जब एक इन्द्रियों का नियंत्रक परमात्मा के साथ जुड़कर कार्य करता है तो क्या होता है?

दिव्य बल को कौन प्राप्त करता है?

स तुर्वणिर्महाँ अरेणु पौंस्ये गिरेर्भृष्टिर्न भ्राजते तुजा शवः।
येन शुष्णं मायिनमायसो मदे दुध्र आभूषु रामयत्रि दामनि।।
ऋग्वेद मन्त्र 1.56.3

(सः) वह (तुर्वणिः) तेज गति से चलने वाले शत्रुओं को नष्ट करने वाला (महान्) हर प्रकार से महान् (अरेणु) बिना बाधा के (पौंस्येअ युद्धों में, संघर्षों में, कठिन समय में (गिरेः भृष्टिः) पर्वत की चोटी (न) जैसे कि (भ्राजते) चमकता है (तुजा) दर्द और कठिनाईयों का नाशक (शवः) बल, शक्ति (येन) जिसके साथ (शुष्णम्) शक्ति का शोषण करने वाला (मायिनम) नाटकीय (आयसः) लौह शरीर वाला, संरक्षण करने वाला कवच (मदे) आनन्द में (दुध्रः) दुष्ट शत्रुओं को रोकने वाला (आभूषु) कारागार में (रामयत – नि रामयत) रखता है (नि) रामयत से पूर्व लगाया गया) (दामनि) बन्धन में।

व्याख्या:-
जब एक इन्द्रियों का नियंत्रक परमात्मा के साथ जुड़कर कार्य करता है तो क्या होता है?

वह, सर्वोच्च शक्तिमान्, शत्रुओं का नाश करने के लिए तेज गति से चलता हुआ, हर प्रकार से महान् है।
परमात्मा की शक्ति और बल के साथ जब एक इन्द्रियों का नियंत्रक युद्धों, संग्रामों और कठिनाईयों के साथ बिना बाधा के लड़ता है तो वह दुःखों और कठिनाईयों का नाशक बन जाता है और पर्वत की चोटी के समान चमकता है। इस दिव्य समर्थन के साथ वह शोषण करने वाली शक्तियों को बांधकर रखने में सक्षम होता है। वह दुष्ट शत्रुओं को बाधित कर देता है, क्योंकि ऐसा इन्द्रियों का नियंत्रक सदैव आनन्द की अवस्था में होता है।

जीवन में सार्थकता: –
दिव्य बल को कौन प्राप्त करता है?

वैदिक विवेक से परिपूर्ण जीवन एक शुद्ध जीवन बन जाता है और परमात्मा की दिव्य शक्तियाँ और बल प्राप्त करता है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को वैदिक विवेकपूर्ण जीवन का अनुसरण करना चाहिए अर्थात् समाज के लिए एक दाता बनें और इन्द्रियों का नियंत्रक बनें।


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