16 संस्कार और भारत की वैश्विक संस्कृति, भाग 2

3 – सीमन्तोन्नयन संस्कार

इस संस्कार के माध्यम से गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क का विकास करने का विधान किया गया है । सीमन्त का अर्थ ही मस्तिष्क है और उन्नयन का अर्थ उसका विकास करना है । कहने का तात्पर्य है कि जिस संस्कार के माध्यम से बच्चे का मानसिक विकास किया जाए उसे सीमंतोन्नयन संस्कार कहते हैं । इस संस्कार को चौथे या छठे फिर आठवें माह में किए जाने का विधान है । सुश्रुत के अनुसार पांचवें महीने में मन अधिक जागृत होता है, छठे में बुद्धि जागृत होती है तो सातवें में अंग-प्रत्यंग अधिक व्यक्त होने लगते हैं। जबकि आठवें माह में ओज अधिक अस्थिर रहता है। आठवें महीने में गर्भस्थ शिशु के शरीर मन बुद्धि और हृदय सबका विकास हो जाता है। बच्चे के हृदय का विकास हो जाने के कारण इस अवस्था में आकर गर्भवती महिला दो हृदयों वाली कहीं जाने लगती है। इस अवस्था में गर्भवती महिला को कुछ ऐसी वस्तुओं के खाने का निर्देशन किया गया है जिससे गर्भस्थ शिशु के तन का अच्छा विकास हो सके। इस प्रकार हमारे निर्माण में सीमंतोन्नयन संस्कार का भी विशेष महत्व था । सीमन्तोन्नयन शब्द से ही पता चलता है कि हमारे ऋषि पूर्वजों को गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क के विकास संबंधी ज्ञान तो था ही साथ ही इसका विज्ञान भी उनके बौद्धिक विवेक में समाविष्ट था । तभी तो उन्होंने गर्भवती महिला के लिए साधना भरी जीवनचर्या और दिनचर्या का निर्माण किया था।

4 — जातकर्म संस्कार

जब शिशु जन्म लेता है तो उसका शरीर जेर में लिपटे हुआ आता है । जिसकी सफाई करनी आवश्यक होती है । उसकी त्वचा और गले की सफाई के लिए सेंधा नमक का प्रयोग किया जाता है । जिसे परम्परा से हमारे यहाँ पर दाई किया करती थी । बच्चे के जन्म के अवसर पर समाज के लोग उसका अभिनन्दन करते हैं । इस प्रकार हमारे यहाँ पर शिशु का आना और उससे पहले उसके किए जाने वाले संस्कार और संस्कारों से भी पहले उसके आने के लिए भूमिका तैयार करने के लिए माता-पिता के पाणिग्रहण संस्कार में समाज के लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । अनेकों जन मिलकर एक बच्चे के लिए तैयारी करा रहे होते हैं । पूरा समाज विवाह समारोह में नवदम्पति के अभिनन्दन के लिए कम और समाज के एक नए प्राणी के अभिनन्दन के लिए अधिक तैयार होता है । इसीलिए मनुष्य का बच्चा जन्मना सामाजिक होता है। ईसाई और इस्लामिक जगत विवाह संस्कार की पवित्रता और उत्कृष्टता को समझ नहीं पाया है कि यह संस्कार किसी आने वाले अतिथि के स्वागत व सत्कार के लिए की जा रही तैयारियों के रूप में कराया जाता था । जिसमें सारा समाज उपस्थित होता था और मानो उसके आने से पहले ही उसके माता-पिता को आशीर्वाद देता था कि तुम श्रेष्ठ और सुयोग्य संतान के स्वामी बनो । नवजात शिशु के लिए सामाजिक रूप से इतनी बड़ी तैयारियों को देखकर लगता है कि जैसे हम किसी देव के आगमन की प्रतीक्षा में खड़े हैं । सबके हाथों में फूल हैं और सब आने वाले पर पुष्पवर्षा कर यह बताना चाहते हैं कि तुम देवों की संतान हो , तुम बहुत गौरवमयी दिव्य पुरुषों की विरासत के उत्तराधिकारी हो । हम बहुत सौभाग्यशाली हैं कि तुम्हारा स्वागत कर रहे हैं और तुम भी बहुत सौभाग्यशाली हो कि हमारे द्वारा अपना अभिनंदन प्राप्त कर रहे हो । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है – यह संस्कार भारत का है और भारत ही इस संस्कार का मूल्य समझ सकता है ।
श्रुति का वचन है- दो शरीर, दो मन और बुद्धि, दो हृदय, दो प्राण व दो आत्माओं का समन्वय करके अगाध प्रेम के व्रत को पालन करने वाले दंपति उमा-महेश्वर के प्रेमादर्श को धारण करते हैं, यही विवाह का स्वरूप है। हिन्दू संस्कृति में विवाह कभी ना टूटने वाला एक परम पवित्र धार्मिक संस्कार है, यज्ञ है। विवाह में दो प्राणी (वर-वधू) अपने अलग अस्तित्वों को समाप्त कर, एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं और एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं एवं भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे दो पहियों की तरह प्रगति पथ पर बढते हैं। यानी विवाह दो आत्माओं का पवित्र बंधन है, जिसका उद्देश्य मात्र इंद्रिय-सुखभोग नही, बल्कि पुत्रोत्पादन, संतानोत्पादन कर एक परिवार की नींव डालना है।
बच्चे की त्वचा को साफ करने के लिए साबुन या बेसन और दही को मिलाकर उबटन के रूप में परिवार की वृद्ध महिला मल देती है। स्नान के लिए गुनगुने पानी का प्रयोग होता है। चरक के अनुसार कान को साफ करके वे शब्द सुन सकें इसलिए कान के पास पत्थरों को बजाना चाहिए।
शिशु के तन को कोमल वस्त्र या रुई से सावधानीपूर्वक साफ-सुथरा कर गोद में लेकर देवयज्ञ करके स्वर्ण शलाका को सममात्रा मिश्रित घी-शहद में डुबोकर उसकी जिह्वा पर ॐ नाम लिखा जाए । इस क्रिया के करने से उस बच्चे का वाक् देवता जागृत किया जाता है। उस शिशु के दाहिने तथा बाएं कान में ”वेदोऽसि“ भी कहा जाता है । जिसका अर्थ होता है – तू ज्ञानवान प्राणी है, अज्ञानी नहीं है। इस प्रकार ” मैं मूरख फ़लकामी ” – न कहकर मैं अमृत पुत्र हूं या तू अमृत पुत्र है , ऐसा कहने की भारत की परंपरा रही है। इतनी क्रिया प्रक्रियाओं के करने के पश्चात मां अपने स्थान से शिशु को दूध पिलाएगी तो वह बच्चा समझ जाएगा कि अब तू अमृत पान कर रहा है और तेरी तैयारी संसार में अमृतत्व को प्राप्त करने के लिए प्रारंभ हो गई है।

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