समान नागरिक संहिता की बाट जोहता देश

भारत के संविधान का अनुच्छेद 30 ए बहुत ही आपत्तिजनक है। इस संवैधानिक अनुच्छेद को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु के पश्चात संविधान में ढंग से अर्थात चोरी से स्थापित करवाया था। इस पर संविधान सभा में खुलकर कोई बहस नहीं हुई थी , ना ही लोगों से किसी प्रकार की राय मांगी गई थी। सरदार वल्लभभाई पटेल ने जीवित रहते हुए इस संवैधानिक अनुच्छेद का यह कहकर विरोध किया था कि यदि इसे संविधान में स्थापित किया गया तो वह मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे देंगे। यही कारण था कि पंडित जवाहरलाल नेहरू का इसे उस समय संविधान में स्थापित करने का साहस नहीं हुआ था। हां, सरदार पटेल की मृत्यु के उपरांत उन्हें अपने लक्ष्य में सफलता अवश्य प्राप्त हो गई थी।
इस संवैधानिक अनुच्छेद को लेकर लोगों में और विशेष रूप से हिंदू समुदाय में एक अजीब किस्म की बेचैनी है। इसका कारण यही है कि इस्लाम और ईसाइयत को मानने वाले लोगों ने संविधान के इस अनुच्छेद का अनुचित लाभ लेने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है। पंडित जवाहरलाल नेहरु की मंशा इस अनुच्छेद को स्थापित कराने में चाहे जो रही हो, पर सच यह है कि इसने देश के तथाकथित अल्पसंख्यकों को इतनी मजबूती प्रदान की है कि वे बहुसंख्यक हिंदू समुदाय पर हावी – प्रभावी होते चले गए। इस संवैधानिक प्रावधान की ओट में लोगों ने वेद, उपनिषद, गीता आदि वैदिक संस्कृति के प्रेरणा स्रोत ग्रंथों को विद्यालयों में पढ़वाने या उनके मानवतावादी नैतिक पक्ष को स्पष्ट कराने जैसे लेखों पर भी आपत्ति करनी आरंभ कर दी और यह कहना आरंभ कर दिया कि यदि इस प्रकार का कोई प्रयास किया गया तो यह संविधान की आत्मा के विरुद्ध होगा। यह भारत ही है जहां मानवतावाद और नैतिकता को भी उस समय सांप्रदायिक दृष्टिकोण से देखा जाता है जब वह वेद या उपनिषदों या हिंदू ग्रंथों के माध्यम से आ रही हो।
संविधान के इस प्रावधान का अनुचित लाभ लेते हुए कुरान और हदीस की शिक्षा मदरसों में दी जा सकती है, पर वेद, उपनिषद, गीता या रामायण को नहीं पढ़ाया जा सकता। आर्टिकल 30a के अंतर्गत देश के अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थानों में अपनी मजहबी शिक्षा देने का अधिकार तो दे दिया गया पर देश में अल्पसंख्यक कौन होंगे ?- इसका स्पष्टीकरण किसी स्पष्ट परिभाषा के आधार पर कभी नहीं किया गया। 27 जनवरी 2014 के भारत के राजपत्र के अनुसार, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी और जैन धर्म के लोगों को भारत में अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा मिला है।
हम अभी यह भली प्रकार जानते हैं कि संविधान का अनुच्छेद 29 अल्पसंख्यकों की भाषा, लिपि और संस्कृति के संरक्षण से संबंधित है। संविधान के इस अनुच्छेद की भाषा को देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि इसका बहुसंख्यक समाज अपनी भाषा अर्थात इस देश की मूल राष्ट्रभाषा संस्कृत की उत्तराधिकारिणी हिंदी के लिए इतने अधिकार नहीं रखता जितना कोई अल्पसंख्यक अपनी भाषा को लेकर रखता है। दूसरे शब्दों में देश की राष्ट्रभाषा की उपेक्षा हो सकती है पर संविधान के इस विशेष अनुच्छेद की आड़ में विदेशी मजहबों की भाषाएं अपना अस्तित्व बचाए रखने में सफल हो सकती हैं। क्या संविधान का कोई ऐसा अनुच्छेद है जो देश की राष्ट्रभाषा को स्पष्ट करता हो और उसे संवैधानिक संरक्षण प्रदान करने की बात भी करता है।
संविधान के इस आपत्तिजनक अनुच्छेद के चलते यह स्पष्ट किया गया है कि सभी अल्पसंख्यकों (धार्मिक और भाषाई) को देश में अपनी रुचि के शैक्षिक संस्थानों को स्थापित और संचालित करने का अधिकार होगा। अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित और प्रशासित किसी शैक्षणिक संस्थान की किसी भी संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण के लिए कोई कानून बनाते समय, राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसा कानून, अल्पसंख्यकों के अधिकारों को किसी भी प्रकार से बाधित नहीं कर पाएगा ।
अल्पसंख्यकों के ऐसी शैक्षणिक संस्थानों को जब राज्य सरकार आर्थिक सहायता देने में इतना ही ध्यान रखेगी जितना वह अन्य शैक्षणिक संस्थानों का रखती है और जब इस प्रकार की व्यवस्था को संविधान का संरक्षण मिल जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि संविधान का यह अनुच्छेद अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों पर न केवल भारी बनाता है बल्कि देश के बहुसंख्यक समाज को कहीं ना कहीं अधिकारविहीन कर उसे ठेस भी पहुंचाता है। यह तथ्य तब और भी अधिक आपत्तिजनक हो जाता है जब यह स्पष्ट किया जाता है कि संविधान के अनुच्छेद 30 के अंतर्गत दी गई सुरक्षा केवल अल्पसंख्यकों तक सीमित है और इसे देश के सभी नागरिकों तक विस्तारित नही किया जाता है। इस प्रकार के स्पष्टीकरण से आर्टिकल 30a के संबंध में प्रत्येक के मन मस्तिष्क में यह बात पूर्ण स्पष्टता के साथ बैठ जाती है कि यह अल्पसंख्यकों को एक ‘सुरक्षा कवच’ के रूप में दिया गया है और बहुसंख्यकों को पंखविहीन कर देता है।
यदि देश की व्यवस्था में चाहे किसी भी आधार पर ऐसी व्यवस्था की जाती है कि वह व्यवस्था किसी एक समुदाय को तो सुरक्षा कवच के रूप में दिखाई देती है और दूसरे को पंखविहीन कर देती है तो ऐसी व्यवस्था को सड़ी गली व्यवस्था देने के अतिरिक्त और किसी सम्मानजनक शब्दावली के साथ संबोधित नहीं किया जा सकता। इस सड़ी गली व्यवस्था का परिणाम यह हुआ है कि देश की आत्मा जिसे विश्वात्मा भी कहा जा सकता है वह पवित्र भाषा संस्कृत देश में दम तोड़ती जा रही है और उर्दू व इंग्लिश हिंदी और संस्कृत पर भारी होती जा रही हैं। यदि आप व्यवस्था में एक छेद छोड़ देते हैं तो उस व्यवस्था के आधार पर अन्य कई छेद अपने आप हो जाते हैं। बात स्पष्ट है कि नाव डुबाने के लिए तो एक छेद ही पर्याप्त था और जहां कई छेद हो जाएं तो वहां तो नाव का डूबना निश्चित है।
अब जबकि देश में कॉमन सिविल कोड लागू करने की मांग की जा रही है और गुलामी के प्रतीकों को भी हटाने के लिए सरकार कृत संकल्पित दिखाई देती है तो देश की मौलिक विचारधारा, मौलिक चिंतनशैली, मुख्यधारा या देश के उन राष्ट्रीय प्रतीकों ,मान्यताओं या सिद्धांतों का संरक्षण आवश्यक है जिससे हमारे देश की पहचान बनती है। कहा जा सकता है कि देश की पहचान इसके संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से बनती है बहुलतावादी संस्कृति में सभी की मान्यताओं का सम्मान हो, यह हमारे देश का चिंतन है। हमारा मानना है कि इस प्रकार की बात कहना अपने दोगलेपन को दिखाना होता है।
संविधान का यह भी स्पष्ट मानना है कि देश में समान नागरिक संहिता लागू की जाएगी। समान नागरिक संहिता का अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति के मौलिक अधिकारों और साथ ही साथ मौलिक कर्तव्यों पर संविधान एक साथ – एक भाव से विचार करेगा और उनके बीच जाति ,संप्रदाय, लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। क्या समान नागरिक संहिता के इस पवित्र भाव से बढ़कर कोई अन्य संरक्षण का भाव हो सकता है? हमारा मानना है कि कदापि नहीं।
समय का तकाजा है कि केंद्र सरकार देश में यथाशीघ्र कॉमन सिविल कोड लागू करते हुए भारत के मानवतावादी और नैतिकतावादी वैदिक चिन्तन को विद्यालय पाठ्यक्रम में यथाशीघ्र स्थापित कराए और संविधान के इस आपत्तिजनक अनुच्छेद का समूल विनाश करे। इस बार को और अधिक बनाए रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती कि हम दूसरों को खुश रखने के लिए अपने अच्छे पक्ष को भी भुला दें।

डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)

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