डी गुरु बिरजानंद से ज्ञान ग्रहण किया। प्रज्ञाचक्षु गुरु बिरजानंद ने समस्त शंकाओं को दूर कर दिया। मात्र वैदिक सत्य ज्ञान देकर उन्हें विदा करते समय कहां “संसार में घोर अंधेरा है,जाओ संसार में सत्य का प्रकाश कर दो, बस मेरी यही दक्षिणा है। ” इस सुखांत आशीर्वाद को पाकर महर्षि दयानंद ने उद्घोष किया था:- ‘वेदो की ओर लोटो ‘ अर्थात्-

संश्रुतेन गमेमहि।

वेद ही स्वतः प्रमाण है , क्योंकि यह ईश्वरकृत है अन्य ग्रंथ परत: प्रमाण है।अन्य ग्रंथों की प्रामाणिकता वेद से ही सिद्ध होती है। इसी श्रंखला मे महर्षि ने देखा कि सारे राष्ट्र में पाखंड, अंधविश्वास,धर्मान्धता की जड़ कहां से पल्लवित हो रही है ? उन्होंने अपने अध्ययन से पाया कि इसकी मूल जड़ काशी है, वहीं से यह पाखंड पनपता है। अतः वे 10 अक्टूबर 1869 को काशी में पहुंचे जो पापाचार की नगरी बन चुकी थी। वहां जाकर महर्षि दयानंद ने राजा ईश्वर नारायण सिंह के माध्यम से वहां के सन्यासी तथाकथित पंडित एवं राजपुरोहितों को शास्त्रार्थ हेतु ललकारा । क्योंकि ये सब राजा महाराजाओं की सुविधाओं पर राजभोग, मोहनभोग का रसास्वादन लेकर अशिक्षित एवं शोषित समाज का उल्लू बना रहे थे। अतः राजा ने इस अवधूत की चुनौती को स्वीकार किया। राजा ने अपने पंडितों को निर्देश दिया। इस सन्यासी को शास्त्रार्थ में पराजित कर धर्म नगरी काशी की लाज बचाएं।

तब सभी पंडितों ने राजा से कहा राजन! सन्यासी वेदों को ही प्रमाण मानता है , अन्य को नहीं। हमने वेदों को देखा भी नहीं है , पढ़ने की बात तो दूर की है। तब राजा ने कहा कि हम आपको वेद उपलब्ध कराते है और आप स्वाध्याय कर धर्म नगरी काशी की लाज बचाएं। इस शास्त्रार्थ की तिथि काशी नरेश ने 16 नवंबर 1869 को निश्चित कर दी।

अन्त में वह दिन आ ही गया कि हजारों-हजारों लोगों की उपस्थिति में काशी की हार हुई और महर्षि दयानन्द की जय जयकार हुई। इस प्रकार ऋषि ने करारी चोटों से चोट कर तथाकथित पंडितों की धज्जियां उधेड दी और पाखंड की पोल खुल गई। इस प्रकार सारे भारतवर्ष में घूम-घूम कर एवं कुंभ के मेलों में पाखंड खण्डिनी पताका के साथ पाखण्ड पर आक्रामक प्रहार किया। वेदों के इस प्रचार से ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिलने लगी और उनके प्रवचनों पर पूर्ण निगरानी रखी जाने लगी । महर्षि दयानंद ने हिंदू पंथ में आई बुराइयों की पोल खोल दी तो साथ-साथ ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन, पारसी, यहूदी, चावीक, आदि पंथों पर करारी चोट कर उनकी भी पोल खोलकर बखिया उधेड़ दी।यहाँ तक कि अब उनकी आवाज ब्रिटेन, जर्मन, अमेरिका, कनाडा अन्य यूरोप के पश्चिमी देशों में जाने लगी और वहां के शिक्षाविदों से पत्राचार होने लगा। इस पत्राचार का ‘महर्षि दयानंद का संसार पर जादू’ पुस्तक में देखा जा सकता हैI लंदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री को राजकीय प्रवक्ता द्वारा सूचित किया गया कि एक बागी फकीर भारत में स्वराज्य प्राप्त करने हेतु आग उगल रहा है। राष्ट्र वंदना में ………. पुस्तक में 108 मंत्रों से राष्ट्रीय स्तुति की गई है।उसके प्रवचनों में राष्ट्र को सर्वोपरि रखा जाता है।

बंधुओ, बहिनों ! सन 1893 में इसी धरती पुत्र स्वामी विवेकानंद ने शिकागो सम्मेलन में अपनी आवाज को गुन्जायमान कर संसार को संदेश देकर मां भारती के नाम को उज्जवल कर संसार को चकित किया तो महर्षि दयानंद ने अपनी सारस्वत वाणी और पत्राचार से समस्त भूगोल को सावचेत किया कि ‘वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है,वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना- सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।’ महर्षि ने विदेशी राज्य का खंडन करते हुए कहा कि ‘ विदेशी राज्य माता-पिता के समतुल्य क्यों ना हो , परंतु स्वदेशी राज्य ही अच्छा होता है।’ऐसी निर्भीक वाणी कोई आत्मवेत्ता , ब्रहमबल, क्षत्रबल वाला ही बोलता है। महर्षि दयानंद ने इस निर्भीक वाणी से अंग्रेजों को चकित कर दिया। ऐसा अदम्य साहस वाला संन्यासी उन्होंने पहली बार देखा।

महर्षि दयानंद के इन ऐतिहासिक पलों को याद रखते हुए आर्य प्रतिनिधि सभा बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश) एवं गुरुकुल राजघाट (नरौरा) ने निर्णय किया कि सारे राष्ट्र में काशी शास्त्रार्थ पवित्र पर्व के रूप में मनाया जा रहा है, विशेषकर काशी नगरी में इसका मुख्य आयोजन अंतर्राष्ट्रीय महासम्मेलन के रूप में मनाया जा रहा है।अतः हम भी महर्षि दयानंद आर्ष गुरुकुल राजघाट में काशी शास्त्रार्थ महोत्सव का आयोजन करें। इसी संदर्भ में आर्य प्रतिनिधि सभा बुलंदशहर एवं राजघाट गुरुकुल के पदाधिकारियों एवं जिले के गणमान्य विशिष्ट महानुभावों की बैठक आयोजित हुई, जिसकी अध्यक्षता 14 सितंबर 2019 में गजेंद्र सिंह आर्य वैदिक प्रवक्ता (पूर्व प्राचार्य) ने की । जिसमें काशी शास्त्रार्थ पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की चर्चा हुई जिसे सर्वसम्मति से स्वीकृति प्रदान की गई।इस परिचर्चा में अन्य गणमान्य के साथ-साथ सर्व श्री क्षेत्रपाल सिंह पूर्व प्रधानाचार्य, आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान गंगा प्रसाद निराला, मंत्री वीरेंद्र सिंह आर्य,कोषाध्यक्ष बनारसीदास गुप्त, सुरेश कालिया, सुरेंद्र,सौरभ गुरुकुल राजघाट प्रबंधक राम अवतार आर्य, चंद्र पाल आर्य आदि ने भी भाग लियाI इस कार्यक्रम का नेतृत्व करने हेतु गुरुकुल राजघाट के संचालक युवा योगेश शास्त्री पुरोहित कोलकाता को जिम्मेदारी दी गई है।

सर्वप्रथम सभा ने निर्णय लिया कि महर्षि दयानन्द की तप:स्थली एवं जिन-जिन गांव में प्रचार प्रसार के दौरान रात्रि विश्राम हुए हैं उन गांव मे आर्य समाज की विशाल शोभायात्रा निकाली जाए। ऐसे लगभग 17 गांव चयनित किए गए । यथा चांसी,खंदोई, दराबर, ताहर पुर,अहार (पूर्व नाम कुंडलपुर) इसी कुंडलपुर की माता रुक्मणी (धर्मपत्नी योगेश्वर कृष्ण) बताई जाती है। बच्ची खेड़ा, सिरोटा, तोरई, अनूप शहर, करण वास,राजघाट (नरौरा) बेलोन,दारापुर, डिबाई, जरगांव, कखेतलरायपुर, सिकरना हरूदुआगंज (साधुआश्रम), छलेसर, पंडरावल आदि प्रमुख है।

सर्वप्रथम सभी लोग गुरुकुल राजघाट पर प्रातः 10 अक्टूबर 2019 को एकत्रित हुए और कुछ लोग दूरस्थ स्थानों से चांसी बुलंदशहर गंगा तट स्थित महर्षि की तप:स्थली पहुंचे। राजघाट के ब्रह्मचारी भी अपने आचार्यों के साथ पहुंचे। पूर्व में ही 14 सितंबर 2019 को गजेंद्र सिंह आर्य वैदिक प्रवक्ता की अध्यक्षता में निर्णय हो चुका था कि यज्ञ चांसी में दोनों बरगद वृक्षों के नीचे किया जाएगा । क्योंकि वह बुलंदशहर के आगमन पर उनकी प्रथम तप:स्थली है।आज भी वे वटवृक्ष महर्षि दयानन्द की तपःस्थली के साक्षी है ऐसा उस गांव के खेत के मालिक श्री विद्याधर शर्मा ने एवं गांव चांसी प्रधान संजय बैसल ने पुष्टि की। वट वृक्ष के नीचे एक झोपड़ी है जिसमें अब एक पौराणिक साधु रहता है। वृक्षों की आयु भी 200 वर्ष से अधिक जान पड़ती है , क्योंकि वृक्ष अपनी उम्र के ढलान पर है। यह स्थान एक ब्राह्मण परिवार विद्याधर शर्मा के खेत का भू भाग है। विद्याधर शर्मा के दादा श्री मोतीराम शर्मा ने 110 वर्ष पहले यह भूभाग सामंतों से क्रिय किया था। विद्याधर शर्मा एवं अन्य गांव के वृद्धों ने बताया कि महर्षि ने लगभग 6 माह इन्हीं वट वृक्षों के नीचे साधना की थी। एक प्रश्न के उत्तर में विद्याधर शर्मा ने मुझे स्वयं (गजेंद्र सिंह आर्य) को बताया कि आर्य समाज यहां अगर गुरुकुल खुलता है तो मैं यह भूमि आर्य समाज गुरुकुल को लोकार्पण कर दूंगा।

इस रमणीक एवं पवित्र स्थान पर पूर्व प्राचार्य गजेंद्र सिंह आर्य के ब्रह्मत्व में यज्ञ का आयोजन प्रातः 7:00 बजे से 8:00 बजे के मध्य हुआ। इस अवसर पर एक सहस्त्र से अधिक व्यक्ति उपस्थित थे। इस अवसर पर गुरुकुल राजघाट के कुलपति चंद्रदेव शास्त्री,वीर प्रसूता वसुंधरा से स्वामी चेतनानंद भरतपुर अलवर से अपनी टीम के साथ सुबह बना रहे थे तथा आर्य प्रतिनिधि शोभा बढ़ा रहे थे तथा आर्य प्रतिनिधि सभा के कप्तान सुरेंद्र सौरव आर्य प्रतिनिधि सभा के संरक्षक क्षेत्रपाल सिंह आर्य (पूर्व प्राचार्य) प्रधान गंगा प्रसाद निराला, मंत्री वीरेंद्र आर्य,इंस्पेक्टर देवेंद्र आर्य खुर्जा,आर्य समाज प्रधान अनूपशहर,बृजमोहन शर्मा, सुरेश शर्मा, डॉक्टर तेज सिंह दौलत नगर आदि गणमान्य लोगों की उपस्थिति रही। उन वट वृक्षों की छाया में योगेश शास्त्री द्वारा गुरुकुल के ब्रह्यचारियों से उद्घोषों का गुंजायमान हुआI ब्रह्यचारियों का व्यायाम प्रदर्शन हुआ। चांसी से 50 से अधिक कार, मोटरसाइकिल आदि वाहनों से 180 किलोमीटर लंबी शोभा यात्रा का संकल्प लिया। यज्ञोपरांत प्रातःराश गांव की ओर से दिया गया और साधुओं का पुष्पगुच्छ देकर सम्मान किया।शोभायात्रा में वाद्य यंत्रों के साथ ऋषि गाथा एवं अन्य संगीत की स्वर लहरियों से भीड़ एकत्रित हो जाती थी।चांसी से शोभायात्रा खदोई गांव में पहुंची।इस गांव के चौधरी छतर सिंह महर्षि के समकालीन ‘सोअहम’ के सत्संगी थे। महर्षि दयानंद के समझाने पर भी बार-बार छत्तर सिंह कह रहे थे कि मै भी ब्रह्म और तुम भी ब्रहम हो।मुझमें और आप में कोई भेद नहीं है। इस पर महर्षि दयानंद ने उनके गाल पर एक चपात (चांटा) लगा कर कहा कि भइया चाँटा लगा तो नही है , ब्रहम ने ब्रहम को चांटा मारा है।इस चपत से चौधरी छत्तर सिंह आर्य समाजी हो गये और अंतिम समय तक आर्य समाज का प्रचार किया।

खंदोई से निकलकर शोभायात्रा शफीनगर पहुंची , इस गांव में भी स्वामी ने प्रवास किया था। गांव वालों ने भव्य स्वागत किया। शफी नगर से शोभायात्रा दारावर ताहरपुर होती हुई अहार पहुंची । वहां भी शोभायात्रा का भव्य स्वागत हुआ। आहार हिंदुओं का पवित्र तीर्थ स्थल है।आहार के बाद शोभायात्रा बनवारीपुर, पोंटा, बढ़पुरा चौराहा होती हुई जहांगीराबाद पहुंची। मुख्य बाजारों से होती हुई मध्य चौराहे पर आर्य समाज प्रधान रावल एवं अन्य गणमान्य लोगों ने भव्य स्वागत किया।जहांगीराबाद कस्बा अनूप शहर के राजा अनूप ने अकबर पुत्र जहांगीर को नजराने में भेंट किया था। यहां का छापाखाना उत्तर प्रदेश में प्रसिद्ध हैI

जहांगीराबाद से शोभायात्रा चांदौक ग्राम में पहुंची जहां पर ठाकुर सत्यवीर सिंह पूर्व प्राचार्य एवं ठाकुर ब्रजवीर सिंह ने अपने पुश्तैनी मकान पर भव्य स्वागत किया । यहां पर शोभायात्रा को देखने भीड़ उमड़ पड़ी जैसे आर्य समाज का कोई महासम्मेलन हो रहा है। ठाकुर सत्यवीर सिंह, राजवीर सिंह के दादा ठाकुर रघुवीर सिंह के यहां महर्षि का आगमन हुआ था। 1 माह से अधिक महर्षि दयानंद यहां ठहरे और बहुत प्रचार-प्रसार किया। इनके यहां प्रतिदिन सत्संग हुआ करता था। देवेंद्र आर्य जखेता के दादा (पितामह) चौधरी राम बख्श आसपास के गांव अजनाला, ढलना,लोहरा, असावरी,कुतुकपुर, ढुसरी आदि गांव वासी स्वामी जी को सुनने पहुंचते थे। पूर्व प्राचार्य सत्यवीर सिंह 85 वर्ष की आयु में पूर्ण स्वस्थ है।दोनों भाइयों को सत्य प्रकाश एवं आर्ष ग्रंथ देकर सम्मानित किया।नगेंद्र रावल प्रधान द्वारा प्रातः राश (कलेऊ) का बहुत अच्छा प्रबंध था। समस्त व्यवस्था देवेंद्र जखैता एवं जगदीश आर्य शिकारपुर की देखरेख में हो रहा था।गजेंद्र आर्य ने मुख्य वक्ता के रूप में ऋषि के जीवन पर प्रकाश डाला। झंडा बैनर से शोभायात्रा का अद्भुत नजारा था।

चांदौक के बाद शोभायात्रा बिरौली अनीवास करनपुर होते हुए अनूप शहर पहुंची।अनूप शहर के मुख्य बाजारों से गंगा तट स्थित नगर पालिका पर चेयरमैन गोपाल भैया ने अपने कर्मचारियों के साथ भव्य स्वागत कियाI आर्य समाज अनूपशहर के प्रधान बृजमोहन शर्मा एवं पूर्व प्रधान वीरेंद्र आर्य रवि भारद्वाज एवं शशि आर्या ने भी अभिनंदन किया। इस अवसर पर गुरुकुल राजघाट के कुलपति चंद्रदेव शास्त्री,संरक्षक क्षेत्रपाल आर्य, सुरेश आर्य थे । नगर पालिका की ओर से अल्पाहार की सुंदर व्यवस्था की थी।

पूर्व प्राचार्य गजेंद्रसिंह आर्य

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