मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 14 ( क ) अपनों से मिले सहयोग और विश्वासघात

अपनों से मिले सहयोग और विश्वासघात

कर्नल टॉड ने भारत के वीर शूरमा महाराणा संग्राम सिंह और विदेशी आक्रमणकारी बाबर के मध्य हुए बयाना के युद्ध पर प्रकाश डालते हुए हमें बताया है कि :- “बाबर दिल्ली का राज्य प्राप्त करके बड़ी बुद्धिमानी के साथ सैनिक शक्तियों का संगठन करता रहा और उसके पश्चात 1500 सैनिकों की एक सेना लेकर संग्राम सिंह से युद्ध करने के लिए वह आगरा और सीकरी से रवाना हुआ। राजस्थान के लगभग सभी राजा और मेवाड़ राज्य के सामंत अपनी सेनाएं लेकर चित्तौड़ में पहुंच गए। सबके साथ राणा संग्राम सिंह बाबर से युद्ध करने के लिए चित्तौड़ से आगे बढ़ा। कार्तिक महीने की पंचमी संवत 1584 सन 1528 ईस्वी को ( कर्नल टॉड की तिथियों में कई बार प्रमाणिकता नहीं मिलती है, इस तिथि को भी सटीक नहीं माना जा सकता। ) राजपूत सेना ने बयाना पहुंचकर बाबर की सेना का रास्ता रोका और खानवा नामक स्थान के मैदान में संग्राम सिंह की सेना ने बादशाह बाबर की फौज का सामना किया।
दोनों ओर से संग्राम अचानक ( आरम्भ ) हो गया। राजपूतों की विशाल सेना के द्वारा बाबर की फौज लगभग सारी काट डाली गई। राजपूतों की शक्तिशाली सेना के सामने बाबर की फौज पूरी तरह से पराजित हुई। राजपूतों की विशाल सेना के द्वारा जिस प्रकार बाबर के सैनिक मारे गए और दो बार बाबर संग्राम सिंह के मुकाबले में पराजित हो चुका था ,उसके कारण बाबर की सेना का साहस पूर्णतया शिथिल पड़ गया।”

महाराणा की हुई निर्णायक जीत

  इस प्रकार बियाना के युद्ध में महाराणा संग्राम सिंह और उनके साथियों ने देश के सम्मान की रक्षा करते हुए विदेशी आक्रमणकारी की सेना को निर्णायक रूप से पराजित करने में सफलता प्राप्त की। बाबर जैसे विदेशी आक्रमणकारी को परास्त करना उस समय महाराणा संग्राम सिंह और उनके साथियों की बहुत बड़ी उपलब्धि थी। बाबर युद्ध में पराजित होकर अपने घावों को सहला रहा था। पहली बार उसे लगा था कि हिंदुओं की वीरता किस चिड़िया का नाम है ? उसे भारत आकर पहली बार वीरों की तलवारों का मजा चखने को मिला था। वह हीनता और निराशा के भावों से भर चुका था। जब उसके सैनिक रणक्षेत्र को छोड़ कर भाग रहे थे ,उस दृश्य को बार-बार स्मरण कर बाबर सिहर उठता था। 

बाबर ने भारत में आकर यदि कहीं पर भी कहीं कोई युद्ध जीता था तो उसमें मिले लूट के माल को भी उसने अपने सभी सैनिकों में बांट दिया था। इसका कारण केवल एक था कि वह अपने सैनिकों का मनोबल बनाए रखना चाहता था। उसका प्रयास था कि भारत की सबसे बड़ी शक्ति अर्थात महाराणा संग्राम सिंह के साथ जब युद्ध हो तो उसके सैनिक ‘लूट के माल’ की चाह मे अधिक से अधिक अपना पराक्रम दिखाएं और महाराणा संग्राम सिंह को पराजित करने में उसका सहयोग करें। पर जब उसने देखा कि उसके सैनिकों का मनोबल पूर्णतया टूट गया और वे रण को छोड़कर भाग लिए तो अब उसके मन में कई प्रकार के भाव उठ रहे थे। कभी वह अपने भाग्य को कोसता था तो कभी अपने सैनिकों की इस प्रकार की पराजित मानसिकता को कोसता था और कभी वह भारत के वीरों की वीरता को भी कोसता था। वह हिंदुस्तान को जीतने की जिस अपेक्षा से चला था अब उसे अपना वह सपना चूर-चूर होता दिखाई दे रहा था। उसे लग रहा था कि ‘दिल्ली अभी दूर है ..।’

जिहाद की ओर चला बाबर

 काफिरों पर निर्णायक जीत प्राप्त करने के लिए जिहाद मुस्लिम आक्रमणकारियों का एक कारगर और परंपरागत हथियार रहा है। इसके आधार पर मुस्लिमों में सांप्रदायिक एकता पैदा करके और उनके मजहबी जुनून का लाभ उठाने के दृष्टिकोण से प्रेरित होकर मुस्लिम आक्रमणकारी जिहाद को एक हथियार के रूप में प्रयोग करते रहे हैं। यद्यपि मुस्लिम आक्रमणकारियों की इस प्रकार की मनोवृति को एक ओर रखकर अथवा कहिए कि उसे पूर्णतया उपेक्षित करके भारत विरोधी इतिहास लेखकों ने मुस्लिम आक्रमणकारियों को उदार और सांप्रदायिक सोच से ऊपर दिखाने का प्रयास किया है। ऐसे लेखक मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा अपनाए जाने वाले जिहाद जैसे कारगर और परंपरागत हथियार की ओर संकेत करना तक उचित नहीं मानते।

बाबर ने भी अब महाराणा संग्राम सिंह के साथ लड़ने के लिए इस्लाम के परंपरागत हथियार अर्थात जेहाद को अपनाने का निर्णय लिया। जेहाद वास्तव में एक सांप्रदायिक उन्माद की वह भावना है, जिसमें लड़ने वाला मुसलमान जन्नत में मिलने वाली हूरों के लालच में युद्ध करता है। मुसलमानों की पवित्र पुस्तक में इस प्रकार की आज्ञाओं के आधार पर जो युद्ध किया जाता है उसी को जेहाद कहा जाता है। जेहाद में सांप्रदायिक उन्माद को प्रोत्साहित किया जाता है । जिसके आधार पर अगले वाला व्यक्ति कोई इंसान न रहकर ‘काफिर’ हो जाता है। काफिरों को छल से, बल से, धोखे से किसी भी प्रकार से मारना इस जेहाद की संकीर्ण और उन्मादी भावना में पूर्णतया उचित हो जाता है। इस प्रकार जो लोग बाबर जैसे लोगों को उदार कहते हैं और इस प्रकार का प्रचार करते हैं कि बाबर भारत में एक प्रगतिशील धर्म को लेकर आया था ,उन्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि जिस व्यक्ति ने युद्ध के मैदान में जेहाद को अपनी जीत का आधार बनाया हो वह कभी भी काफिरों के प्रति दयालु या उदार नहीं हो सकता था। उसकी सोच और उसके शासन का आधार केवल और केवल सांप्रदायिक ही हो सकता था।
बाबर उस समय जिस प्रकार की विषम परिस्थिति में फंस चुका था उससे उभरने का एकमात्र उपाय उसके पास जेहाद ही था। जेहाद के नाम पर उसने अपने सभी सैनिकों को फिर से एकत्र किया और उनके भीतर उन्माद पैदा करने वाला भाषण दिया। इस सांप्रदायिक उन्माद के फलस्वरूप उसकी सेना पूर्णतया इस्लामिक रंग में रंग जानी थी, जो भारत के धर्म और संस्कृति को उजाड़ने के लिए काम करने वाली थी।

बाबर का सांप्रदायिकता से परिपूर्ण भाषण

जब ऐसी मानसिकता से ग्रसित होकर युद्ध लड़े जा रहे हों या लड़े जाने की तैयारी की जा रही हो तो उसका आंकलन करते समय हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे लिए वही योद्धा हो सकता है और वही व्यक्ति नायक हो सकता है, जो इस प्रकार की सांप्रदायिक उन्माद की भावना का प्रतिकार करते हुए अपने देश ,धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की पवित्र भावना से युद्ध में उतर रहा हो। इस दृष्टिकोण से महाराणा संग्राम सिंह, उनके सभी अधिकारी गण और उनके सभी सैनिक और इसके साथ - साथ उनको सहायता देने वाले अन्य राजाओं के सैनिक , ये सभी हमारी स्वाधीनता के अमर सिपाही हैं। हमारे देश के राष्ट्रीय मूल्यों को क्षतिग्रस्त करने वाले या देश की एकता को छिन्न-भिन्न करने वाले लोग कभी भी हमारे राष्ट्रीय नायक नहीं हो सकते।

बाबर ने अपने सैनिकों के भीतर सांप्रदायिक उन्माद को पैदा करते हुए उस समय कहा था कि ” ऐ मुसलमान बहादुरो ! हिंदुस्तान की यह लड़ाई इस्लामी जेहाद की है। इस लड़ाई में होने वाली हार तुम्हारी नहीं इस्लाम की हार है। हमारा मजहब हमें बताता है कि इस दुनिया में जो पैदा हुआ है वह मरता जरूर है। हमको और तुमको सबको मरना है। लेकिन जो अपने मजहब के लिए मरता है, खुदा उसे बहिश्त में भेजकर इज्जत देता है। लेकिन जो मजहब के खिलाफ मौत पाता है उसे खुदा दोजख में भेजता है। अब हमको इस बात का फैसला करना है और समझ लेना है कि हम लोगों में से दोजख में कौन जाना चाहता है? तुम सबको हर सूरत में इस लड़ाई में शरीक होना है। कुरान को अपने हाथों में लेकर तुम इस बात का आज अहद करो कि तुम इस्लाम के नाम पर होने वाली इस लड़ाई में काफिरों को शिकस्त दोगे और ऐसा न कर सकने पर इस्लाम के नाम पर तुम अपनी कुर्बानी देने में किसी हालत में इंकार न करोगे।”

मुस्लिम का खुदा पाक है बंदे उसके नेक।
मजहब के नाम पर हो जाओ सब एक।।

बाबर का यह सांप्रदायिक उन्माद से भरा हुआ भाषण उसके सैनिकों पर बड़ा प्रभावकारी रहा। उनमें उत्साह का संचार हुआ और वे अब अपने मजहब के लिए मरने मारने को उद्यत हो गए। बाबर अपने सैनिकों में जिस उत्साह का संचार करना चाहता था, और उनके मनोबल को उठाना चाहता था ,वह अब उसके लिए बड़ा सरल हो गया। वास्तव में मानव धर्म वैदिक धर्म के लिए मरने मिटने की जिस पवित्र भावना से हमारे आर्य वीर प्राचीन काल से समर्पित रहते आए हैं ,उनकी उस अटूट आस्था को देखकर ही मुसलमानों के भीतर जेहाद जैसी अमानवीय प्रवृत्ति को विकसित किया गया है। इसमें अंतर केवल इतना है कि हमारे आर्य योद्धा जहां अपने धर्म के मानवीय पक्ष के लिए मरते मिटते थे , वहीं इस्लाम को मानने वाले लूट दल के सैनिक अपनी सांप्रदायिक मान्यताओं के लिए मरने मिटने और दूसरों को समाप्त करने का संकल्प लेते रहे हैं। 

बाबर का यह भाषण इतिहास में बहुत अधिक प्रसिद्ध हुआ है। इसकी प्रसिद्धि का एकमात्र कारण है हिंदुओं की वीरता से उत्पन्न बाबर का वह डर जो उसकी सेना को युद्ध के नाम तक से भागने के लिए प्रेरित करता था। भाषण की प्रसिद्धि यह बताती है कि उस समय आर्यवीर योद्धाओं का बाबर और उसके सैनिकों पर कितना आतंक था ? उस आतंक के दृष्टिगत दिया गया भाषण निश्चय ही महत्वपूर्ण था ,क्योंकि इस भाषण ने बाबर को भारत में जमने का अवसर उपलब्ध करा दिया। बाबर की सेना जहां उससे मुंह फेर चुकी थी और अपने देश लौट जाने के लिए दबाव बना रही थी ,वही सेना अब जब सांप्रदायिक उन्माद में रंगी तो वह भारत के वीर योद्धाओं के समक्ष रुकने और युद्ध करने के लिए उद्यत हो गई।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

(हमारी यह लेख माला आप आर्य संदेश यूट्यूब चैनल और “जियो” पर शाम 8:00 बजे और सुबह 9:00 बजे प्रति दिन रविवार को छोड़कर सुन सकते हैं।)

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