अफगानिस्तान का हिंदू वैदिक अतीत : बैक्ट्रिया के आक्रमणकारी ग्रीक और गांधार प्रान्त* 6

हमारे महान् शासक राजा पोरस से हारकर सिकंदर अपने देश लौट गया था। विश्व विजेता का संकल्प लेकर भारत की ओर बढ़े सिकंदर के लिए यह बहुत ही दुख का विषय था कि वह भारत के एक छोटे से शासक से हार गया। भारत के इस महान् शासक ने सिकंदर के विश्व विजेता बनने के संकल्प को चकनाचूर कर दिया। इससे न केवल सिकंदर का सपना चकनाचूर हुआ, अपितु भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने में भी राजा पोरस ने अपने इस महान् कार्य के माध्यम से बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अपनी इस पराजय से सिकंदर को बहुत आत्मग्लानि अनुभव हुई थी।

सिकंदर का साम्राज्य

 इतिहासकारों का मानना है कि जब सिकंदर ने इस संसार से विदा ली तो उसने अपने पीछे एक विशाल साम्राज्य छोड़ा था। यद्यपि वह स्वयं अपने इस साम्राज्य से निराश था, क्योंकि वह अपनी इच्छा के अनुकूल विशाल साम्राज्य स्थापित नहीं कर पाया था। सिकंदर के इस विशाल साम्राज्य में उस समय मैसीडोनिया, सीरिया, बैक्ट्रिया, पार्थिया, अफगानिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी भारत के कुछ भाग सम्मिलित थे। इस साम्राज्य का बहुत बड़ा भाग सिकन्दर के देहान्त के पश्चात् सेल्यूकस के अधीन रहा। परंतु इतिहास का यह भी एक सच है कि वह अपने इस विशाल साम्राज्य की सुरक्षा नहीं कर पाया था। इसका कारण यह था कि चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु आचार्य चाणक्य इस बात को लेकर बहुत चिंतित रहते थे कि भारत की एकता और अखंडता तभी सुरक्षित रह सकती है, जब सेल्यूकस के नियंत्रण में गया भारतवर्ष का भाग लौट करके फिर से चंद्रगुप्त मौर्य के आधीन हो जाए। चाणक्य की प्रेरणा से ही चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस से अपना वह भूभाग फिर से प्राप्त कर लिया जिसे सिकंदर अपना विजित प्रदेश कहकर सेल्यूकस को देकर गया था। चंद्रगुप्त मौर्य की यह बहुत बड़ी विजय थी। जिसे सिकंदर की तथाकथित विजय से अधिक महिमामंडित कर इतिहास में स्थान देने की आवश्यकता थी। जिससे कि हमारी नई पीढ़ी को अपने गौरवपूर्ण इतिहास को समझ कर उससे प्रेरणा लेने का अवसर मिले।

भारत से ईर्ष्या भाव रखने वाले इतिहासकारों ने इस घटना को बहुत हल्के में लिखा है। उनकी दृष्टि में यह बड़ी बात थी कि सिकंदर ने भारत का कुछ भू-भाग जीता। इस घटना को वह अधिक महिमामंडित करके दिखाने का प्रयास करते हैं। जिससे कि भारत के लोगों के भीतर आत्महीनता का बोध उत्पन्न हो और वह यह सोचें कि भारत तो प्रारंभ से ही पिटता चला आया है। इतिहास की घटनाओं के इस प्रकार के प्रस्तुतीकरण का परिणाम यह हुआ है कि भारत का एक बड़ा वर्ग इतिहास की वास्तविकताओं से परिचित न होने के कारण आत्महीनता के भंवरजाल में फैस चुका है।

इस प्रकार का ईर्ष्या भाव रखने वाली मानसिकता वाले इतिहासकारों के लिए यह बात अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है कि भारत ने तथाकथित पीटने वाले को पीट कर अपनी पिटाई का बदला भी लिया है, अर्थात् यदि कोई विदेशी आक्रांता किसी भी प्रकार से बाहर से किसी भूभाग को प्राप्त करने में सफल हो गया तो भारत के ‘पुनरुज्जीवी पराक्रम’ ने उसे फिर से प्राप्त करने में देर नहीं की। चंद्रगुप्त मौर्य भारत के इसी ‘पुनरुज्जीवी पराक्रम’ का ही प्रतीक था। जिसने सेल्यूकस से अपने भारतीय भूभाग को प्राप्त कर भारत के पराक्रम का परिचय दिया था।

भारत हो गया था पूर्णत : जागरूक

 सिकंदर के देहांत के पश्चात् सेल्यूकस ने कुछ देर तक उसके दिए हुए साम्राज्य को संभालने का प्रयास किया। परंतु चंद्रगुप्त मौर्य जैसे वीर शासकों के रहते उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा। सेल्यूकस के परवर्ती शासक या अधिकारी तो सिकंदर के इस साम्राज्य को संभालने में पूर्णतया असफल सिद्ध हुए। इसका एकमात्र कारण यही था कि भारत अपनी सीमाओं की सुरक्षा के प्रति पूर्णतया जागरूक हो चुका था। आचार्य चाणक्य के प्रधानमंत्री रहते हुए भला यह कैसे संभव था कि भारत की तत्कालीन शासकीय नीतियों में सीमाओं की सुरक्षा को लेकर चिंता न की जाए और सीमाओं की सुरक्षा के लिए पर्याप्त सुरक्षा प्रबंध न किए जाएँ? अतः सेल्यूकस या उसके परवर्ती उत्तराधिकारी यदि अपने साम्राज्य की संभाल करने में असफल हुए तो इसके पीछे चंद्रगुप्त मौर्य और आचार्य चाणक्य की नीतियों को पूर्णतया उत्तरदायी थे।

जिनके चलते किसी भी विदेशी शासक के लिए अब सिकंदर बनकर भारत की सीमा में प्रवेश करना सर्वथा असंभव हो गया ‘ना। सत्यकेतु विद्य बनकर जी अपनी पुस्तक ‘मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति’ के पृष्ठ 10 पर लिखते हैं कि-चंद्रगुप्त मौर्य ने 305 ईसा पूर्व में सेल्यूकस को हराकर हिरात, कंधार, काबुल और मकरान उससे ले लिए थे। राजनीति व कूटनीति के महान् पंडित चाणक्य की नीति आज तक भी भारत सहित सभी देशों के शासकों को यह प्रेरणा देती है कि किस प्रकार अपने पड़ोसी शासक को दुर्बल रखकर अपने राष्ट्रीय हितों की साधना शासकों को करनी चाहिए ?

अतः जिस समय महामति चाणक्य स्वयं जीवित थे, उस समय उन्होंने ऐसी साधना न की हो यह कैसे संभव है? निश्चित ही उन्होंने ऐसे सारे उपाय किए होंगे जिससे सिकंदर के द्वारा स्थापित किया गया पड़ोस का साम्राज्य छिन्न-भिन्न होकर रह जाए और भारत अपने पुराने वैभव को फिर से प्राप्त करने में सफल हो। इस प्रकार चाणक्य की देशभक्ति और सफल कूटनीति के कारण ही सिकंदर के द्वारा स्थापित किया गया अफगानिस्तान और उससे लगता हुआ उसका सारा साम्राज्य बहुत शीघ्र बिखर कर समाप्त हो गया। प्राचीन भारत के इस महान् प्रधानमंत्री की इस महान् योजना को इतिहास में समुचित स्थान मिलना अपेक्षित है।

इतिहासकारों ने सिकंदर के आक्रमण को धूमकेतु की भाँति उठने वाला एक तूफान कहकर संबोधित किया है, जो शीघ्र ही कहीं अनंत में विलीन हो गया। जबकि सच यह है कि यह तूफान स्वयं विलीन नहीं हुआ था, अपितु उसे विलीन किया गया था और उसके पीछे चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य की जोड़ी काम कर रही थी।

साम्राज्य बिखर गया

लगभग ई. पू. 250 में बैक्ट्रिया के प्रशासक डियोडोटस एवं पार्थिया के गवर्नर औरेक्सस ने अपने आपको स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। बैक्ट्रिया के दूसरे राजा डियोडोटस द्वितीय ने अपने देश को सेल्यूकस के साम्राज्य से पूर्णतः अलग कर लिया। सिकंदर के साम्राज्य के इस प्रकार से दुर्बल पड़ जाने के पीछे चाणक्य की कूटनीति ने काम किया और जो लोग भारत को नीचा दिखाने के लिए चले थे, वह स्वयं ही कुछ देर पश्चात् मिटकर समाप्त हो गए। यद्यपि उनके पतन के काल में चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य तो नहीं थे, परंतु उनकी कूटनीति और उनके द्वारा स्थापित किया गया मजबूत साम्राज्य तो अभी काम कर ही रहा था। यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि व्यक्ति तो चला जाता है, परंतु उसकी नीतियाँ, उसके विचार और उसकी
विचारधारा बहुत देर बाद तक लोगों का मार्गदर्शन करती रहती है। जितनी ही अधिक शुद्ध पवित्र नीतियाँ, विचार और विचारधारा होती है, उतनी ही दूर तक वह देश, समाज और राष्ट्र का मार्गदर्शन करने में सक्षम होती हैं। इसी प्रकार प्रधानमंत्री चाणक्य और सम्राट चंद्रगुप्त की नीतियों ने उनके उत्तराधिकारियों का दूर तक मार्गदर्शन किया।

यही कारण था कि चाहे सिकंदर के संसार से चले जाने के पश्चात् बहुत देर तक उसके वंशज या उत्तराधिकारी भारत के पश्चिमी भूभाग पर अपना नियंत्रण स्थापित कर राज्य स्थापित करने के सपने संजोते रहे, परंतु उनमें से कोई भी फिर से न तो सिकंदर बन पाया और न ही अपना राज्य स्थायी रूप से किसी भारतीय भूभाग पर स्थापित करने में सफल हो पाया। इसका कारण यही था कि भारत का पराक्रम जाग चुका था और वह अब किसी दूसरे सिकंदर को अपने देश की सीमाओं में प्रवेश करने देने को तैयार नहीं था। यद्यपि सिकंदर के उत्तराधिकारियों की ओर से भारत की सीमाओं के साथ छेड़‌छाड़ दीर्घकाल तक होती रही, परंतु वह इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थी, जितना कि सिकंदर के द्वारा किया गया स्वयं का आक्रमण महत्त्वपूर्ण था।

डियोडोटस एवं उसके उत्तराधिकारी मध्य एशिया में अपना साम्राज्य सुगठित करने में व्यस्त रहे, किन्तु उनके उत्तरवर्ती एक शासक डेमेट्रियस प्रथम (ई. पू. 220-175) ने भारत पर आक्रमण किया। ई. पू. 183 के लगभग उसने कुछ भाग अफगानिस्तान का तो कुछ भाग भारत के तत्कालीन पंजाब का जीतने में सफलता प्राप्त की। इतना ही नहीं उसने साकल को अपनी राजधानी बना कर वहाँ से शासन करना भी आरंभ कर दिया। डेमेट्रियस ने भारतीयों के साथ अपना तारतम्य स्थापित करने और उन पर अपना राजकीय वर्चस्व स्थापित करने के दृष्टिकोण से भारतीयों के राजा की उपाधि धारण की। इस विदेशी शासक ने यूनानी तथा खरोष्ठी दोनों लिपियों वाले सिक्के चलाए। यहाँ पर यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि जब डेमेट्रियस भारत में व्यस्त था, तभी उसके बैक्ट्रिया में एक युक्रेटीदस की अध्यक्षता में विद्रोह हो गया और डेमेट्रियस को बैक्ट्रिया से हाथ धोना पड़ा।

हेमचंद्र राय चौधरी जैसे इतिहासकारों के माध्यम से हमें पता चलता है कि बैक्ट्रिया की ओर अशोक के धर्म प्रचारक और बौद्ध भिक्षु बौद्ध धर्म का प्रचार करने वहाँ पहुँचे थे। कपिशा में अनेकों स्तूप उस समय बनवाए गए थे। अशोक की मृत्यु के पश्चात् भारतीय बैक्ट्रिया यूनानी बादशाह के समीप बैक्ट्रिया से लेकर पूर्वी पंजाब तथा शासन करते थे। उस समय के हिंदूकुश में भारतीय संस्कृति प्रचलित थी। वहाँ पर उस समय प्राकृत भाषाएँ बोली जाती थी और भारतीय भाषाओं के सिक्के चलते थे। ईसा पूर्व 135 के लगभग जर्दन नदी के पास के अपने घरों में यूचियों द्वारा भगाए जाने पर शक लोग दक्षिण की ओर बढ़ कर बैक्ट्रिया में फैल गए।

विद्वानों का यह भी निष्कर्ष है कि सम्म्राट मित्रदत्त द्वितीय ने 123 से 88 ईसा पूर्व के मध्य उन्हें पूर्व में धकेल दिया। जहाँ उन्होंने भारतीय बैक्ट्रियन यूनानियों से अफगानिस्तान और पूर्वी पंजाब जीत लिया। तब कुषाण आए। उन्होंने यूची जातियों को संगठित करके हिंदूकुश पार करने के बाद भारतीय पार्थियनों से काबुल और कंधार लेकर मध्य एशिया के कारागर खोतान और अफगानिस्तान के काबुल और कंधार तक भारत के कश्मीर, पंजाब और सिंध में 20 ई. में कुषाण साम्राज्य की स्थापना की। यूचियों में सर्वाधिक श्रेष्ठ कुषाण सम्राट कनिष्क को माना जाता है। जिसके बारे में इतिहासकारों का मत है कि इसने ई. 78 से 123 ईसवी तक शासन किया था। इसके शासनकाल में बौद्ध मत का विशेष प्रचार-प्रसार हुआ, क्योंकि इसने स्वयं ने भी बौद्ध मत स्वीकार कर लिया था। फलस्वरूप एशिया के अधिकांश भागों में बौद्ध धर्म के प्रचार को बड़ा प्रोत्साहन मिला। जिसमें अफगानिस्तान का क्षेत्र भी सम्मिलित था।

कनिष्क काल में अफगानिस्तान में भारतीय संस्कृति

कनिष्क के बारे में कहा जाता है कि वह असंग, वसुमित्र और अश्वघोष जैसे बौद्ध उपदेशकों को बहुत सम्मान और प्रोत्साहन देते थे। यह सारे के सारे बौद्ध उपदेशक ब्राह्मण थे और बौद्ध होने से पहले उसी प्रकार की शिक्षा में शिक्षित थे। सत्यकेतु विद्यालंकार कहते हैं कि इसी काल में गांधार शैली का जन्म हुआ। गांधार और उसके आसपास मिली हुई गांधार की प्रसिद्ध मूर्ति कलाएँ उत्कृष्ट कला के श्रेष्ठ रूपों में नए बौद्ध मत को व्यक्त करती हैं।

100 ई. में कनिष्क ने बौद्ध धर्म ग्रंथों का निर्धारण करने के लिए कश्मीर में एक बौद्ध संगीति का आयोजन भी कराया था। इस सम्राट ने बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार में सहायता करते हुए विभिन्न खंडों में अनेक स्तूप और विहार बनवाए। इससे बौद्ध धर्म के विकास को इस क्षेत्र में बहुत अधिक सहायता मिली। अफगानिस्तान के बौद्ध स्तूपों के खंडहरों में मिले शिलालेखों, स्मारक पेटियों और मृदभांडों में हम पवित्रात्मा बौद्ध संस्थापकों के नाम सुरक्षित पाते हैं। उनमें यूनानी और पारसियों के समान विदेशी भी हैं। राज्याधिकारी, भिक्षु और साधारण मनुष्य जिन्होंने बौद्ध धर्म का उपदेश ग्रहण किया था, सब यहाँ है।

आज भी अफगानिस्तान में बौद्ध स्मारक हिंदूकुश पार करके काबुल की घाटी होते हुए भारत से पश्चिमी और मध्य एशिया जाने वाले राजमार्गों की पगडंडियों पर बिखरे पड़े हैं। जलालाबाद के मैदान में स्तूप और विहारों के भग्नावशेष बड़ी संख्या में मिलते हैं। वहाँ गांधार शैली की उत्कृष्ट मूर्तियों से सुसज्जित बहुत से स्मारक आज भी इस बात का प्रमाण दे रहे हैं कि कभी यहाँ पर आर्य संस्कृति कितनी गहराई से अपनी जड़ें जमाए हुए थी। काबुल के पास तीन विशाल रंग भूमियों में से एक के विषय में सत्यकेतु विद्यालंकार जी बताते हैं कि कपीसा की घाटी में कनिष्क काल में बने कनिष्क विहार के खंडहर पाए गए हैं।

फूट विदेशियों में भी पाई जाती है

जो लोग यह मानते हैं कि भारत प्राचीन काल से ही फूट का शिकार रहा और इसके राजाओं की पारस्परिक फूट ने इस देश को पराधीन कराया, उन्हें इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि विदेशियों के यहाँ भी उनके लोग अपने शासकों के विरुद्ध विद्रोह करते रहे हैं और इस प्रकार के विद्रोह के माध्यम से अपनी राष्ट्रीय फूट का परिचय देते रहे हैं। किसी दूसरे का वर्चस्व स्वीकार न कर अपना वर्चस्व स्थापित कर अपने आपको अधिक योग्य स्थापित करना, मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलता है। इसी दुर्बलता से फूट भी स्वाभाविक रूप से पनप जाती है। इन स्वाभाविक दुर्बलताओं से भारत के बाहर के लोग भी प्रभावित रहे हैं। लेकिन उनकी फूट का कहीं उल्लेख इतिहास में नहीं किया जाता। बस, केवल हम भारतीयों को ही यह पढ़ाया जाता है कि हमारे भीतर फूट थी। जबकि इतिहास का यह भी एक सच है कि विश्व के देशों के जितने विखंडन विदेशियों ने कराए हैं, उतने भारतीयों ने नहीं कराए। विदेशों में आज भी अलग-अलग देशों की माँग देशों के भीतर रहकर की जा रही हैं। जबकि भारत में हिंदू कभी अलग देश की माँग करने वाला नहीं रहा। इससे पता चलता है कि हम फूट को समन्वय और एकता की सीमाओं के भीतर समन्वित करके रखना भली प्रकार जानते हैं। हमारी मान्यता है कि उस समय के यूनान को भारत का ही एक अंग माना जाना चाहिए, अर्थात् उस समय जो कुछ भी राजनीतिक उपद्रव हो रहे थे, वह कुछ ऐसे राजनीतिक महत्त्वाकांक्षी लोगों के माध्यम से हो रहे थे जो स्वयं को भारत की केंद्रीय सत्ता के समानांतर एक सत्ता के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयासरत थे। सिकंदर का प्रयास ऐसे ही लोगों की ओर से किया गया प्रयास माना जाना चाहिए, जिन पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए चाणक्य जैसे राजनीति के धुरंधर खिलाड़ियों ने अपनी ऐसी राजनीतिक बिसात बिछाई कि जिसमें उलझाकर इन उपद्रवियों को समाप्त किया जा सके।
बैक्ट्रिया के आक्रमणकारी ग्रीक और गांधार प्रान्त यूनान से भारत क्या सीख सकता था ?

उस समय का भारत यूनान से कुछ सीखने को तैयार नहीं था, क्योंकि यूनान स्वयं भारत का एक अंग होने के कारण भारत से ही सीखने वाला एक शिष्य मात्र था। कहने का अभिप्राय है कि यूनान के पास जो भी कुछ था, वह भारत का दिया हुआ था। इसलिए वह भारत को कुछ सिखाने की स्थिति में कभी नहीं था। अतः इतिहास की यह भी एक भ्रांति ही है कि यूनान ने हमको बहुत कुछ सिखाया है। सच यही है कि यूनान ने पहले भारत से सीखा और फिर देश, काल, परिस्थिति के परिवर्तित होने पर उसने कुछ भारत से सीखी हुई अपनी मान्यताओं को भारत को ही निर्यात करना आरंभ कर दिया। उन मान्यताओं को इतिहासकारों ने इस तरह स्थापित करने का प्रयास किया कि जैसे यूनान ने भारत को बहुत कुछ सिखाया है।

भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में युक्रेटीदस भी भारत की ओर बढ़ा और कुछ भागों को जीतकर उसने तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाया।

युक्रेटीदस के सिक्के बैक्ट्रिया, सीस्तान, काबुल की घाटी, कपिशा और गांधार में मिले हैं। जिनसे उसके साम्राज्य के विस्तृत होने की पुष्टि होती है। उसके विषय में इतिहासकारों का मानना है कि सम्भवतः झेलम तक पश्चिमी पंजाब को उसने अपने राज्य में मिलाया और एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। परंतु इतिहास का यह भी एक रोचक तथ्य है कि वह इससे और अधिक आगे न बढ़ सका। डेमेट्रियस का अधिकार पूर्वी पंजाब और सिंध पर ही रह पाया। इसका कारण यही था कि वह भी सिकंदर की भाँति भारत की केंद्रीय सत्ता से संघर्ष न करने में ही अपना और अपने देश का लाभ देखता था।

भारत में डेमेट्रियस और युक्रेटीदस नामक दो वंशों की श्रृंखला यूनानी शासकों के रूप में मिलती है। सबसे प्रसिद्ध यवन शासक मीनान्डर था (ई. पू. 160-120), जो बौद्ध साहित्य में ‘मिलिन्द’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह सम्भवतः डेमेट्रियस के कुल का था। पेरिप्लस में लिखा है कि मीनान्डर के सिक्के भड़ोच के बाजारों में खूब चलते थे। स्वात की घाटी में एक मंजूषा मिली है, जिस पर मीनान्डर का नाम उत्कीर्ण है।

इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि मीनान्डर के राज्य में अफगानिस्तान का कुछ भाग और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश सम्मिलित थे। इस प्रकार इस काल में राजा मिनांडर के अधीन अफगानिस्तान भी रहा। जिसमें उसकी अपनी संस्कृति को बचाने का संकट उसके सामने भी था।

इतिहास का एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य

हमारे इतिहास का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि इस समय जो भी विदेशी शासक या आक्रमणकारी के रूप में भारत की ओर बढ़ रहा था, वह भारतीय संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट कर देना चाहता था। उसकी सोच भारत की आर्थिक समृद्धि पर एकाधिकार करने की थी। यूनानी लोग भारत की ही संस्कृति के एक अंग होने के उपरांत भी यदि भारत की ओर बढ़ रहे थे तो वह भी भारत की आर्थिक समृद्धि से प्रभावित होकर ऐसा कर रहे थे। भारत की मानवाधिकारवादी वैदिक संस्कृति से प्रेरणा प्राप्त करने के उपरांत भी इन आक्रमणकारियों की सोच में बहुत भारी परिवर्तन आ चुका था। अब उनके विजय अभियान मानवहित या प्राणीमात्र के हित में न होकर स्वार्थ के वशीभूत हो चुके थे। उनके विजय अभियानों का मूल उद्देश्य दूसरे देशों को नष्ट करना या उनके आर्थिक स्रोतों पर एकाधिकार स्थापित कर लेना था। कहने का अभिप्राय है कि महाभारत का युद्ध यदि मानवता को अत्याचारी, अधर्मी शासकों से मुक्त कराने के लिए लड़ा गया था तो अब धर्मशील, न्यायकारी राजाओं को हराकर उनके राज्य पर अपना एकाधिकार स्थापित कर उनकी आर्थिक संपन्नता को अपने नियंत्रण में ले लेना इन विजय अभियानों का उद्देश्य हो गया। इस प्रकार यह सर्वथा मानवता विरोधी विजय अभियान थे जो भारत की संस्कृति से कहीं से भी मेल नहीं खाते थे।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार स्ट्राबो ने लिखा है कि यूनानियों ने गंगा नदी और पाटलिपुत्र तक आक्रमण किए। पतंजलि के महाभाष्य में उल्लेख आया है कि यूनानियों ने अवध में साकेत और राजस्थान में चित्तौड़ के निकट माध्यमिका का घेरा डाला। इस प्रकार भारत की केंद्रीय सत्ता के दुर्बल हो जाने के उपरांत इन यूनानियों का मनोबल बढ़ने लगा और यह भारत के भीतर तक आकर युद्ध करने का साहस दिखाने लगे।

गार्गी संहिता के ‘युगपुराण’ अध्याय से ज्ञात होता है कि दुष्ट, वीर यवनों ने साकेत, पंचाल (गंगा-यमुना दोआब) और मथुरा को जीतकर पाटलिपुत्र तक धावा मारा, किन्तु वह भारत में स्थायी रूप से रह कर अपना साम्राज्य स्थापित नहीं कर पाए और घरेलू युद्धों के कारण वे तुरन्त लौट आए। मिनांडर के सिक्के हमें काबुल से लेकर मथुरा और बुंदेलखंड तक मिलते हैं। जिससे स्पष्ट होता है कि उसने भारत के भीतर तक अपना साम्राज्य स्थापित करने में कुछ सीमा तक सफलता प्राप्त की।

इस सब के उपरांत भी इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि भारत के पश्चिम से आने वाले यह आक्रमणकारी यवन लोग भारत में स्थायी रूप से अपना साम्राज्य स्थापित करने में असफल रहे।

इसका कारण यही था कि भारत अभी तक भी अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की गहरी जड़ों के कारण परस्पर एकता के सूत्र में बंधा हुआ था। वह किसी भी ऐसे विदेशी शासक को अपने यहाँ पर सहन करने की स्थिति में नहीं था, जो उसकी सभ्यता व संस्कृति को उजाड़ने के दृष्टिकोण से यहाँ रहना चाहता हो। हाँ, ऐसे व्यक्ति को वह अवश्य स्वीकार करने के लिए तैयार था जो भारत की सभ्यता व संस्कृति को अपनाकर भारत के वैदिक धर्मी समाज के साथ रहने के लिए तैयार हो। इस समय चीन में एक महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई। चीनी सम्राट ‘शी हुआंग ती’ ने अपने साम्राज्य को विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमणों से बचाने के लिए एक विशाल दीवार का निर्माण करवा दिया।

इसका परिणाम यह निकला कि जो विदेशी आक्रमणकारी कबीले या जातियाँ चीन पर आक्रमण करती रहती थीं, वे अब चीन की ओर से मुँह फेर कर पश्चिम की ओर चल पड़ीं। उन्होंने आगे बढ़ते हुए पहले पार्थिया और भारत के इंडो-ग्रीक राज्यों पर आक्रमण किया और वहाँ अपना अधिकार स्थापित किया। इस प्रकार जो ग्रीक राज्य भारत की ओर आक्रमणकारी के रूप में बढ़ रहे थे, वह अपने मूल स्थान पर कमजोर पड़ गए।

यूनान का भारत पर प्रभाव

यूनान की ग्रीक सभ्यता का रह-रहकर कई इतिहासकार उल्लेख करते रहते हैं। उनकी मान्यता है कि भारत पर यूनानी सभ्यता और संस्कृति का व्यापक प्रभाव पड़ा, परंतु आधुनिक शोधों से यह स्पष्ट हो चुका है कि यूनान ने ही भारत से सब कुछ सीखा है।

जैसे किसी क्षेत्र से जब नदी गुजरती है तो वह कई बार अपना स्थान परिवर्तन कर लेने के उपरांत कुछ गड्ढे आदि छोड़ जाती है। जिनमें जलभराव बनकर कालांतर में यह गड्ढे तालाब के रूप में विकसित हो जाते हैं। इसी प्रकार जब भारतवर्ष का ज्ञान-विज्ञान समस्त भूमंडल पर छाया हुआ था और भारत से ही समस्त संसार शासित अनुशासित होता था, तब उसकी संस्कृति रूपी नदी समस्त संसार को सिंचित कर रही थी। कालांतर में जब भारत का विश्व साम्राज्य सिमटने लगा तो वह भी अपने ज्ञान-विज्ञान के कुछ जल भरे हुए गड्ढे इधर-उधर छोड़ता आया। अमृतोपम ज्ञान- विज्ञान से भरे इन गड्डों पर कालांतर में कुछ देशों ने अपना अधिकार जमाने का प्रयास किया। उन्होंने इन गड्डों में भरे अमृतोपम ज्ञान-विज्ञान के अनंत भंडार को अपनी ओर से संसार को दी जाने वाली देन के रूप में प्रचारित और प्रसारित
का कार्य किया। जबकि वास्तविकता यह थी कि इन गड्डों में जो भी ज्ञान-विज्ञान रूपी जल भरा रह गया था, वह सारा भारत का ही दिया हुआ था।

इसके उपरांत भी इंडो ग्रीक साम्राज्य के द्वारा भारत पर अपनी अमिट छाप छोड़ने का तर्क कुछ इतिहासकार देते रहते हैं, जो कि सर्वथा भ्रामक है। बी. ए. स्मिथ एवं डब्लयू. टार्न जैसे इतिहासकारों ने भारत पर यूनानी सभ्यता के प्रभाव को मानने से इनकार किया है। बात स्पष्ट है कि उन्होंने इस तथ्य और सत्य के मर्म को पहचानने का प्रयास किया है कि वास्तव में ग्रीक पर भारत का प्रभाव है ना कि ग्रीक का भारत पर।

उनके अनुसार भारत के भीतरी भागों पर जब ग्रीक के कुछ आक्रमणकारियों ने हमला किया तो उनके उन हमलों का प्रभाव भारत पर कुछ भी नहीं हुआ। अतः डेमेट्रियस, यूक्रेटाइड्स, मीनान्डर, आदि के आक्रमण अल्पकालिक थे। जिनका कोई भी प्रभाव भारत की सांस्कृतिक विरासत पर तनिक भी नहीं पड़ा।

सिकंदर, मिनांडर आदि जो भी विदेशी आक्रमणकारी भारत में उस काल में आए, उनसे भारतीयों ने एक विदेशी आक्रमणकारी के रूप में ही निपटने का निर्णय ले लिया था और उसी प्रकार निपटे भी। अतः उन विदेशी आक्रमणकारियों की खोखली संस्कृति का हमारी चट्टान जैसी मजबूत संस्कृति पर प्रभाव पड़ने का कोई प्रश्न ही नहीं था। भारत के लोगों ने इन विदेशी आक्रमणकारियों को अपने लिए संस्कृति दूत न समझकर संस्कृतिभक्षक के रूप में देखा। ऐसे में उन विदेशी आक्रमणकारियों से प्रभावित नहीं हुआ जा सकता था। यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि वही संस्कृति किसी दूसरी संस्कृति पर प्रभाव डाल पाती है जो अपने आप में दूसरी संस्कृति से अधिक सक्षम और प्रभावशाली हो। जबकि भारतीय संस्कृति अपने आप में स्वयं ही विश्व की सभी संस्कृतियों से श्रेष्ठ और महान् संस्कृति के रूप में प्राचीन काल से ही विख्यात रही है। जिस संस्कृति को अपनाने वाला कोई योद्धा या शासक दूसरी संस्कृति के लोगों पर जब हमला करता है तो दूसरे लोग उसकी मानवता से अधिक प्रभावित होते हैं। यदि आक्रांता के रूप में आया विदेशी शासक उन लोगों पर अत्याचार करता है तो ऐसे लोग चाहे उसके सामने झुक जाएँ, परंतु उसकी संस्कृति को अपनाने के लिए कदापि तैयार नहीं होते। भारतीयों के साथ भी यही हुआ था।

यदि यूनानी आक्रमणकारियों से भारत के लोग प्रभावित होते तो वे उन्हें यहाँ से भगाने का प्रयास नहीं करते, अपितु उन्हें अपनाकर अपने समाज के साथ एकाकार कर लेते।
इतिहासकारों का मानना है कि यवन शासकों के सिक्कों पर जहाँ एक और ग्रीक कथाएँ अंकित हैं, वहीं दूसरी ओर बढ़ती हुई संख्या में भारतीय कथाओं की संख्या यह प्रदर्शित करती है कि यूनानी भाषा भारत के लोगों की समझ में नहीं आती थी। इस पर हमारा मानना है कि ग्रीक शासकों ने अपने सिक्कों पर भारतीय कथाएँ इसलिए अंकित कराई थीं कि उनसे प्रभावित होकर भारत के लोग उनका सामाजिक बहिष्कार न करें और उनके साथ आत्मीय भाव प्रदर्शित करने लगें। इसका कारण यह था कि भारत के लोग जिसको अपने अनुकूल नहीं समझते थे, उसका प्राचीनकाल से ही सामाजिक बहिष्कार करते आए थे। ऐसा बर्ताव भारत के लोग उन लोगों के साथ विशेष रूप से करते थे जो समाज के शांतिप्रिय लोगों के साथ अन्याय व अत्याचार का व्यवहार करते थे। अन्यायी, अनाचारी और अत्याचारी लोगों का सामाजिक बहिष्कार करने की प्रवृत्ति भारत के लोगों में आज भी पाई जाती है।

वुडकाक जैसे इतिहासकारों का कथन है कि ग्रीक विजेताओं ने कई क्षेत्रों में भारत पर अपनी छाप छोड़ी थी। उनके अनुसार मुस्लिम आक्रमणों से पूर्व के अन्य सभी आक्रांताओं की भाँति यद्यपि कालक्रम से यवन भी भारतीय जनसंख्या में समाविष्ट हो गए, किन्तु ईस्वी के प्रारम्भिक काल में भारत पर उनका पर्याप्त प्रभुत्व था। उन्हें ‘सर्वज्ञ यवन’ (महाभारत) कहकर सम्मानित किया जाता था। महाभारत की इस साक्षी का अभिप्राय यह है कि उस समय यूनान कोई अलग देश नहीं था, अपितु वह भारत का ही एक भाग था और उस क्षेत्र के लोगों को हमारे देश के लोग यवन कहकर बुलाते थे। यदि उनके साथ कोई ऐसी विशेषता उस समय जुड़ गई थी तो वह विशेषता भी भारतीय ज्ञान-विज्ञान के कारण ही जुड़ी थी। इसी प्रकार यूनान के चिकित्सकों को भी भारत में विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। उसका कारण भी यही था कि यूनान में भारतीय चिकित्सा प्रणाली को बहुत सुंदर ढंग से सहेज कर रखा गया था। व्यूह रचना के विशेषज्ञ के रूप में भी कई लोग यूनानियों को विशेष सम्मान देते हैं परंतु वास्तविकता यह है कि युद्ध की इस कला का आविष्कार भी भारत के वैदिक ऋषियों ने ही किया था। इस प्रकार मूल रूप से ग्रीक ही भारत की वैदिक संस्कृति का ऋणी है। सप्ताह का सात दिनों में विभाजन एवं विभिन्न ग्रहों के नाम भी यूनान ने भारत के ऋषियों से ही लिए हैं। वराहमिहिर ने भी लिखा है कि यद्यपि यूनानी म्लेच्छ हैं किन्तु वे ज्योतिष के विद्वान् हैं और इसलिए प्राचीन ऋषियों की भाँति पूज्य हैं।

वराह मिहिर के इस कथन का अभिप्राय है कि वह यूनानियों को म्लेच्छ मानकर भी इसलिए पूज्य मानते हैं कि वे ऋषियों की भाँति ज्योतिष के विद्वान् हैं। वराहमिहिर के इस कथन से यूनानियों की किसी अलग सभ्यता या उनके किसी अलग देश के होने का भान नहीं होता। ये ग्रीक लोग भारत के गांधार महाजनपद के शासक तो बने, परंतु उसे अपने रंग में रंगने में पूर्णतया असफल रहे।

क्रमशः

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