महर्षि पतंजलि कृत योगदर्शन के प्रथम अध्याय समाधिपाद के सूत्र 26 वें के आधार पर शंका एवं उनका समाधान

क्रमश:

नवीं किस्त।

शंका संख्या 83——-
ईश्वर गुरुओं का गुरु कैसे हैं?
समाधान —-संसार में आज तक जितने भी गुरु हुए हैं उन सब का गुरु ईश्वर है ।क्योंकि ईश्वर ने ही सृष्टि के प्रारंभ में चार वेदों का ज्ञान दिया ।वेदों के ज्ञान के बिना कोई भी व्यक्ति गुरु अथवा ज्ञानवान नहीं हो सकता । आत्मा में ज्ञान ,प्रयत्न ,सुख, दुख, राग व द्वेष होते हैं। परंतु आत्मा को पूर्ण ज्ञान नहीं होता ।परमात्मा को केवल पूर्ण ज्ञान होता है। आत्मा में जो ज्ञान होता है वह उसक स्वाभाविक भी है और नैमितिक भी है। परंतु ईश्वर का ज्ञान स्वाभाविक है।इसलिए ज्ञान का आदि स्रोत ईश्वर हुआ। इस आदि स्रोत से सबको ज्ञान प्राप्त होता है। ईश्वर किसी काल में नहीं मरता। वह सार्वकालिक है ।वह वर्तमान में भी गुरु है। भूत में गुरु था। भविष्य में भी गुरु होगा ।तीनों कालों में जितने भी गुरु हुए उन सब का गुरु ईश्वर है। क्योंकि काल सशरीर को मार देगा परंतु ईश्वर को नहीं मार सकता।
ईश्वर काल से कभी सीमित नहीं होता ।क्योंकि उपदेश के लिए उसे शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं होती। वह अशरीर रहता हुआ सर्वशक्तिमत्ता से आदि ऋषियों के आत्मा में वेद ज्ञान को अभिव्यक्त कर देता है। काल की सीमा उस पर कोई प्रभाव नहीं रखती। इस प्रकार वह पूर्ववर्ती गुरुओं का भी गुरु माना जाता है ।उसका वह उपदेश सर्वकालिक इसीलिए कहा जाता है।
यद्यपि ब्रह्मा ,कपिल, सनक ,सनंदन, आदि तत्वदर्शी गुरुओं ने आदिकाल में देह धारण कर मानव मात्र को आत्मज्ञान का उपदेश दिया था । वह ईश्वर पूर्व ऋषियों का भी गुरु है। और काल से भी विभक्त नहीं होता।परंतु पूर्व में उत्पन्न हुए सभी ऋषि चाहे वो देव्य ऋषि थेश्रुत ऋषि थे।वह सभी काल के गाल में समा गए। उनकी कालकृत सीमा होती है। सब देह धारण करने के कारण काल से सीमित रहे ।कोई भी देह सदा नहीं रह सकता। वह अनित्य है। एक नियत काल से सीमित है। किन्ही जीवात्माओं द्वारा तत्वज्ञान का उपदेश देह धारण करने के बिना संभव नहीं ।अतः ब्रह्म, कपिल आदि पहले गुरु काल से सीमित रहते हैं ।लेकिन ईश्वर काल से सीमित नहीं है।
जैसे इस वर्तमान सर्ग के प्रारंभ में अपनी उत्कृष्टता ,प्रकष्टता से ईश्वर वेदोंपदेश में समर्थ है वैसे ही वह अनादि काल से चले आ रहे क्रमिक अतीत सर्गों में वेदोंपदेश प्राप्त कराता रहा है।
इसलिए इस भ्रांति को दूर करें कि ‘गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूं पाय,
अतः ईश्वर ही गुरुओं का गुरु है इसलिए उसी की भक्ति, उपासना ,प्रार्थना ,याचना करनी उपयुक्त है।

यहां तक यह स्पष्ट हुआ कि महर्षि पतंजलि महाराज ने योग दर्शन के समाधि पाद के सूत्र 24 25 और 26 में ईश्वर की पहचान बताई है।
शंका संख्या 84—–
सूत्र संख्या 27 में शिष्य ने यह पूछा कि जिस ईश्वर की पहचान आपने सूत्र संख्या 24, 25 और 26 में बता दी, उसे किस नाम से पुकारें ,उसका मुख्य नाम क्या है?

समाधान—–तस्य वाचक: प्रणव:
अर्थात उसका बोधक या नामपद प्रणव -ओम है। दूसरे शब्दों में कहें तो उस ईश्वर का बोध कराने वाला केवल एक नाम प्रणव अथवा ओम है।
महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में ईश्वर के अनेक नामों की व्याख्या की है। ईश्वर के अनेक नाम बताए हैं।
महर्षि दयानंद ने हमारे लिए बहुत सरल करके वे नाम वेद और वैदिक साहित्य में से लेकर के एक जगह संग्रहित किए हैं।
वेद और वैदिक साहित्य में ईश्वर को अनेक नामों से पुकारा गया। ब्रह्म, परमात्मा, सर्वज्ञ ,निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनंत, सर्वधार ,निर्विकार ,सर्वशक्तिमान, दयालु,न्यायकारी, आदि, अनुपम, सर्वांतर्यामी ,अजर, अमर ,अभय, नित्य, पवित्र, सच्चिदानंद और अनेक अनेक नाम से उसका उल्लेख शास्त्रों में किया गया ।परंतु इनमें से अनेक नाम ऐसे हैं जो बिना किसी बाधा के अन्य तत्वों, मनुष्य ,वस्तुओं, पदार्थ के लिए भी प्रयुक्त होते हैं। इसके अतिरिक्त यह ध्यान देने की बात है कि वह सब नाम अपने प्रवृत्तिनिमित्त के अनुसार परमेश्वर की किसी एक विशेषता को भी व्यक्त करते हैं ।परंतु इसके विपरीत परमात्मा का ‘ओम ‘नाम उसके पूर्ण स्वरूप को अभिव्यक्त करता है। तथा उसके स्वरूप को ही अभिव्यक्त करता है ,अन्य किसी तत्व के लिए ओम नहीं कहा जा सकता। इसी कारण यह परमात्मा का मुख्य नाम माना जाता है। इसे योग शास्त्र में महामंत्र समझना चाहिए।
शंका संख्या 85—‘ओम’ पद की व्याख्या क्या है?
समाधान—-ओम पद अकार, उकार और मकार तीन वर्ण विभाग को समाहित करता है।
तीन मात्राओं में विभक्त करता है।
इसके लिए प्रश्न उपनिषद, कठोपनिषद, सत्यार्थ प्रकाश का प्रारंभिक भाग, छांदोग्य उपनिषद के ‘उदगीत उपासना’ प्रसंग को देखें। जब तक किसी भी उपासक को ,योगी को अकार ,उकार और मकार का अर्थ समझ में नहीं आता, हृदयंगम नहीं हो जाता, तब तक वह सार को हृदयंगम नहीं कर पाएगा। इसलिए ओम का रहस्य पूर्ण अर्थ समझ लेना बहुत ही आवश्यक है।महर्षि पतंजलि ने ईश्वर का वाचक प्रणव ओम बताया है।
शंका संख्या 86—ईश्वर के निज नाम ओम में क्या अनेक नाम समाते हैं?
समाधान—-वर्णविभाग करते हुए जिस तरीके से अकार ,उकार और मकार किया गया है ।इन तीनों अक्षरों से अर्थात वर्णविभाग से भी ईश्वर के अनेक नामों की प्रकट्ता होती है। वैसे ओम ईश्वर का निज नाम है । इसीलिए कहा जाता है कि सर्वप्रथम ओम में स्थित होकर उच्चारण करना चाहिए अर्थात ओम का स्मरण ध्यानपूर्वक करना चाहिए।
पूर्णतया ईश्वरप्राणिधान होकर, पूर्णत:दत्तचित होकर, एकाग्रचित होकर ईश्वर का स्मरण करना चाहिए।
ओम के अंतर्गत जो तीन मात्राएं अ ,उ ,म है उन पर विचार करना चाहिए। वास्तव में अ,उ,एवं म ही वर्ण विभाग है। इन तीनों के बहुत ही व्यापक अर्थ है। योगी को, उपासक को उसके अर्थ में उतरना चाहिए। उपासक को यह भी समझना चाहिए कि यह ईश्वर का निज नाम है। ओम ईश्वर का सर्वोत्तम नाम है। शेष नाम गौणिक ,कार्मिक और स्वाभाविक हैं।इन्हीं गुण ,कर्म और स्वभाव के आधार पर ईश्वर के अनेक नाम हो जाते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि ईश्वर के एक ओम नाम में बहुत से नाम समाहित है। जो एक व्यापक आयाम को अपने अंदर समेटे हुए हैं।
शंका संख्या 87—-ओम के अक्षर अ,उ,तथा म से क्या-क्या तात्पर्य है?
समाधान—-अ से तात्पर्य विराट, विशाल ,विस्तृत, सर्वत्र व्याप्त, सर्वांतर्यामी है। अर्थात ओम की प्रथम मात्रा अकार है जिसका जागृत स्थल से संबंध है। वह अग्नि रूप है। यह अकार मात्रा वैश्वानर अर्थात विश्वानर या विश्व से संबंधित है। (अ,उ, और म को विस्तृत रूप से पढ़ने के लिए मांड्यक उपनिषद देखें) इसी को स्वप्रकाश होने से अग्नि भी कहते हैं। जो सर्वप्रथम अग्रगण्य है। इसलिए भी ईश्वर को अग्नि कहा जाता है। वह ओम जो बहुत प्रकार से जगत को प्रकाशित करता है,वह विराट है।
(विशेष अध्ययन के लिए जगतगुरु ऋषि दयानंद कृत अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम समुल्लास भी देखें)
‘उ’ मात्रा से उकार और उकार से ईश्वर के नाम हिरण्यगर्भ : ‌,वायु तेजस् आदि होते हैं। इसका संबंध स्वप्न स्थान से है वह तेजस है।
तीसरी मात्रा’ म ‘मकार से भी ईश्वर का ही गुणवाचक अर्थ है।
इस प्रकार उक्त नामों का वाचक और ग्राहक है। वेद आदि शास्त्रों में इस प्रकार स्पष्ट व्याख्या है कि प्रकरण के अनुसार ईश्वर के सभी नाम हैं ।यह तीनों मात्रा जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति हैं। इन तीनों में जागृत अवस्था सर्वोत्तम है। यह सब नाम परम ब्रह्म के हैं। ओमकार आदि नाम से परमात्मा का ग्रहण होता है ।कहीं गौणिक, कार्मिक और कहीं स्वाभाविक है।
उदाहरण के लिए जैसे ओम आकाश की तरह व्यापक होने के कारण कहा जाता है। ओम'” खं ब्रह्म” सबसे बड़ा होने के कारण कहा जाता है जो निरंतर व्याप्त है। ओम सभी की रक्षा करने के कारण नाम बना है, जो कभी भी नष्ट नहीं होता है ।ब्रह्मा जिसने जगत को बनाया है । यह नाम गौणिक, कार्मिक और स्वाभाविक है।
शंका संख्या 88——प्रणव पद को और स्पष्ट करें?
समाधान—–‘प्रणव ‘ शब्द दो अक्षरों से मिलकर बना है पहला ‘प्र’ दूसरा’ णु’ ।
‘णु ‘को धातु स्तुतौ के साथ प्रत्यय करने से ‘प्रणव’ शब्द की उत्पत्ति होती है।
प्रणव उसे कहते हैं जिस पद से ईश्वर की स्तुति प्रकृष्टरूप से की जाती है। और ऐसा पद केवल ओम ही है। अर्थात केवल ओम के जाप करने से ही ईश्वर की स्तुति पूर्ण हो सकती है। इसीलिए ओम प्रणव कहा जाता है। ओम बोलने के पश्चात ओम का जाप करने के पश्चात किसी अन्य नाम के प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि यह परमात्मा के पूर्ण रूप को अभिव्यक्त करता है इसलिए इसको प्रणव कहा गया है। परमात्मा का अन्य कोई नाम प्रणव नहीं कहा गया।
शंका संख्या 89 —-ओम को अथवा परमात्मा को सत ,चित्त आनंद स्वरूप क्यों कहा गया है?
समाधान—-ओम की तीन मात्राओं का ज्ञान हमको ऊपर के प्रस्तरों में हो चुका।
लेकिन उसका और विशेष अर्थ देखें तो अकार से आनंद, उकार से चित्त और मकार से सत धातु का भी बोध होता है।
इस प्रकार परमात्मा का मौलिक व पूर्ण रूप सत् चित् आनन्द है।
अ,उ,म इन तीनों में से पहले दो को जोड़कर ‘ओ३’ शब्द बनता है। इसमें ‘अ ‘और ‘उ’ की संधि हो चुकी है।इसके संधि करने से ईश्वर के सर्वोत्कृष्ट आनंद स्वरूप का बोध होता है, लेकिन चित्त से परमात्मा और जीवात्मा दोनों का बोध होता है । क्योंकि आत्मा और परमात्मा दोनों चेतन है। इसलिए उनको चित्त( चैतन्य स्वरूप)कहा गया। यहां पर इन दोनों वर्णों का मेल दोनों के एक ही वर्ग चेतन स्वरूप होने को ज्ञापित करता है। इन दोनों के अतिरिक्त अन्य कोई चैतन्य नहीं है। यह नितांत एवं निर्भ्रांत सत्य है।
ओम की तीसरी मात्रा ‘म ‘होती है।
यह ‘म’ सत् से संबंध रखता है। ईश्वर, जीव और प्रकृति इन तीनों में जो सत तत्व है यह उसका द्योतक है।
यद्यपि सत तत्व ईश्वर ,जीव और प्रकृति तीनों में है,परंतु तीनों की सत्ता में अंतर भी है।
शंका संख्या 90–+-ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों के सत तत्वों में क्या अंतर है?
समाधान—–‘अ’ एवं ‘उ ‘ये दोनों स्वर है, लेकिन’ म’ व्यंजन है। ‘अ ‘ तथा ‘उ ‘की सत्ता सदा एक रूप एवं अपरिणामी है ।ये स्वयं प्रकाशित रहते हैं। परंतु’ म’ की सत्ता सदा परिणामी रहती है।
जैसे हम जानते हैं कि इस जगत का मूल उपादान कारण जड़ तत्व प्रकृति है ,जो चेतन प्रेरणा के बिना कुछ भी नहीं कर सकती। क्योंकि वह अपनी प्रत्येक क्रिया के लिए चेतन आत्मा अथवा परमात्मा पर आश्रित रहती है।
इस प्रकार अ,उ, म ये ईश्वर ,जीव और प्रकृति को भी परिलक्षित करते हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि ईश्वर का ओम नाम उसके पूर्ण स्वरूप को अभिव्यक्त करता है और ओम ईश्वर का वाचक और ईश्वर उसका वाच्य है, ओम नाम ईश्वर नामी है।
उसका यह संबंध नित्य है। प्रणव ईश्वर का वाचक है। जैसे पिता पुत्र का संबंध होता है।
उपासक जब ईश्वर और प्रणव के वाच्य और वाचक के संबंध को जान लेता है तभी वह अपना संपर्क वाच्य के साथ जोड़ने का प्रयास करता है। यही स्थिति ईश्वरप्राणिधान की है।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
अध्यक्ष उगता भारत समाचार पत्र नोएडा।

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