अमेरिकी इतिहास को देखते हुए भविष्य के लिए भारत उस पर कितना भरोसा कर सकता है?

संतोष पाठक

अमेरिकी सरकार भारत की पूर्ण बहुमत वाली मजबूत सरकार के मजबूत प्रधानमंत्री का ऐतिहासिक स्वागत करने को तैयार है लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही खड़ा हो रहा है कि अमेरिका पर कितना ज्यादा भरोसा किया जा सकता है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के निमंत्रण पर 21 जून से 24 जून तक अमेरिका की राजकीय यात्रा पर रहेंगे। वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी सातवीं बार अमेरिका के दौरे पर जा रहे हैं। हालांकि अपने 9 वर्षों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी की यह पहली राजकीय यात्रा होगी यानी इस बार नरेंद्र मोदी अमेरिकी सरकार के आधिकारिक राजकीय मेहमान होंगे।

अमेरिका की आर्थिक हालत और प्रधानमंत्री मोदी के इस दौरे के दौरान होने वाले समझौते को देखते हुए इसे दुनिया के सबसे पुराने एवं विशाल लोकतंत्र और दुनिया के सबसे ताकतवर लोकतंत्र के बीच संबंधों की शुरुआत का एक नया अध्याय भी बताया जा रहा है।

प्रधानमंत्री मोदी के इस अमेरिकी दौरे के दौरान सब की नजरें खासतौर से दोनों देशों के बीच होने वाले अहम बिजनेस और डिफेंस डील पर टिकी हुई हैं। अगर जेट इंजन बनाने की टेक्नोलॉजी अमेरिका भारत को देने के लिए तैयार हो जाता है तो भारतीय प्रधानमंत्री का यह दौरा अपने आप में ऐतिहासिक बन जाएगा। अभी तक के हिसाब से 22 हजार करोड़ रुपए के आर्म्स ड्रोन्स और 350 लड़ाकू विमानों के लिए इंजन बनाने की तकनीक अमेरिका से खरीदने की बात हो रही है। अमेरिका इसके लिए पिछले कुछ सालों से जोरदार लॉबिंग कर रहा था। डील के हिसाब से यह किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री का अमेरिका का अब तक का सबसे बड़ा दौरा माना जा रहा है। भारत की ताकत पिछले कुछ सालों के दौरान वैश्विक स्तर पर बढ़ी है। भारत आज दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और भारत आज विश्व के अनेक देशों के साथ भारतीय रुपए में व्यापार कर रहा है।

अमेरिका भारत की बढ़ते ताकत और वैश्विक प्रभाव एवं आभामंडल को महसूस कर रहा है और इसलिए वह भारत की पूर्ण बहुमत वाली मजबूत सरकार के मजबूत प्रधानमंत्री का ऐतिहासिक स्वागत करने को तैयार है लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही खड़ा हो रहा है कि अमेरिका पर कितना ज्यादा भरोसा किया जा सकता है? क्या अमेरिका वाकई भरोसे के लायक है? अगर आने वाले दिनों में भारत पर कोई मुसीबत आती है या चीन अपने नापाक इरादों को पूरा करने के लिए भारत के साथ युद्ध लड़ने का फैसला कर लेता है तो ऐसे हालात में क्या अमेरिका भारत के साथ खड़ा होगा? क्या भारत अमेरिका पर एक दोस्त की तरह भरोसा कर सकता है? इसका जवाब हां में तो बिल्कुल ही नहीं होने जा रहा है।

1947 में भारत को आजादी मिली, लेकिन आजादी मिलने के पहले से ही अमेरिका ने ब्रिटिश भारत के दौरान अपने राजदूत को दिल्ली भेज कर भारत की आजादी की लड़ाई और बाद में भारत के बंटवारे में एक अलग तरह की ही भूमिका निभाई थी। भारत को आजादी मिलने के बाद भी, अगर पाकिस्तान भारत के खिलाफ बार-बार युद्ध लड़ने की हिम्मत कर पाया तो इसकी सबसे बड़ी वजह उसकी पीठ पर अमेरिका का हाथ होना था। पिछले कुछ दशकों के दौरान अर्थव्यवस्था से लेकर सुरक्षा की नीति तक अमेरिका ने हर बार या यूं कहे कि बार-बार भारत को छोटा दिखाने की कोशिश की। यहां तक कि पिछले कुछ दशकों के दौरान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जब भी भारत के खिलाफ कोई प्रस्ताव आया तो उसमें भी अमेरिका की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही।

वर्तमान में भी अमेरिका का रवैया पूरी तरह से बदल गया हो, ऐसा नजर नहीं आ रहा है। एक तरफ जहां अमेरिका भारत को अपना सबसे बड़ा दोस्त बताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगामी अमेरिकी दौरे को ऐतिहासिक बता रहा है तो वहीं दूसरी तरफ अमेरिका का विदेश विभाग पिछले कुछ दिनों से भारत के अंदर धार्मिक आजादी और अल्पसंख्यकों के साथ किए जा रहे भेदभाव का मसला उठा रहा है। जबकि हकीकत यह है कि लोकतंत्र, मानवाधिकार, अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा और समाज में शांति एवं सौहार्द के मामले में भारत का रिकॉर्ड अमेरिका से कहीं ज्यादा बेहतर है। भारतीयों की बुद्धिमतता और टैलेंट के बल पर रोज नए कीर्तिमान बना रहा अमेरिका भारतीयों के लिए वीजा या ग्रीन कार्ड के मसले पर भी अपने स्टैंड को कड़ा बनाए हुए हैं। यह भी अमेरिकी नीति के एक बड़े विरोधाभास को दिखाता है।

अमेरिका स्वयं अपने देश के हितों खासतौर से आर्थिक, व्यापारिक और सामरिक हितों की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। किसी भी देश को कभी भी गच्चा दे सकता है। किसी भी देश की आंतरिक स्थिति को किसी भी स्तर तक जाकर खराब कर सकता है। लेकिन वही अमेरिका भारत पर यह दबाव डाल रहा है कि रूस यूक्रेन की लड़ाई में भारत एक स्टैंड ले और रूस से कच्चा तेल खरीदना बंद कर दे जबकि अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देश रूस यूक्रेन लड़ाई में किस तरह से ढुलमुल रवैया अपना रहे हैं और अपना-अपना हित साध रहे हैं, यह पूरी दुनिया देख रही है।

एक तरफ जहां अमेरिकी राष्ट्रपति और अमेरिकी सरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वागत करने को तैयार हैं और इस दौरे को ऐतिहासिक बता रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर अमेरिका, चीन के साथ भी अपने रिश्ते को सुधारने की कोशिश कर रहा है। एक तरफ जहां अमेरिका, भारत को चीन के खिलाफ खड़ा करने का मंसूबा पाले बैठा है तो वहीं दूसरी तरफ भारतीय प्रधानमंत्री के अमेरिकी दौरे से ठीक पहले अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन चीन के दौरे पर जाकर रविवार को पेइचिंग में चीन के विदेश मंत्री छिन कांग के साथ एक हाई लेवल कूटनीतिक वार्ता शुरू करते हैं, जिसके कई राउंड होने हैं और इस बीच अमेरिकी विदेश मंत्री की चीन के राष्ट्रपति से भी मुलाकात होनी है।

दरअसल, अमेरिका की यह पुरानी कूटनीति रही है कि वह हमेशा दो शत्रु देशों को एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल करता रहा है। पहले उसने भारत के खिलाफ शत्रुता का स्थायी भाव रखने वाले पाकिस्तान को भारत के खिलाफ खड़ा किया और अब भारत-चीन के बीच चल रहे आपसी तनाव का फायदा उठाने का प्रयास कर रहा है। लेकिन शायद उसे अंदाजा नहीं है कि यह नया भारत है, अब भारत बदल गया है। यह नया भारत, पहले से कहीं अधिक मजबूत, पहले से कहीं अधिक ताकतवर है। अब सरकार की सोच भी बदल गई है। अब भारत में एक ऐसी सरकार है जिसकी सोच पहले से कहीं अधिक स्पष्टवादी है और जिसका स्टैंड बिल्कुल साफ है कि भारत अपने हितों की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। अब यह नया भारत झुकेगा नहीं, रुकेगा नहीं और बहकेगा भी नहीं इसलिए अमेरिका को अब अपना यह पुराना खेल बंद करना पड़ेगा। भारत को भी अमेरिका से सावधान रहने की जरूरत है।

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