महिला सशक्तिकरण, देश की राजनीति और देश की महिला पहलवान

किसी भी बिंदु पर दो विचारधाराएं होना और दो विचारधाराओं का टकराव होना प्राकृतिक नियम है। प्रत्येक विचारधारा की अपनी मान्यताएं, अपने नियम और अपनी कसौटियां तथा गुण विशेष हुआ करते हैं ।
विद्वान जगत की जहां तक बात है वह तो एक ईश्वर के मानने में भी भिन्न-भिन्न मान्यताएं रखता है अर्थात एक ईश्वर के होने में भी विद्वान मतैक्य नहीं हैं। इसी से समर्थक या प्रशंसक एवं विरोधियों की संज्ञा बनी है।
यह जो पहलवानों का प्रकरण चल रहा है, अथवा राजनीति से प्रेरित होकर चलाया जा रहा है (यह राजनीति से प्रेरित होना मैं नहीं कह रहा बल्कि देश के एक प्रसिद्ध चैनल पर देश की जनता के विचारों को जनता ने सुना तथा देखा है, जिस शो में बहुमत में यह तर्क प्रस्तुत किया जा रहा था कि यह राजनीति से प्रेरित है)
चलिए छोड़िए, राजनीति से प्रेरित है अथवा नही है। यह विवाद का विषय बन जाएगा कोई इधर की कहेंगे कोई उधर की ।
मैं तो विद्वानों के समूह पटल पर लिख रहा हूं। मुझे अपनी जिम्मेदारी का एहसास है।अधिकतर विद्वान अधिवक्तागण इस समूह पटल के सदस्य हैं। विद्वान वह होता है जो भावनाओं में नहीं बहता बल्कि परमात्मा के नियम अथवा मनुष्य के द्वारा बनाए गए संविधान और नियम कानून पर विचार करता है उसके अनुसार कार्य करता है।
महिला सशक्तिकरण की बात समाज में रह रहकर उठती रही है। महिला सशक्तिकरण का अर्थ कुछ इस प्रकार लगाया जाता है कि जैसे महिलाओं को किसी वर्ग विशेषकर पुरूष वर्ग का सामना करने के लिए सुदृढ किया जा रहा है। भारतीय समाज में प्राचीनकाल से ही नारी को पुरूष के समान अधिकार प्रदान किये गये हैं। उसे अपने जीवन की गरिमा को सुरक्षित रखने और सम्मानित जीवन जीने का पूर्ण अधिकार प्रदान किया गया। यहां तक कि शिक्षा और ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में भी महिलाओं को अपनी प्रतिभा को निखारने और मुखरित करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गयी। महाभारत काल के पश्चात नारी की इस स्थिति में गिरावट आयी। उससे शिक्षा का मौलिक अधिकार छीन लिया गया। धीरे धीरे शूद्र गंवार, पशु और नारी को ताडऩे के समान स्तर पर रखने की स्थिति तक हम आ गये।जबकि शूद्र, गंवार पशु और नारी ये प्रताडऩा के नही अपितु ये तारन के अधिकारी है। इनका कल्याण होना चाहिए। जिसके लिए पुरूष समाज को विशेष रक्षोपाय करने चाहिए।
जब मैं वर्ष 1976 में एलएलबी का महानंद मिशन हरिजन कॉलेज गाजियाबाद का छात्र था, तो प्रोफ़ेसर साहब ला ऑफ कॉन्स्टिट्यूशन पढ़ा रहे थे। उसमें महिलाओं को विशेष अधिकार दिया गया है। मन में एक स्वाभाविक प्रश्न आया कि महिलाओं को विशेष अधिकार क्यों दिया गया? मैंने अपनी शंका का समाधान करने के लिए आदरणीय प्रोफेसर डी0 डी0 शर्मा साहब के समक्ष यह बात रख दी कि महिलाओं को विशेष अधिकार क्यों?
प्रोफेसर साहब ने जो उस समय उत्तर दिया वह यह था कि महिलाओं का विशेष अधिकार का प्राविधान संविधान में इसलिए किया गया है कि महिला एक कमजोर वर्ग की प्राणी है। आदरणीय प्रोफेसर साहब के जो मूल शब्द थे” बिकॉज सी इज ए वीकर सेक्शन ऑफ़ सोसायटी”।
1976 से लेकर आज 2023 में हम पहुंच गए लेकिन हमारी महिलाएं आज भी कमजोर वर्ग की प्राणी हैं। उनको आज भी कोई भी भगाकर अथवा बहकाकर ले जा सकता है। जनाब आपको सुनने में जरूरत अटपटा लग रहा होगा लेकिन यह स्थापित सत्य है।
लेकिन समाज का एक वर्ग है जो आज इसको स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं है। उनका कहना है कि जो वायुयान उडा सकती है, जो अंतरिक्ष में जा सकती है ,जो अधिकारी बन सकती है ,जो समाज को और राष्ट्र को दिशा दे सकती है ,जो पहलवानों को पटखनी लगा सकती है, विदेशों से गोल्ड मेडल जीत कर ला सकती हैं, जो देश विदेश की यात्रा करके बौद्धिक संपदा को प्राप्त कर चुकी है वह कैसी अबला? वह कैसी कमजोर? उनका यह तर्क भी होता है कि यदि ऐसा है तो फिर भारतवर्ष को हम विकसित देश की श्रेणी में नहीं रख सकते क्योंकि अभी तो हमारी महिलाएं कमजोर हैं। फिर हमने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात महिला सशक्तिकरण के नाम पर केवल दिखावा किया है। दूसरे तर्क के अनुसार तो यह केवल दिखावा ही होगा क्योंकि हमारी तो महिलाएं आज भी कमजोर हैं। महिलाएं को आज भी वही स्थान जो आजादी के पूर्व अथवा एकदम पश्चात प्राप्त था, उसी में जी रही हैं!
यहां एक संस्मरण स्मृति पटल पर आ रहा है सोचो कि एक पुरुष सप्तनीक किसी बाजार में, सार्वजनिक स्थान पर अथवा सड़क पर जा रहा है। तभी उसकी पत्नी किसी दूसरे पुरुष के साथ चल देती है। उसका पति शोर मचाएगा। उस शोर को सुनकर कुछ लोग तमाशबीन खड़े हो जाएंगे। दोनों पुरुषों में विवाद होगा। दोनों उसको अपनी अपनी पत्नी होने का अधिकार जताएंगे। लेकिन वहां पत्नी की इच्छा पूछी जाएगी कि आप बताइए वास्तव में आपका पति कौन सा है तो वह अपने वास्तविक पति को छोड़कर यदि दूसरे व्यक्ति के साथ जाने को इच्छा रखती है और वह यह कहती है कि मेरा पति यह है, ऐसा एक व्यक्ति जो बाद में मिला है, की ओर संकेत कर देती है तो वहां पर खड़े हुए जितने तमाशबीन होंगे उसके वास्तविक पति की पिटाई करेंगे और महिला पर विश्वास कर लेंगे। आरोपित करेंगे कि तुम दूसरे की पत्नी को भगाकर, बहका कर, उड़ाकर ले जाना चाहते हो।
भीड़ कभी न्याय और अन्याय नहीं देखती। भीड़ तो जोश में होश खोती है। वहां ऐसी परिस्थितियों में न्याय की अपेक्षा न की जाए ।जबकि आपको मालूम है , आपकी पत्नी को भी मालूम है कि आप के साथ अन्याय हुआ है। परंतु आप कुछ नहीं कर सकते। आप कानून में शरण लेना चाहोगे वहां भी कानून आपको पत्नी की इच्छा के अनुसार दूसरे पुरुष के साथ जाने की अनुमति प्रदान करेगा। क्योंकि पत्नी कह देगी कि वह उसकी पत्नी नहीं दूसरे की पत्नी है। वहां उसी की इच्छा को स्वीकृति प्रदान की जाएगी। कुछ साथी इस पर भी कहेंगे कि ऐसा नहीं हो सकता, कुछ कहेंगे कि ऐसा हो सकता है लेकिन मैंने वास्तविक जीवन में अनेक घटनाओं को ऐसा होते हुए न्यायालय में देखा है। जहां न्याय के नाम पर लोग आते हैं और अन्याय लेकर जाते हैं। जैसे वर्तमान काल में आज कितने युवक-युवती अपने जाति से विपरीत, धर्म से विपरीत अथवा सगोत्र में भी शादी करते हैं। और युवती की इच्छा को ही प्राथमिकता दी जाती है।
ऐसी कमजोर और ऐसी अबला है – नारी अर्थात कानून में इस को संरक्षण प्राप्त है।
कानून में इसको यह भी अधिकार है कि वह अपने साथ हुई किसी भी घटना को 10 वर्ष, 20 वर्ष 30 वर्ष बाद भी सार्वजनिक कर सकती है और आपको अपराध बोधग्रस्त करा सकती है। यह बात बहुत पीछे की हो जाती है कि उस घटना के वास्तविक साक्ष्य उपलब्ध हैं अथवा नहीं ।लेकिन नहीं यदि महिला ने आरोप लगा दिया तो उसकी सत्यता की जांच करनी आवश्यक नहीं समझी जाती , पहले आरोपी को समाज में नीचा दिखाने की वही तमाशबीन खोज में लगे रहते हैं। कोई भीड़ में से यह नहीं पूछने वाला कि इनका चिकित्सीय परीक्षण कराने के पश्चात क्या ऐसा कोई साक्ष्य प्राप्त हुआ है कि इनके साथ कहीं कोई जबरदस्ती हुई हो अथवा कोई छेड़छाड़ हुई हो ?
अब यह बात पीछे की हो गई ,और तमाशबीनों के लिए तमाशा शुरू हो गया। हमारे देश की 6 प्रसिद्ध महिला पहलवानों पर कोच बृजभूषण शरण सिंह भारी पड़ गया। इन 6 पहलवानों में से किसी एक ने भी उसको पटकनी नहीं दी। जबकि ये सभी गोल्ड मेडल अथवा अन्य मेडल कुश्ती में जीतकर लाने वाली है। यही नहीं बृजभूषण शरण सिंह की आयु भी इनकी आयु से करीब करीब दोगुनी है तो ब्रजभूषण शरण सिंह बहुत ही मजबूत पहलवान इन पहलवानों से है। यह सभी महिला पहलवान ऐसी हैं जो देश विदेश में जाती हैं, जिनका बुद्धि कौशल और चातुर्य भी एक ऊंचे स्तर का है।जो कि इनको सामान्य महिलाओं से अलग करता है।
मां नारी के रूप में जब मां बनती है तो वह हमारे जीवन का आध्यात्मिक पक्ष बन जाती है जबकि पिता भौतिक पक्ष बनता है। जीवन इन दोनों से ही चलता है। हमारे शरीर में आत्मा मां का आध्यात्मिक स्वरूप है और यह शरीर पिता का साक्षात भौतिक स्वरूप। अध्यात्म से शून्य भौतिकवाद विनाश का कारण होता है और भौतिकवाद से शून्य अध्यात्म भी नीरसता को जन्म देता है। नारी को चाहिए कि वह समानता का स्तर पाने के लिए संघर्ष अवश्य करें , किंतु अपनी स्वाभाविक लज्जा का ध्यान रखते हुए। निर्लज्ज और निर्वस्त्र होकर वह धन कमा सकती है किंतु सम्मान को प्राप्त नही कर सकती है। भौतिकवादी चकाचौंध में निर्वस्त्र घूमती नारी, अंग प्रदर्शन कर अपने लिए तालियां बटोरने वाली नारी को यह भ्रांति हो सकती है कि उसे सम्मान मिल रहा है,किन्तु स्मरण रहे कि यह तालियां बजना, उसका सम्मान नही अपितु अपमान है क्योंकि जब पुरूष समाज उसके लिए तालियां बजाता है तब वह उसे अपनी भोग्या और मनोरंजन का साधन समझकर ही ऐसा करता है। जिसे सम्मान कहना स्वयं सम्मान का भी अपमान करना है।
हमें दूरस्थ गांवों में रहने वाली महिलाओं के जीवन स्तर पर भी ध्यान देना होगा। महिला आयोग देश में सक्रिय है। किंतु यह आयोग कुछ शहरी महिलाओं के लिए है। यह आयोग तब तक निरर्थक है जब तक यह स्वयं ग्रामीण महिलाओं के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए ग्रामीण आंचल में जाकर कार्य करने में अक्षम है। नारी सशक्तिकरण का अर्थ है नारी का शिक्षाकरण। शिक्षा से आज भी ग्रामीण अंचल में नारी 90 प्रतिशत तक अछूती है। उसे शिक्षित करना देश को विकास के रास्ते पर डालना है। इससे नारी वर्तमान के साथ जुड़ेगी। नारी सशक्तिकरण का यही अंतिम ध्येय है।
नारी के बिना पुरूष की परिकल्पना भी नही की जा सकती। ईश्वर ने नारी को सहज और सरल बनाया है, कोमल बनाया है। उसे क्रूर नही बनाया। निर्माण के लिए सहज, सरल, और कोमल स्वभाव आवश्यक है। विध्वंश के लिए क्रूरता आवश्यक है। रानी लक्ष्मीबाई हों या अन्य कोई वीरांगना, अपनी सहनशक्ति की सीमाओं को टूटते देखकर ही और किन्ही अन्य कारणों से स्वयं को अरक्षित अनुभव करके ही क्रोध की ज्वाला पर चढ़ी। यहां तक कि इंदिरा गांधी भी नारी के सहज स्वभाव से परे नही थी। सिंडिकेट से भयभीत इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। अन्यथा इंदिरा केवल एक नारी थी। वही नारी जो अपनी हार पर (1977 में) अपनी सहेली पुपुल जयकर के कंधे पर सिर रखकर रोने लगी थी। यह उसकी कोमलता थी। मातृत्व शक्ति का गुण था।
नारी को अपने मातृत्व पर ध्यान देना चाहिए। वह पुरूष की प्रतिद्वन्द्वी नही है। अपितु वह पुरूष की सहयोगी और पूरक है। पुरूष को भी इस सत्य को स्वीकार करना चाहिए। गृहस्थ इसी भाव से चलता है। नारी अबला है। अपनी कोमलता के कारण, अपने मातृत्व के कारण उसके भीतर उतना बल नही है जितना पुरूष के भीतर होता है। इसलिए पहले पिता पति और वृद्धावस्था में उसका पुत्र उसका रक्षक है। वह घर की चारदीवारी से बाहर निकले यह अच्छी बात है, उसकी स्वतंत्रता का तकाजा है। किंतु यह स्वतंत्रता उसकी लज्जा की सीमा से बाहर उसे उच्छृंखल बनाती चली जाए तो यह उचित नही है। इसी से वह हठीली और दुराग्रही बनती है। जिससे गृहस्थ में आग लगती है और मामले न्यायालयों तक जाते हैं। समाज की वर्तमान दुर्दशा से निकलने के लिए नारी और पुरूष दोनों को ही अपनी अपनी सीमाओं का रेखांकन करना होगा तभी हम स्वस्थ समाज की संरचना कर पाएंगे। क्या महिला पहलवान हमारी इस बात पर ध्यान दे सकेंगी ?
हमारा कानून अंधा है और उस अंधे कानून में चिकित्सीय परीक्षण नहीं पूछा जाएगा। घटना की सूचना विलंब से क्यों दी जा रही है ? यह नहीं पूछा जाएगा। पहले उस पुरुष का चरित्र हनन कर दो उसको चौराहे पर नंगा कर दो।
शायद जनता ठीक कह रही थी कि इसमें कुछ लोग राजनीतिक स्वार्थ के लिए ऐसा कर रहे हैं। यद्यपि अभी सभी तथ्य जांच के विषय में हैं और जब तक जांच नहीं हो जाती है तब तक हम निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कह सकते ।परंतु कुछ प्रश्न थे जो आपके साथ साझा करने आवश्यक थे। इसलिए मैंने सांझा किये।

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत समाचार पत्र।

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