ओ३म् “हमारी सृष्टि परमात्मा ने जीवात्माओं के सुख के लिये बनाई है”

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 हम जन्म लेने के बाद संसार में अस्तित्वमान विशाल ब्रह्माण्ड व इसके प्रमुख घटकों सूर्य, चन्द्र तथा पृथिवी सहित असंख्य तारों को झिलमिलाते हुए देखते हैं। पृथिवी कितनी विशाल है इसका अनुमान करना भी सबके बस की बात नहीं है। इस सृष्टि में मनुष्य व सभी प्राणियों के उपभोग की सभी वस्तुयें उपलब्ध हैं। परमात्मा ने इस संसार व इसकी सब वस्तुओं को बनाया है तथा इसके त्यागपूर्वक अल्प मात्रा में उपभोग का अधिकार मनुष्यों को दिया है। यजुर्वेद में परमात्मा ने मनुष्यों व जीवों को कहा है कि इस सृष्टि का भोग त्यागपूर्वक आवश्यकता के अनुसार ही करो। वेद व ऋषियों के ग्रन्थ सृष्टि के पदार्थों तथा अधिक मात्रा में धन के संग्रह को उपयुक्त व उचित नहीं मानते। योगदर्शन के अनुसार मनुष्य को अपरिग्रही होना चाहिये अर्थात् धन, ऐश्वर्य व साधनों का आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना चाहिये। मनुष्य को अल्प मात्रा में, जितना जीवन के लिये आवश्यक हो, उतने ही पदार्थों का उपभोग व संग्रह करना चाहिये। जो लोग अर्थ व काम में आसक्त होते हैं, उन्हें वेद व परमात्मा का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता। यदि ज्ञान कर भी लें तो वह परमात्मा को तब तक प्राप्त नहीं हो सकते हैं जब तक की वह धन व पदार्थों की आसक्ति से पूर्णतः मुक्त न हो जायें। इसका कारण यह है कि परमात्मा ने यह संसार सब जीवों, मनुष्यों व प्राणियों के लिए बनाया है। संसार की वस्तुयें सब मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति एवं सदुपयोग के लिये हैं। ऐसा देखा जाता है कि कुछ लोग संसार का सारा धन स्वयं ही एकत्र कर उपभोग करने की प्रवृत्ति रखते हैं। इससे दूसरों के उपभोग के अधिकार का हनन होता है। इसलिये अधिक धन व पदार्थों का संग्रह करने वाले ईश्वर के द्वारा दण्डनीय हो जाते हैं। जिस प्रकार एक परिवार में सब मनुष्य सामूहिक रूप से सुख के साधनों का उपभोग करते हैं उसी प्रकार से संसार के लोगों को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से त्यागपूर्वक ही साधनों का उपयोग करना चाहिये और अधिक वस्तुओं को जिनको उनकी आवश्यकता है, दान कर देना या वितरित कर देना चाहिये। त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करने में सुख होता है तथा भोगों से युक्त जीवन में रोग व दुःखों की सम्भावना होती है। ऐसा ही सृष्टि का नियम विद्वानों को जान पड़ता है। 

वेद तथा ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन करने पर यह तथ्य सामने आता है कि संसार में तीन अनादि, नित्य, अमर व अविनाशी सत्तायें हैं जिन्हें ईश्वर, जीव व प्रकृति कहते हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, जीवों के कर्मों का फल प्रदाता और सृष्टिकर्ता है। उसी परमात्मा ने इस संसार तथा सभी प्राणियों को उनके कर्मों का फल सुख व दुःख देने के लिये तथा वैदिक कर्तव्यों का पालन करने वाले मनुष्यों की आत्मा की मुक्ति व मोक्ष का आनन्द प्रदान करने के लिये इस सृष्टि को बनाया है। उसी परमात्मा से सृष्टि की उत्पत्ति, इसका पालन व प्रलय होती है। जीवात्मा चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, कर्म फल के बन्धनों में बंधा हुआ, जन्म-मरण धर्मा, स्वतन्त्रता से कर्मों का कर्ता तथा ईश्वरीय व्यवस्था में अपने सभी कर्मों का न्याय व पक्षपातरहित परमात्मा से मिलने वाले फलों का भोक्ता है। दृश्यमान सृष्टि चेतना रहित, जड़ता के गुण से युक्त एवं अनादि है। अनादि काल वा इस सृष्टि की आदि से हमारे असंख्य बार जन्म हो चुके हैं व अनन्त काल तक हम अपने कर्मों के अनुसार जन्म व मरण को प्राप्त होते रहेंगे। वेदों के अनुसार आसक्तिरहित परोपकार के कर्मों को करके ही हम जीवनमुक्त होते हैं तथा वेद ज्ञान व तप से समाधि अवस्था को प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात्कार कर हम व इतर जीवात्मायें जन्म व मरण से मुक्त होकर ईश्वर के सर्वव्यापक व आनन्दस्वरूप में स्थित होती हैं जिसे मोक्षावस्था कहा जाता है। 

मनुष्य जब लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध तथा मोह आदि में फंसता है तब वह अज्ञान के वश में होकर अवैदिक व न करने योग्य कर्मों को करता है और जीवन के लक्ष्य मोक्ष से दूर होता है। कुछ मनुष्यों की यहां तक अवनति होती है कि वह अपने भावी पुनर्जन्म में मनुष्य जन्म का अधिकार भी खो देते हैं। परमात्मा ने जीवों को कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में परतन्त्र बनाया है। यह ज्ञान हमारे बहुत से मत-मतान्तरों के आचार्यों सहित उनके अनुयायियों को भी उपलब्ध नहीं है। जिनको कर्म-फल सिद्धान्त का ज्ञान है वह भी अज्ञान व मोह के वश में होकर अनुचित कर्मों को करते हुए देखे जाते हैं। अतः मनुष्य के लिये वैदिक साहित्य का निरन्तर स्वाध्याय तथा ईश्वर की उपासना करना अत्यन्त आवश्यक है। इसी से मनुष्य दोषों से दूर तथा सत्कर्मों में प्रेरित व संलग्न रहता है और उसके जीवन की उन्नति व मोक्ष के लिये ज्ञान व कर्मों का संग्रह होता जाता है जो अन्ततः ऋषि दयानन्द की भांति उसे मोक्ष प्राप्त कराने में सहायक व निर्णायक होते हैं। अतः सबको वेदों का स्वाध्याय करने के साथ तपस्वी तथा भोगों के प्रति वैराग्य भाव को धारण करना चाहिये। 

संसार में तीसरे अनादि व नित्य पदार्थ प्रकृति का भी अस्तित्व है। प्रकृति जड़ तत्व है। यह तीन गुणों सत्व, रज व तम से युक्त होती है। सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी परमात्मा इस प्रकृति में ही प्रेरणा कर अपने अनादि व नित्य ज्ञान से इसे सृष्टि व ब्रह्माण्ड का रूप देते हैं। प्रकृति के तीन सत्व, रज तथा तम गुणों से प्रथम महतत्व बनता है तथा उत्तरोत्तर अहंकार, पांच तन्मात्रायें, दश इन्द्रियां, मन, बुद्धि, चित्त, पंच महाभूत एवं दृश्यमान जगत परमात्मा के द्वारा बनता है। इस सृष्टि का निर्माण परमात्मा अपनी अनादि प्रजा वा सन्तान जीवों को उनके पूर्व कल्प व जन्म के शुभ व अशुभ, पाप व पुण्य कर्मों का सुख व दुःखरूपी फल प्रदान करने के लिये करते हैं। जिस प्रकार न्यायाधीश अपराध करने वालों को दण्ड देते हैं उसी प्रकार परमात्मा पापियों को दण्ड तथा सद्कर्म करने वालों को पुरस्कारस्वरूप सुख व आनन्द प्रदान करते हैं। इसी प्रकार से यह संसार अनादि काल से चला आ रहा है। ईश्वर व उसके वेदविहित नियमों का पालन होता हुआ हम सर्वत्र देखते हैं। सृष्टि में सूर्याेदय, सूर्यास्त, ऋतु परिवर्तन आदि नियमपूर्वक हो रहे हैं तथा सृष्टि में जीवात्माओं के जन्म व मरण की व्यवस्था भी नियमपूर्वक हो रही है। अतः वेद के सभी सिद्धान्त विद्या पर आधारित, सृष्टिक्रम के सर्वथा अनुकूल तथा सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर स्थिर हैं। हमें ईश्वर व वेदज्ञान में विश्वास रखकर वेदज्ञान को ही अपने जीवन जीनें का आधार बनाना चाहिये। ऐसा करने से ही हम अपनी आत्मा को समस्त सुखों से युक्त करा सकते हैं। अनादि काल से वेदों के ज्ञानी हमारे सभी ऋषि, मुनि, ज्ञानी, ध्यानी, ईश्वर व वेदभक्त, ऋषि दयानन्द पर्यन्त वेदों के अनुसार ही जीवन व्यतीत करते आये हैं। 

हमें भी वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्यस्वरूप सहित ईश्वर के कर्मफल विधान सहित सृष्टि की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय तथा जन्म-मरण व मोक्ष के सिद्धान्त को समझना है। अपरिग्रही होकर, तप व उपासना कर तथा ईश्वर का साक्षात्कार कर जीवन व जन्म-मरण से मुक्त होना है। ऋषि दयानन्द ने हमें वेदों के आधार पर ‘सम्पूर्ण सत्य जीवन दर्शन’ दिया है। हमें ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों सहित उनके जीवनचरित को पढ़ना चाहिये और उनके अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिये। यही हमारे व सब मनुष्यों के लिये कल्याणकारी व सुखप्रद है। इसके विपरीत जो मार्ग हैं वह हमें बन्धन, दुःख व अवनति के मार्ग पर ले जाते हैं। ओ३म् शम्। 

-मनमोहन कुमार आर्य
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