विश्व का सबसे पुराना राजवंश, जिसके बारे में इतिहास मौन है

कृष्णानन्द सागर

विश्व के बड़े-बड़े राजवंश केवल कुछ शताब्दियों तक ही चले और समाप्त हो गए, किन्तु भारत में कई राजवंश हजारों वर्षों तक चलते रहे हैं। सबसे लम्बा चलने वाला राजवंश रहा इक्ष्वाकु वंश, जो सतयुग, त्रेता तथा द्वापर तीन युगों तक चला। इसी वंश में मान्धाता, रघु व राम हुए। अन्तिम वंशज बृहद्बल महाभारत युद्ध में अभिमन्यु द्वारा मारा गया और वह राजवंश वहीं समाप्त हो गया।

महाभारत युद्ध में ही एक और महान योद्धा सुशर्मा, जो त्रिगर्त (कांगड़ा प्रदेश) का राजा और दुर्योधन की पत्नी भानुमति का भाई था युद्ध में उसका वध अर्जुन ने किया था।

सुशर्मा कटोच वंश का था। त्रिगर्त पर कटोच वंश का राज्य महाभारत युद्ध से लगभग छ: हजार वर्ष पूर्व से चला आ रहा था। महाभारत युद्ध के बाद भी सन् 1947 तक कटोच राजवंश का शासन कांगड़ा क्षेत्र पर रहा है, यद्यपि काल के थपेड़े खाते खाते कांगड़ा राज्य क्रमश: सिकुड़ता गया। और 1947 में अन्य राज्यों की तरह यह भी भारत राज्य में विलय हो गया।

कटोच क्षत्रिय अपना आदि पुरुष भौम को मानते है। भौम के पुत्र सोम ने देवताओं की सुरक्षा के लिए पंजाब के पर्वतों में त्रिगर्त राज्य की स्थापना की। इस राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी नगर कोट (वर्तमान कांगड़ा) थी और शीतकालीन राजधानी जालन्धर थी। कटोच राजाओं की विशेषता यह रही कि उन्होंने अपनी वंशावली सुरक्षित रखी और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसमें नए नाम जोड़ते रहे। नगीना राम परमार द्वारा उर्दू में लिखित और सन् 1927 में प्रकाशित पुस्तक ‘तवारीखे कदीम आर्यावर्त’ (अर्थात् आर्यावर्त का प्राचीन इतिहास) में आरम्भ से लेकर सन् 1929 तक इस वंश के सभी राजाओं की सूची दी है, जिसमें कुल 483 नाम है। 483 वां नाम उस समय के ‘राजा जयचन्द’ का है। यदि एक पीढ़ी का औसत राज्यकाल 25 वर्ष लगाया जाए तो बारह हजार पचहत्तर वर्ष कटोच राजवंश का काल बनता है।

इस वंश की 253 वीं पीढ़ी के राजा मंगलचन्द्र ने जम्मू के राजा राजवल्लभ का वध किया था, इसका विवरण जम्मू के इतिहास में पाया जाता है। 270 वीं पीढ़ी का राजा जल्हण चन्द्र लाहौर के राजा केदार का समकालीन था, जिसका काल सन् 478 ई. निश्चित किया गया है। यूनान के पर्यटकों के यात्रावृत्तों में कांगड़ा के राज्य का उल्लेख है। कांगड़ा के साथ के राज्यों कश्मीर, जम्मू, चम्बा, बसोहली आदि के इतिहास की पुस्तकों में कांगड़ा का नाम बार-बार आया है।

सन् 1009 में कांगड़ा के राजाओं की 436वीं पीढ़ी के राज्यकाल में महमूद गजनवी ने कांगड़ा पर आक्रमण किया। वहां अम्बिका देवी के मन्दिर में अथाह धनराशि, हीरे-मोती और जवाहरात थे। उसने सब वहां से उठवा लिए। देवी की मूर्ति को तुड़वा कर काबा भेज दिया ताकि उसे काबा के द्वार पर रखा जाए और काबा में आने वाले यात्रियों के पैरों से वह रौन्दी जाती रहे। इसके 35 वर्ष बाद दिल्ली के राजा की सहायता से कांगड़ा का दुर्ग कांगड़ा के राजवंश के पास वापिस आ गया।
सन् 1360 में फिरोजशाह तुगलक ने कांगड़ा पर आक्रमण किया । परन्तु राजा ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। राजा लक्ष्मणचन्द्र के बाद इस राज्य में से चार राज्य जसवां , सीबा, दातारपुर और गुलरे बाहर हो गए। राजा धर्मचन्द्र के समय दिल्ली के अकबर की दृष्टि इस पर पड़ी और इसका कुछ क्षेत्र उसने अपने अधिकार में कर लिया। धर्मचन्द्र की चौथी पीढ़ी में त्रिलोक चन्द्र ने पुन: अपने राज्य को शक्तिशाली बनाया। किन्तु उसके पुत्र हरिचन्द्र को जहांगीर ने कत्ल करवा दिया और कांगड़ा पर अधिकार कर लिया।

बाद में राजा धमण्डचन्द्र जब गद्दी पर बैठे तो उसने धीरे-धीरे अपने सारे क्षेत्र मुगलों से छीन लिए। जालन्धर दोआब भी जीत लिया। इस तरह सतलुज से रावी तक का क्षेत्र उसके अधिकार में आ गया, किन्तु वह कांगड़ा के दुर्ग को मुगलों से वापिस न ले सका।

सन् 1832 में राजा संसार चन्द्र सिंहासनारूढ़ हुआ। उसने अपनी योग्यता और पराक्रम से अपने राज्य का खूब विस्तार किया और 1835 में नगरकोट पर भी अधिकार कर लिया किन्तु वह महाराजा रणजीत सिंह की सेना से हार गया। पश्चात महाराजा नेपाल द्वारा भेजी गई गोरखा सेना से भी वह हार गया। ऐसी स्थिति में उसने महाराज रणजीत सिंह से ही सहायता मांगी। सिख सेना ने नेपाली सेना को पराजित कर उन्हें सतलुज के पार भगा दिया। इस सहायता के बदले में रणजीत सिंह ने कांगड़ा का दुर्ग संसारचन्द्र से ले लिया। इसके उपरान्त कांगड़ा रियासत दुर्बल ही होती गई और अन्त में अंग्रेजों की आश्रित हो गई।

इस सब उत्थान-पतन के बावजूद कटोच राज वश्ंा ने अपना अस्तित्व 10,000 वर्ष से भी अधिक समय तक बनाए रखा, यह सामान्य बात नहीं। किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि आधुनिक काल में विश्व के सभी राज वंशों से यह पुराना है, इस बिन्दु पर इतिहासकारों की दृष्टि क्यों नहीं गई?

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