वेद, महर्षि दयानंद और भारतीय संविधान-39

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 40 व्यवस्था करता है-
‘राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो इन्हें स्वायत्त शासन की इकाईयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों।’
पंचायती व्यवस्था प्राचीनकाल में भारत में लोकतंत्र की रीढ़ थीं। इनके राजनीतिक अधिकार तो थे ही साथ ही सामाजिक और न्यायिक अधिकार भी पंचायतों को प्राप्त थे। इनकी शक्ति को क्षीण किया अंग्रेजों ने। अंग्रेजों की मान्यता थी कि भारत की पंचायतें यदि सुदृढ़ रहेंगी तो भारत पर उनका शासन करना कठिन हो जाएगा। इसलिए भारत की युवा पीढ़ी में भारत के प्राचीन शासनादर्शों तथा संस्थानों के प्रति वितृष्णा का भाव उत्पन्न करना अंग्रेजी शासकों का प्रथम कत्र्तव्य बन गया था। अत: उन्होंने भारत की इस अनुपम राजनीतिक व्यवस्था की प्रथम ईकाई को समूल नष्ट करने में कोई कमी नही छोड़ी।
वेद व्यक्ति की स्वतंत्रता के उद्घोषक हैं। आधुनिक राजनीतिक मनीषियों का मानना है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा तभी संभव है जब राज्य की शक्तियों का विकेन्द्रीयकरण हो। यदि राज्य की शक्तियां केन्द्रीयभूत हैं और एक व्यक्ति अधिनायक होकर कार्य करता है तो व्यक्ति की स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी। इसलिए वैदिक काल में राष्ट्रचिंतक ऋषियों ने वास्तविक प्रजातंत्र की अवधारणा का सूत्रपात करते हुए पंचायती राज्य व्यवस्था का शुभारंभ किया था। ऋग्वेद में आया है-
सहस्रदा ग्रामणीर्मा निषन्मनु: सूर्येणास्य यतमानैतु दक्षिणा।
यहां ऋषि ग्राम प्रधान के प्रजा के प्रति कल्याण भावना से ओत प्रोत होने की बात कह रहा है। ऋषि का कहना है कि ग्राम प्रधान प्रभूत धन देने वाला सहस्रदा धनु है। उसकी दक्षिणा सूर्य से प्रतिद्वंद्विता करे। कहने का अभिप्राय ये है कि जिस प्रकार सूर्य सभी लोगों पर बिना किसी भेदभाव के अपनी किरणों को बिखेरता है, उसी प्रकार ग्रामणी प्रत्येक व्यक्ति और ग्रामवासी के प्रति स्नेहासिक्त हो ताकि उसके हृदय में किसी के प्रति भी द्वेषभाव ना हो। जैसे सूर्य की किरणें सबके लिए जीवन प्रद हैं उसी प्रकार ग्राम प्रधान सबके लिए जीवनप्रद हो।
ग्राम प्रधान दक्षिणादाता होता है। उसके रहते हुए कोई ग्रामवासी भूखा नंगा नही रह सकता था। हम देखते हैं कि स्वतंत्रता पूर्व तक हमारे देहात में परंपरा से ऐसी व्यवस्था कार्य करती रही। यद्यपि उस व्यवस्था को शासन का कोई सहयोग या आशीर्वाद प्राप्त नही था। परंतु फिर भी कानून से अनभिज्ञ भारतीय जनता प्राचीन काल से चली आ रही अपनी ही शासन व्यवस्था से स्वयं शासित होती रही। लोग छोटी छोटी बात के लिए पंचायत में जाते और ग्राम पंचायत उसकी समस्या का तर्क संगत समाधान उसे दे देती। स्थानीय स्तर पर कार्यरत इस न्याय संसद के कई लाभ थे।
एक तो ये था कि लोगों में इस व्यवस्था के प्रति संस्कारावशात श्रद्घा होने के कारण पाप या हिंसा वृत्ति के प्रति एक भय रहता था। लोगों को डर रहता था कि मेरी गलत बात का यदि पता चल गया तो समाज क्या कहेगा? समाज से इसलिए व्यक्ति डरता था कि समाज नैतिकता का व्यवस्थापक था। दूसरे इस प्रकार की व्यवस्था के कारण लोगों में अनावश्यक वाद विवाद, और कलह कटुता का वातावरण विकसित नही होता था। स्थानीय स्तर पर ही समस्या का समाधान हो जाने से न्याय में विलंब नही होता था। इसलिए तीसरा लाभ ये था कि सस्ता और सुलभ न्याय जनता को मिलता था। चौथे, शीघ्र न्याय मिल जाने से लोगों में परस्पर घृणा का व्यापार नही होता था। जिससे सामाजिक परिवेश स्वस्थ और स्वच्छ रहता था।
यही कारण था कि वेद ने ऐसे ग्राम प्रधान को नरपति की संज्ञा दी थी।
‘तमेवमन्ये नृपतिं जनानां य: प्रथमो दक्षिणा मा विवाय।’
अर्थात जिसने पहले दक्षिणा आरंभ की उसे ही मैं लोगों का नरपति मानता हूं। महर्षि दयानंद वेद की इसी प्रकार की आदर्श व्यवस्था के पुनरोद्घारक थे। मध्य काल में अंग्रेजों ने अपनी शासन व्यवस्था को सुदृढ़ता देने के लिए ग्राम पंचायतों के अधिकार समाप्त कर दिये, उनके निर्णयों की वैधानिकता को समाप्त कर दिया था।
यह अलग बात है कि इसके उपरांत भी भारत में पंचायतों की यह प्रणाली संस्कारावशात कार्यरत थी। महर्षि दयानंद लोकतंत्र के इस वास्तविक स्वरूप को स्थापित करने के पक्षधर थे कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने विकास के संपूर्ण अवसर उपलब्ध हों। भारत के सुदूर देहाती आंचल में बसे भारतीयों को शोषण मुक्त, भयमुक्त, और अपराधमुक्त समाज देने के लिए महर्षि ने जो स्वराज्य चिंतन किया वह इसी प्रकार की वेद व्यवस्था के अनुरूप ही था। महर्षि दयानंद सरस्वती जी महाराज ने स्तुति प्रार्थना उपासना के जिन 8 वेद मंत्रों का चयन किया है उनमें 8 वां मंत्र है:-
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठांते नम: उक्तिं विधेम्।।
इसकी व्याख्या करते हुए महर्षि दयानंद लिखते हैं-‘हे! स्वयं प्रकाशक ज्ञानस्वरूप सब जगत के प्रकाश करने हारे, सकल सुखदाता परमेश्वर आप जिससे, संपूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से संपूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइए और हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस प्रकार हम लोग आप की बहुत प्रकार की स्तुति रूप, नम्रता पूर्वक प्रशंसा सदा किया करें और सर्वदा आनंद में रहें।’
यहां महर्षि राष्ट्रवाद के संदर्भ में दो बातें कह रहे हैं-
एक तो विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से संपूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराने की तथा दूसरे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कराने की। ये दोनों बातें ही स्वराज्य की आधारशिला हैं। विज्ञान या राज्यादि का ऐश्वर्य तभी चिरस्थायी रह सकता है जबकि हम अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग के अनुयायी हों क्योंकि अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोग सर्वहित रक्षक स्वभाव के होते हैं। समाज तभी उन्नत होगा जब कुटिलतायुक्त पापरूप कर्मों के प्रति सबको घृणा होगी।
इस प्रकार भारत में स्वराज्य के आधारभूत इन तत्वों को यदि पंचायती राज्य व्यवस्था के संधारकों और संचालकों पर भी लागू करके देखा जाए तो ज्ञात होता है कि इस मंत्र में भी वास्तविक स्वराज्य का चिंतनबीज छिपा पड़ा है। इस स्वराज्य का अंतिम लक्ष्य एक शांतिप्रिय और सर्वहित रक्षक समाज का निर्माण करना है, तो भारत के संविधान के उक्त अनुच्छेद का लक्ष्य भी ऐसे ही समाज की संरचना करना है।
‘हमें हृदयहीन व्यवस्था नही चाहिए’
हमें अध्यात्म की सरल सरस और सहृदयी व्यवस्था चाहिए। क्योंकि ऐसी व्यवस्था ही एक मानवतावादी विश्व समाज का निर्माण करा सकती है। हमारे संविधान ने जिस पंचायती राज्य व्यवस्था का लक्ष्य अपने समक्ष रखा उसके लिए हृदयहीन राजनीति (धर्म शून्य राजनीति) मानव की स्वभावत: दुर्बलताओं का सूक्ष्मता से विवेचन करने में सर्वथा असफल रही।
इस राजनीति ने राजनीति के धर्म को और धर्म की राजनीति के मर्म को नही समझा। इसीलिए भारतवर्ष में हम वैसी पंचायती राज्य स्थापित नही कर पाए जैसा इस देश की संस्कृति और समाज के दृष्टिगत अपेक्षित था।
हमने पदलोलुप स्वार्थी और राजनीतिक स्वार्थों के कारण समाज को आपस में लड़़ाने वाले लोगों को राजनीति के शुष्क हृदय के साथ सत्ता लिप्सा के कारण लड़ते झगड़ते देखा है। यही स्थिति ग्राम्य स्तर पर है। यदि इसे भारतीय संस्कारों के अनुसार वेदानुकूल बना दिया जाये तो तभी इस अनुच्छेद की सार्थकता है जो भारत में पंचायती राज्य की व्यवस्था की उद्घोषणा करता है।
भारत के लोकतांत्रिक प्राचीन स्वरूप को समझने की आवश्यकता है, यह स्वरूप न्याय व्यवस्था को अपने द्वारा सहायता उपलब्ध कराता है और समाज में शांति व्यवस्था का दायित्व अपने ऊपर लेता है। जबकि आज की पंचायती व्यवस्था में ऐसा हम नही देख पा रहे हैं।

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