प्रेम प्रसन्नता शांति तेरा मूल स्वभाव

बिखरे मोती

प्रेम प्रसन्नता शान्ति,

तेरा मूल स्वभाव।

इनमें टिकना सीख ले,

पार लगेगी नाव ॥ 1252॥

व्याख्या:- मनुष्य का स्वभाव है कि उसका मन अपनों में लगता है, अपने सगे संबंधियों में लगता है, बेशक वह धरती का स्वर्ग कहलाने वाले स्विटट्जरलैण्ड की रमणीक और मनोरम घाटियों में क्यो ना खड़ा हो। ऐसा व्यक्ति अपने निज-धाम अर्थात् अपने घर पहुंचने पर सहसा कह उठता है – “जो सुकून अपने घर में है,वह दुनिया में किसी कोने में नहीं है।” इसी संदर्भ में यह कहावत भी प्रचलित है- “जो मजे छज्जू के चौबारे,वह बलख न बुखारे” East and West,Home is the Best,भाव यह है कि जिस प्रकार मनुष्य को अपने सगे- संबंधियों अथवा निज गेह पहुंचकर सुकून मिलता है,ठीक इसी प्रकार हमारी आत्मा को अपने निज स्वरूप में पहुंचकर ही सुकून मिलता है,अपने केंद्र (परमात्मा) से जुड़ कर अथवा ऊर्जान्वित होकर ही सुकून मिलता है, अन्यथा मनुष्य पद- प्रतिष्ठा और धन का कुबेर होने पर भी अशांत रहता है,क्लान्त रहता है। इससे स्पष्ट होता है कि हमारी आत्मा का मूलस्वभाव- प्रेम,प्रसन्नता (आनन्द) और शांति मे रहना है,ईर्ष्या,द्वेष,घृणा, काम, क्रोध और अहंकार की अग्नि में धधकना नही।

पानी का मूल स्वभाव है- शीतलता,किंतु यही पानी जब अग्नि की संगति में आता है,तो अपने मूल स्वभाव को त्याग कर उबलने लगता है, खुद भी जलता है और दूसरों को भी जला देता है, किंतु जैसे ही यह पानी अपने मूल स्वभाव में आता है,तो उस अग्नि को भी बुझा देता है,जो इसे अपने मूल स्वभाव से दूर कर रही थी। ऐसे ही आत्मा जब अपने मूल स्वभाव प्रेम,प्रसन्नता (आनंद) और शांति में लौटती है,तो उन (विकारों,काम,क्रोध,ईर्ष्या,द्वेष, घृणा और अहंकार) का शमन कर देती है, जो उसे उसके मूल स्वभाव से उसे दूर कर रहे थे। इसलिए हे मनुष्य ! तेरी आत्मा का मूल स्वभाव शान्ति, प्रेम,प्रसन्नता (आनन्द) है,तू इन में ही रमण कर, अवस्थित हो। ऐसा करने पर ही तेरी जीवनी-नैया भवसागर से पार होगी अर्थात् तुझे मोक्ष-धाम की प्राप्ति होगी, परमानंद की प्राप्ति होगी। याद रखो,सच्चा सुख परिधि(संसार) में नही केद्र में है ,अर्थात् परमात्मा में है। अतः उस से सतत् जुड़े रहिये। इस संदर्भ में भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए ‘गीता’ के 18 वें अध्याय के 57 वें श्लोक में कहते हैं- ‘मंचित: सततं भव’ अर्थात् हे पार्थ ! यदि मेरा सामीप्य पाना चाहते हो,मुझसे जुड़े रहना चाहते हो,तो निरन्तर मेरे में चित्तवाला हो जा, यानी कि मेरे साथ अटल सम्बन्ध कायम कर ले।

हमेशा याद रखो, एकमात्र भगवान का चिंतन करने से अहम् टूटने लगता है,गलने लगता है, अहंकार शुन्यता आने लगती है और व्यक्ति का व्यक्तितत्त्व विनम्रता से विभूषित होता है। राग और द्वेष समाप्त होने लगते हैं,समता (बुद्धियोग) स्वतः ही आने लगती है, अर्थात् चित्त में निर्विकारिता स्वत: आने लगती है। ऐसा तभी होता है जब आपके हृदय में यह भाव रहे -मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं । मैंने उन्हें अपने मन,वचन और कर्म से सदैव प्रसन्न रखना है।

अतः इसके लिए हे मनुष्य! तुझे अपने मूल स्वभाव प्रेम,प्रसन्नता शांति में अन्ततोंगत्वा लौटना ही होगा।

क्रमश:

प्रोफेसर विजेंद्र सिंह आर्य

संरक्षक : उगता भारत

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