एक इन्द्र को अपने मन की वृत्तियां नष्ट करने की आवश्यकता क्यों होती है

23.02.2024
एक इन्द्र को अपने मन की वृत्तियां नष्ट करने की आवश्यकता क्यों होती है?
वृत्तियाँ नष्ट होने के बाद क्या होता है?
अपने लक्ष्य पर एक बिन्दु की तरह ध्यान केन्द्रित कैसे करें?

परीं घृणाचरतितित्विषे शवोऽ पोवृत्वीरजसोबुध्नमाशयत्।
वृत्रस्य यत्प्रवणोदुर्गृभिश्वनोनिजघन्थहन्वोरिन्द्रतन्यतुम्।।
ऋग्वेद 1.52.6

(परी – चरति से पूर्व लगाकर) (घृणा) ज्ञान का प्रकाश (चरति – परी चरति) सभी दिशाओं में व्याप्त (तित्विषे) चमक के लिए (शवः) बल का (अपः) सभी प्रजाओं को, लोगों को (वृत्वी) ज्ञान को आवृत करता है (रजसः) गहरे आकाश में (बुध्नम्) शरीर का (आशयत्) स्थापित (वृत्रस्य) बादलों का, मन की वृत्तियों का (यत्) जो (प्रवणे) शक्तिशाली प्रभाव (दुर्गृभिश्वनः) दुराग्रह से प्राप्त (निजघन्थ) प्रहार करता है (हन्वोः) मुख के हिस्सों पर (इन्द्रः) इन्द्रियों का नियंत्रक (तन्यतुम्) दिव्य प्रभु पर ध्यान करके।

व्याख्या :-

एक इन्द्र को अपने मन की वृत्तियां नष्ट करने की आवश्यकता क्यों होती है?
वृत्तियाँ नष्ट होने के बाद क्या होता है?

जब एक इन्द्र अर्थात् इन्द्रियों का नियंत्रक, दिव्य शक्ति पर अपना ध्यान एकाग्र करने के साथ मन की वृत्तियों अर्थात् बादलों के मुख पर एक प्रबल प्रहार करता है तो इस प्रकार उन वृत्तियों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। यह वृत्तियाँ (अहंकार, इच्छाएँ और तरह-तरह के विचार) ज्ञान को ढंक लेते हैं और गहरे हृदय में स्थापित हो जाते हैं। परन्तु एक बार जब इन वृत्तियों को नष्ट कर दिया जाये तो ज्ञान का प्रकाश चारो तरफ व्याप्त हो जाता है जिससे ऐसे इन्द्र की चमक और उसका बल दिखाई देने लगता है।

जीवन में सार्थकता : –
अपने लक्ष्य पर एक बिन्दु की तरह ध्यान केन्द्रित कैसे करें?

योग दर्शन (1.6) के अनुसार मन की वृत्तियों की उत्पत्ति के पांच मुख्य कारण हैं :- प्रमाण, विप्रय, विकल्प, निद्रा और स्मृति अर्थात् सही ज्ञान, गलत ज्ञान, काल्पनिक ज्ञान, कोई ज्ञान नहीं और पूर्वकाल का ज्ञान।
इन वृत्तियों को नष्ट करने के कई उपाय हैं। प्रथम तथा प्रमुख उपाय है – अभ्यास तथा वैराग्य। जीवन को अहंकाररहित रूप से जीना अभ्यास होता है और इच्छाओं से मुक्ति वैराग्य होता है। यह तभी सम्भव है जब एक व्यक्ति तन्यतुम् बनकर जीये। अर्थात् दिव्यता पर ध्यान एकाग्र करे।
योग दर्शन (1.23) ईश्वर प्रणिधानात्वा की व्याख्या करता है अर्थात् परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण, श्रद्धा और पूजा तब तक चलती रहे जब तक परमात्मा के साथ एकात्मता का अनुभव न होने लगे।
अतः हमें अपने लक्ष्य पर एक बिन्दु की तरह ध्यान देना चाहिए और लक्ष्य की तरफ बढ़ते हुए किसी प्रकार से ध्यान इधर-उधर न जाये। यह सिद्धान्त आध्यात्मिक मार्ग के साथ-साथ सांसारिक भौतिक मार्ग पर भी लागू होता है।


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