मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 13 ( क ) पराक्रमी महाराणा संग्राम सिंह और उनके युद्ध

पराक्रमी महाराणा संग्राम सिंह और उनके युद्ध

मेवाड़ के महाराणा संग्राम सिंह उपनाम राणा सांगा का इतिहास हसन खान मेवाती जैसे देशभक्त मुस्लिम शासकों के बिना अधूरा है। हसन खान मेवाती एक महत्वाकांक्षी मुस्लिम राजपूत शासक होने के साथ-साथ एक देशभक्त मुस्लिम भी था। उनके वंश के शासकों ने लगभग 150 वर्षों तक मेवात पर एकछत्र राज्य किया था। मेवात में जन्मे हसन खान मेवाती का जन्म मेवात में हुआ था और उनके पिता का नाम अलावल खान था।
1505 ई0 में हसन खान मेवाती मेवात के राज सिंहासन पर आरूढ़ हुए । उनके भीतर देशभक्ति का भाव था। उनकी मान्यता थी कि मजहब परिवर्तन का अर्थ पूर्वजों का परिवर्तन नहीं होता। यही कारण था कि वह अपनी भारत भूमि और अपने महान पूर्वजों के प्रति निष्ठावान बने रहे।

हृदय में मौजूद थी , देश भक्ति भरपूर।
पितरों से निष्ठा रही, नहीं हुए थे दूर।।

 विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं को हसन खान मेवाती मुस्लिम आक्रांता ही मानते रहे और यह भी मानते रहे कि इनके भीतर भारत भक्ति का तनिक सा भी भाव नहीं है। उनकी मान्यता थी कि मजहब अलग चीज है और 'भाईचारा' अलग चीज है।

दिया देशभक्तों का साथ

यही कारण था कि जब 1526 ई0 में भारत वर्ष पर बाबर ने आक्रमण किया तो हसन खान मेवाती राष्ट्रवादी शक्तियों का साथ देने के लिए उठ खड़े हुए। उस समय हसन खान मेवाती इब्राहिम लोदी और कुछ अन्य राजाओं के साथ मिलकर पानीपत के युद्ध में बाबर के विरुद्ध लड़े थे। इसमें हसन खान मेवाती के पिता अलावल खान देश की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए बलिदान हो गए थे। पानीपत के उस युद्ध में बाबर को विजय मिली थी। उसके पश्चात वह दिल्ली पर अधिकार करने में सफल हो गया था। इसके उपरांत भी हसन खान मेवाती और लोदी वंश के पराजित शासक या लोदी वंश के प्रमुख लोग बाबर का विरोध इधर – उधर से कर रहे थे। उनका मानना था कि यह विदेशी बर्बर आक्रमणकारी भारत में रुकना नहीं चाहिए और इसे यथाशीघ्र उखाड़ कर भगा देना चाहिए।
हसन खान मेवाती उस समय एक प्रमुख नेता के रूप में सामने आये। वह इस योजना पर प्रमुखता से ध्यान केंद्रित कर कार्य कर रहे थे कि जैसे भी हो बाबर को भारत से यथा शीघ्र भगाया जाए। अपनी इसी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए वह उस समय के भारत भक्त नेताओं अर्थात राजाओं से संपर्क साध रहे थे। यही कारण था कि हसन खान मेवाती ने विदेशी आक्रमणकारी बाबर का तीखा विरोध करने के लिए महाराणा संग्राम सिंह जैसे राष्ट्रवादी देशभक्तों से भी संपर्क किया।

देशभक्ति के सामने, नहीं कुछ भी मंजूर।
वतन रहा प्रथम सदा, भक्ति थी भरपूर।।

बाबर भी यह भली प्रकार जानता था कि भारतवर्ष में सबसे प्रमुख शक्ति इस समय महाराणा संग्राम सिंह हैं। हिंदुस्तान में प्रमुखता प्राप्त करने के लिए महाराणा संग्राम सिंह को पराजित करना आवश्यक है। इधर महाराणा संग्राम सिंह भी यह नहीं चाहते थे कि बाबर जैसा विदेशी आक्रमणकारी भारत में जमकर रहे। बाबर ने हसन खान मेवाती को भारत की प्रमुख शक्ति महाराणा संग्राम सिंह से तोड़ने के लिए उसे मजहब का वास्ता दिया और प्रयास किया कि वह टूटकर उसके साथ आ मिले। पर हसन खान मेवाती भी पूरे देश भक्त थे। उन पर मजहब का रंग नहीं चढ़ा और उन्होंने बाबर के द्वारा भेजे गए ऐसे संदेश और संकेत का स्पष्ट शब्दों में विरोध किया।

खानवा का युद्ध और मेवाती का बलिदान

जब 15 मार्च 1527 ईसवी को महाराणा सांगा और बाबर के बीच खानवा का युद्ध हुआ तो उसमें हसन खान मेवाती भी महाराणा संग्राम सिंह की ओर से लड़ने वाले महान वीरों में सम्मिलित थे। देशभक्ति की पवित्र भावना से ओतप्रोत उस महापुरुष ने मां भारती के लिए हर संभव वह कार्य किया जिसे वह कर सकते थे। महाराणा संग्राम सिंह का साथ देकर उन्होंने राष्ट्रवादी शक्तियों को मजबूत करने का कार्य किया। उनकी उपस्थिति से महाराणा संग्राम सिंह को निश्चय ही बल प्राप्त हुआ।
उन्होंने शत्रु का अंत करने के लिए किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। मुस्लिमों के सैन्य दल पर वह भूखे शेर की भांति टूट पड़े थे। हसन खान मेवाती और उनके साथियों ने जी भरकर शत्रुओं का संहार किया था। उस दिन के उस घनघोर युद्ध में जहां अन्य वीरों ने अपना बलिदान दिया था वहीं राणा की ओर से युद्ध करते हुए हसन खान मेवाती भी शहीद हो गए थे।
हसन खान मेवाती उस दिन अपने साथ 12000 घुड़सवार सैनिकों को लेकर युद्ध के मैदान में उतरे थे। बाबर की सेना की ओर से फेंका गया तोप का एक गोला हसन खान मेवाती के सीने पर जाकर लगा था, जिससे उस वीर सेनानायक का युद्ध के मैदान में ही अंत हो गया था। वास्तव हसन खान मेवाती जैसे वीर सपूतों का अंत होना बड़ा कष्टप्रद होता है, विशेष रूप से तब जब शत्रु अपनी सेना के साथ एक चुनौती के रूप में सामने खड़ा हो। परंतु नियति को कोई टाल नहीं सकता। इसके उपरांत भी हम यह कहना चाहेंगे कि मजहब से ऊपर उठकर राष्ट्र के लिए समर्पित होकर कार्य करना निश्चय ही देशभक्ति और वीरता की श्रेणी में आता है। हसन खान मेवाती जैसे वीर सपूत और भारत भक्त स्वतंत्रता सेनानी की इसी परंपरा को हमें आज भी मान्यता प्रदान करनी चाहिए।

बाहर खान लोहानी और बाबर

हसन खान मेवाती की भांति बाहर खान लोहानी का नाम भी भारत भक्त मुस्लिमों में सम्मान के साथ लिया जाना चाहिए। जिस समय बाबर ने इब्राहिम लोदी को परास्त किया था उस समय अफगान सैनिकों ने बाहर खान लोहानी नामक अफगान सरदार के नेतृत्व में फिर से एकत्र होना आरंभ कर दिया था। ये लोग बाबर को किसी भी दृष्टि से स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।
वे अपने खोए हुए साम्राज्य को फिर से प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहे। बाहर खान लोहानी ने अपना नाम परिवर्तित कर सुल्तान मोहम्मद खान रख लिया था। वह बाबर को एक क्षण के लिए भी भारत की भूमि पर देखने के लिए तैयार नहीं था। उसने अपने सभी अफगान सरदारों और सैनिकों को एकत्र किया और बाबर के लिए चुनौती दिए जाने की योजनाओं पर विचार करने लगा।
मोहम्मद खान ने हसन खान मेवाती को अपनी सेना का सेनापति बनाया। हमें हसन खान मेवाती के बारे में यह भी जानकारी होनी चाहिए कि वह हिंदू समाज के यदुवंश से संबंध रखता था। यदुवंश के विषय में हम सभी जानते हैं कि यह श्री कृष्ण जी से जुड़ा हुआ है। इस प्रकार हसन खान मेवाती की रगों में भारत भक्ति का खून दौड़ता था। हसन खान मेवाती ने ही इब्राहीम लोदी के भाई महमूद लोदी को दिल्ली का बादशाह बनाने की योजना पर कार्य करना आरंभ किया था। यह अलग बात है कि उसकी इस योजना की भनक बाबर को लग गई थी, क्योंकि इस योजना पर काम होने से पहले ही अफगान सैनिकों और अधिकारियों में फूट पड़ गई थी। कई अफगान सैनिकों ने जाकर बाबर को सब कुछ सच-सच बता दिया था। बाबर ने अपने विरुद्ध बनते इस गठबंधन को क्रियात्मक रूप में आने से पहले ही ध्वस्त करने का मन बना लिया। फलस्वरूप उसने अपने बेटे हुमायूं को इस प्रकार के विद्रोह को कुचलने के लिए सेना लेकर भेजा। हुमायूं के माध्यम से बाबर ने विद्रोह के इन संभावित क्षेत्रों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

हसन खान मेवाती और संग्राम सिंह का गठबंधन

 हसन खान मेवाती को भी इस बात को समझने में अधिक देर नहीं लगी कि बाबर उनकी योजनाओं को समझ चुका है और अब उनके लिए कठिनाई और भी अधिक बढ़ गई है। इसके उपरांत भी मेवाती शांति से नहीं बैठा और वह अपनी योजनाओं को मूर्त रूप देने में लगा रहा। अब उसका ध्यान मेवाड़ के महाराणा संग्राम सिंह की ओर गया। संग्राम सिंह उस समय भारत के वीर शिरोमणि महापुरुषों में गिने जाते थे। उनके बारे में यह भी माना जाता था कि यदि उन्होंने साथ देने का मन बना लिया तो फिर पीछे नहीं हटेंगे। अपनी देशभक्ति पूर्ण कार्य योजना को लेकर हसन खान मेवाती महाराणा संग्राम सिंह के पास जा पहुंचे। महाराणा संग्राम सिंह को भी उस समय विदेशी आक्रमणकारी बाबर का सामना करने के लिए अपने विश्वसनीय देशभक्त साथियों की आवश्यकता थी। 
महाराणा नहीं चाहते थे कि किसी भी स्थिति में बाबर को भारत में सहन किया जाए। वह जानते थे कि बाबर जितनी देर भारत में रुकने में सफल हो जाएगा ,उतना ही वह हमारे लिए घातक सिद्ध होगा। जब महाराणा संग्राम सिंह ने देखा कि बाबर पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी को परास्त करने के पश्चात स्वदेश न लौटकर भारत में ही रुकने का मन बनाने लगा है तो उन्होंने भी युद्ध की तैयारियां करनी आरंभ कर दी थीं। जब हसन खान मेवाती महाराणा संग्राम सिंह से मिलने के लिए चित्तौड़ पहुंचे तब उनके साथ महमूद खान लोदी भी था। जो कि इब्राहिम लोदी का भाई था। संयोग की बात थी कि जिस समय हसन खान मेवाती और महमूद लोदी महाराणा संग्राम सिंह से मिलने के लिए चित्तौड़ पहुंचे उस समय वह स्वयं भी बाबर से युद्ध की योजना पर विचार कर रहे थे।

जब महाराणा संग्राम सिंह को उनके दोनों के आने का प्रयोजन ज्ञात हुआ तो उन्होंने बड़े आत्मीय भाव से उनसे बातचीत की और दोनों के साथ बाबर के साथ होने वाले संभावित युद्ध पर भी चर्चा की।

महाराणा संग्राम सिंह के बारे में व्याप्त भ्रान्ति

कुछ लोगों ने महाराणा संग्राम सिंह के विषय में यह भ्रांति फैलाने का काम किया है कि उन्होंने ही बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था ?
जिन लोगों ने इस प्रकार की भ्रांति फैलाई है उनका आधार ‘तुजुक ए बाबरी’ में तत्संबंधी उल्लिखित एक मिथ्या कथन है। ‘तुजुक ए बाबरी’ अर्थात अपनी आत्मकथा में बाबर ने लिखा है कि मेवाड़ के महाराणा सांगा ने पहले भी मेरे पास दूत भेज कर मुझे भारत बुलाया था और कहलवाया था कि आप दिल्ली तक का क्षेत्र जीतकर उस पर अधिकार कर लें और मैं आगरा तक का क्षेत्र ले लूंगा। बाबर ने अपनी आत्मकथा में इस तथ्य को लिख तो दिया है परंतु इसकी कहीं अन्य से पुष्टि नहीं होती। जिससे स्पष्ट होता है कि यह उसके द्वारा लिखा गया एक मिथ्या कथन है।
राणा स्वयं लोदी से उसके क्षेत्र छीनते जा रहे थे। फिर वह भारत पर आक्रमण करने के लिए बाबर को क्यों बुलाते ?
इसके विपरीत वास्तविकता यह है कि बाबर ने ही राणा से सहायता मांगी थी और अपना दूत संग्राम सिंह के पास भेजा था। अपने दूत के माध्यम से बाबर ने महाराणा संग्राम सिंह से कहा था कि “बादशाह बाबर लोदी से युद्ध का अभिलाषी है। इसीलिए उन्होंने आपके लिए एक संधि पत्र भेजा है। आपको भी उस संधि पत्र पर अपनी स्वीकृति प्रेषित करनी चाहिए। हमारे बादशाह बाबर ने अपने इस संधि पत्र में कहा है कि “इधर से मैं दिल्ली पर आक्रमण कर दूंगा और उस ओर से आगरा पर आप आक्रमण कर देना। लोदी बादशाह व्यथित होकर अधीनता स्वीकार कर लेगा अथवा पलायन कर जाएगा। इस युद्ध के पश्चात दिल्ली तक का राज्य मेरे अधिकार में रहेगा और आगरा तक आपका राज्य स्थापित हो जाएगा।”
रायसेन के राजा सलहदी की सलाह से महाराणा ने इस संधि पत्र पर स्वीकृति प्रदान कर अपनी ओर से एक पत्र दूत के हाथ बाबर को भेजा । पर बाबर ने जब पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी से युद्ध किया तो राणा संग्राम सिंह उस युद्ध में पूर्णतया तटस्थ रहे। इसका एक कारण यह था कि मेवाड़ के सामंतों ने महाराणा संग्राम सिंह के निर्णय का विरोध कर दिया था। उन्होंने कहा था कि सांप को दूध पिलाने से क्या लाभ ? राणा के निर्णय बदलने से सलहदी बाबर से जा मिला था।
( स्रोत : डॉक्टर मोहन लाल गुप्ता अपने फेसबुक के पेज पर 19 अगस्त 2021 को लिखते हैं )
हमको यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि यदि महाराणा संग्राम सिंह बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए बुलाते तो उससे अगले वर्ष खानवा के मैदान में युद्ध नहीं करते। जब बाबर भारत में आ गया था तो महाराणा संग्राम सिंह ने कहीं से भी कोई यह संकेत या संदेश नहीं दिया कि वह उसके भारत आगमन पर प्रसन्न हैं और उसका स्वागत करते हैं। उस विदेशी आक्रमणकारी का सामना युद्ध के मैदान में करके महाराणा संग्राम सिंह ने स्पष्ट कर दिया था कि वह वीर की भांति ही विदेशी आक्रमणकारी का स्वागत सत्कार करना चाहते हैं।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

(हमारी यह लेख माला आप आर्य संदेश यूट्यूब चैनल और “जियो” पर शाम 8:00 बजे और सुबह 9:00 बजे प्रति दिन रविवार को छोड़कर सुन सकते हैं।)

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