भारत के 50 वैज्ञानिक ऋषि अध्याय – 23 , संसार के सबसे पहले संपादक व्यास

संसार के सबसे पहले ग्रंथ संपादक, धर्म के मर्मज्ञ, महान राजनीतिज्ञ और महान कवि के रूप में व्यास जी का नाम अग्रगण्य है। उनकी विलक्षण प्रतिभा भारत की विरासत है।
भारत के इतिहास लेखकों ने ‘भारत को समझो’ के स्थान पर ‘भारत को भुलाओ’ अभियान चलाकर उनकी पूर्णतया उपेक्षा की गई है। व्यास जी ने अपनी गहरी साधना और तपस्या से वेदों का व्यास निकाला और समझा अर्थात उन्होंने वेद विद्या को हृदयंगम किया और उसी के अनुसार संसार की व्यवस्था को बनाने का अथक परिश्रम किया। उस समय संपूर्ण भूमंडल पर उनकी विद्वत्ता की धाक जमी हुई थी। वेदों का व्यास निकालने समझने के कारण ही उन्हें संसार का सबसे पहला संपादक कहा जा सकता है।

संसार के पहले संपादक हैं व्यास ऋषि जी भारत के।
अनुपम सेवा की मानवता की , बिना किसी स्वारथ के।

हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि व्यास जी के समय तक वेदों की रचना कहीं सुव्यवस्थित ढंग से लिखी हुई नहीं थी, श्रुति परंपरा के अनुसार वेदों का ज्ञान आगे बढ़ रहा था। श्रुति परंपरा में मंत्रों का इधर-उधर होकर बिखर जाना स्वाभाविक है। बस, इसी काम को उन्होंने अपने महान संपादन के द्वारा एक स्वरूप प्रदान किया । इसी प्रकार की अपनी ज्ञान परंपरा को बढ़ाते हुए उन्होंने विभिन्न संहिताओं का निर्माण किया। वेदों का वर्गीकरण करने का भी महान कार्य उन्होंने ही किया।

इस प्रकार भारतीय संस्कृति को सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान कर उसके संपूर्ण ढांचे को परिमार्जित करने का महान कार्य महर्षि वेदव्यास जी ने संपादित किया। उनके इस महान कार्य के लिए आर्य जाति ही नहीं प्रत्युत मानव जाति भी उपकृत है। वास्तव में आर्य जाति और मानव जाति दोनों एक दूसरे की पूरक हैं। आर्य होने का अभिप्राय मानव होना है और मानव होने का अभिप्राय आर्य होना है।
व्यास जी का मूल नाम कृष्ण द्वैपायन था। इनके पिता पाराशर मुनि थे। कृष्ण जी इन्हीं के समकालीन हैं। उस काल में व्यास जी और श्री कृष्ण जी ने भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं की क्षरण होती हुई व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने का महान कार्य संपादित किया था। संसार के इतिहास के बारे में हमें ध्यान रखना चाहिए कि जब कोई भी संप्रदाय अर्थात ईसाइयत और इस्लाम जैसे मजहब संसार में नहीं थे, तब भी ऐसे अनेक लोग थे जो भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के विपरीत आचरण करते थे। जिन्हें हमारे पूर्वज ‘अनार्य’ कहकर संबोधित करते थे। ये अनार्य या अनाड़ी लोग वैदिक ऋषियों और आर्य भद्र पुरुषों से ईर्ष्या और द्वेष भाव रखते थे। कुल मिलाकर भारतीय संस्कृति को मिटाने के प्रयास प्राचीन काल से होते रहे हैं। इन प्रयासों का उत्तर देने के लिए परमपिता परमेश्वर ने अनेक महापुरुषों को समय-समय पर इस धर्म-धरा पर भेजा है।
परमपिता परमेश्वर की इस पवित्र व्यवस्था के अंतर्गत ही हमें ‘महाभारत’ के उस काल में व्यास जी और श्री कृष्ण जी जैसे दो महापुरुष प्राप्त हुए। इन दोनों महापुरुषों पर भारत को ही नहीं, सारे संसार को गौरवानुभूति होती है। भारत के राष्ट्र निर्माता और संस्कृति रक्षक के रूप में इन दोनों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है।

भारत के निर्माता थे , वेदज्ञ, गुणी, संस्कृति रक्षक।
मिटाया राक्षस लोगों को बने थे जो धर्म के भक्षक।।

ऐसी मान्यता है कि व्यास जी राजा शांतनु की रानी सत्यवती की कुमारावस्था में उत्पन्न हुए थे। हम सभी जानते हैं कि शांतनु पुत्र विचित्रवीर्य जब युवावस्था में ही निसंतान मर गया, तब व्यास जी ने माता सत्यवती के आदेश का पालन करते हुए नियोग द्वारा उसकी विधवा पत्नियों अंबिका और अंबालिका से धृतराष्ट्र और पांडु को जन्म दिया था । उसी समय एक दासी के साथ भी उनका नियोग हुआ । जिससे विदुर नाम का महामेधा संपन्न विद्वान पुत्र जन्मा। धृतराष्ट्र, पांडु और महात्मा विदुर महाभारत के बहुत ही जाने-माने पात्र हैं , जिन पर अधिक प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं है। धृतराष्ट्र और पांडु के साथ साथ विदुर के पिता होने के कारण उन्हें कुरूवंश के राजपरिवार में विशेष सम्मान प्राप्त था।
यही कारण था कि जब-जब भी इस राजवंश में किसी प्रकार का पारस्परिक कलह बढ़ा या किसी और प्रकार की विशेष समस्या ने इस पर अपना जाल फैलाया तो ऐसी परिस्थितियों में व्यास जी को अपने हिमालय स्थित आश्रम से निकलकर राजपरिवार में आना पड़ा था।
महर्षि व्यास के द्वारा ही 18 पुराणों की रचना की गई बताई जाती है। हमारा मानना है कि उन्होंने 18 पुराणों को इतिहास के संदर्भ में ही लिखा होगा। इसका पता इस बात से भी चलता है कि उन्होंने महाभारत को भी बहुत संक्षेप में ‘जय’ नाम से लिखा था । कालांतर में इस ‘जय’ नाम के ग्रंथ को विशाल आकार देते देते विभिन्न लेखकों, संपादकों ने अपने-अपने काल में इसमें अनर्गल बातों को प्रवेश दिलाना आरंभ किया। जिससे महाभारत का आकार बढ़ता चला गया। इसी प्रकार व्यास जी ने वैज्ञानिक, तार्किक, बुद्धि संगत और सृष्टि नियमों के अनुकूल पुराणों की रचना की होगी। जिनमें उनकी मूल अवधारणा को समझाने के दृष्टिकोण से अवैज्ञानिक और अवैदिक बातों का प्रसार होता चला गया, जिससे पुराण भी विस्तार पा गए।
आज स्थिति यह है कि पुराणों को पढ़ते समय महर्षि व्यास जी के मूल आशय को समझने के लिए बहुत ही बौद्धिक परिश्रम की आवश्यकता है। यह भी संभव है कि ऋषि व्यास जी ने इन पुराणों का अपने काल में मात्र बीजारोपण ही किया हो। जिन पर उनके पश्चात लोगों ने अपने-अपने काल में नए नए ढंग से विचार भवन बनाते बनाते उन्हें वर्तमान स्वरूप दिया है। ऐसे में वर्तमान पुराणों को व्यास द्वारा लिखित मानना उचित प्रतीत नहीं होता।
व्यास जी के द्वारा ही ऋग्वेद ,यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद नामक 4 संहिताएं बनाकर उन्हें अपने पैल, वैशंपायन,जैमिनी और सुमंतु नामक चार शिष्यों में बांट दिया गया था। पुराणों में अनेक प्रकार के अवैज्ञानिक कथन ,उपकथन आने के उपरांत भी हम सब भारतवासियों के लिए और विशेष रूप से सनातन की परंपरा में विश्वास रखने वाले लोगों के लिए व्यास जी का नाम बहुत ही सम्मानित है। इसका कारण केवल एक है कि वैशंपायन जी शुद्ध सनातन वैदिक वैज्ञानिक परंपरा के संवाहक थे। उन्होंने जहां वेदों का सत्य प्रकाश किया, वहीं अपने द्वारा लिखित अन्य ग्रंथों में भी वैदिक मत के अनुसार ही अपना चिंतन प्रस्तुत किया। उनके चिंतन से न केवल आज का भारत प्रत्युत उनके समय का वृहत्तर भारत लाभान्वित हुआ था, इसे यदि यह भी कहा जाए कि संपूर्ण संसार को उनकी चिंतनधारा से लाभ प्राप्त हुआ था तो भी कोई अतिशयोक्ति ना होगी।
उनके द्वारा लिखित महाभारत को पांचवा वेद कहा जाता है। महाभारत को दिए गए इस सम्मान से ही स्पष्ट हो जाता है कि मूल रूप में व्यास जी ने महाभारत को वैदिक दृष्टिकोण से लिखा। इसका अभिप्राय है कि उसमें ऐसा कोई भी चिंतन उन्होंने प्रस्तुत नहीं किया जो वेद विरुद्ध हो या सृष्टि नियमों के प्रतिकूल हो। वेद किसी भी प्रकार के पाखंड ,अंधविश्वास या अवैज्ञानिकता को प्रोत्साहित नहीं करता। तब मूल रूप में व्यास कृत महाभारत भी इसी प्रकार का वेदसंगत ग्रंथ था। इस ग्रंथ के बारे में कहा जाता है कि “जो कुछ महाभारत में नहीं है, वह भारतवर्ष में कहीं नहीं पाया जा सकता।”
इस कथन से इस ग्रंथ के पावन चरित्र और इसके रचयिता वेदव्यास जी के विराट व्यक्तित्व का भली प्रकार पता चल जाता है। कृष्ण बल्लभ द्विवेदी जी इस ग्रंथ और ग्रंथ के रचयिता व्यास जी के बारे में लिखते हैं ” वह अपने मानसाकाश की पृष्ठभूमि में विराट भाव से छाए हुए धर्म तत्व की निष्पत्ति के लिए यह उपयुक्त आधार की खोज में थे ! इस कथा के रूप में वह मानो घर बैठे ही अपने कुल – परिवार में उन्हें मिल गया। तत्क्षण ही उनकी दृष्टि के आगे मृत्युंजय भीष्म, धर्म मूर्ति युधिष्ठिर,योगावतार श्री कृष्ण, महावीर अर्जुन, परम त्यागी कर्ण, शक्ति मूर्ति भीम, कुलांगार दुर्योधन आदि आदि की रूप रेखाएं थिरक उठीं। फलस्वरुप उनकी प्रकांड प्रतिभा के स्पर्श से कौरव पांडवों की वह कलह कथा विराट महाकाव्य का उपादान बन गई, यही है – “महाभारत”।”

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

Comment: